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भुलाये नहीं जा सकते बाबा केसरी
डॉ बिसेश्वर प्रसाद केसरी (बीपी केसरी) अब हमारे बीच नहीं हैं. झारखंड अलग राज्य गठन के साथ-साथ झारखंडी भाषा और संस्कृति को अलग पहचान दिलाने के लिए जितनी त्याग और तपस्या उन्होंने की, उसके लिए राज्य उनका सदैव आभारी रहेगा. झारखंडी भाषा, साहित्य और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोना उनका एक मात्र लक्ष्य था, […]
डॉ बिसेश्वर प्रसाद केसरी (बीपी केसरी) अब हमारे बीच नहीं हैं. झारखंड अलग राज्य गठन के साथ-साथ झारखंडी भाषा और संस्कृति को अलग पहचान दिलाने के लिए जितनी त्याग और तपस्या उन्होंने की, उसके लिए राज्य उनका सदैव आभारी रहेगा. झारखंडी भाषा, साहित्य और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोना उनका एक मात्र लक्ष्य था, जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन की पूरी पूंजी लगाकर पिठोरिया गांव में नागपुरी संस्थान (शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र) की स्थापना की. अपने आप में एक संस्था बन चुके डॉ केसरी को कभी अपने खास होने का गुमान नहीं रहा. अपने सहज और सर्वसुलभ व्यक्तित्व की वजह से शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता, रंगमंच और राजनीति आदि के क्षेत्र के कई लोग उनसे जुड़े रहे. एक आम झारखंडी के लिए भी उनके दिल में वही स्नेह रहा. तभी तो उनका जाना सभी को खल रहा है.
बीरेंद्र कुमार महतो
‘मिलना इत्तिफाक था, बिछड़ना नसीब था,
वो उतना ही दूर चला गया जितना वो करीब था,
हम उसको देखने के लिए तरसते रहे,
जिस शख्स की हथेली पे हमारा नसीब था…’
हमें डहर दिखलाने वाले, हमारे दु:ख-सुख में परछाई की तरह चलने वाले बाबा केसरी का जाना पूरे झारखंडी समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है, जिसकी भरपाई कभी नहीं की सकती है. झारखंड आंदोलन के बौद्धिक अगुआ, चिंतक, साहित्यकार, एक्टिविस्ट डॉ बीपी केसरी, जिसने अपना पूरा जीवन झारखंडियों के दु:ख-दर्द को समझने और उसके निदान में खपा दिया. झारखंड के सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक मंच पर उन्हें बेहद सम्मानीय स्थान प्राप्त रहा.
मई माह में बाबा ने मुझे अपने शोध संस्थान में बुलाया और कहा कि ‘युवामन के एकजुट कर, आपन हक अधिकार खातिर, आपन मान सनमान खातिर अपने के तैयार कर, जे भटकाव समाज में आय जा हे उके डहर देखायक परयास कर बाबू…’ इसके लिए उन्होंने बंद पड़ी नवरंग पत्रिका को फिर से शुरू करने की बात कही, जिसमें झारखंड की नौ भाषाओं में रचनाएं छपती थी. साहित्यिक रचनाएं, खासकर के नागपुरी भाषा में रचनाकर्म के लिए बराबर अपने पास बैठाकर समझाते व उस पर पहल करने की बात दोहराते रहते. नागपुरी पत्रिका गोतिया के संपादकीय सलाहकार के रूप में बाबा ने हमेशा मार्गदर्शन किया.
मार्गदर्शन के साथ-साथ पत्रिका को आर्थिक मदद भी करते रहे. हमेशा अच्छा करने के लिए प्रेरित करने वाले डॉ केसरी का पूरा जीवन संघर्षों से भरा रहा. झारखंड राज्य बनने के बाद भी वे खुश नहीं थे. वे अक्सर मुझसे कहा करते थे ‘बाबू राइज तो बनलक लगिन केकर खातिर…? हामरे के पहचान करेक होवी सासक आउर सोसक कर, उमनकर खिलाफ फिन से उलगुलान कर मसाल बारेक कर दरकार हय बुचु…’, समाज के प्रति समर्पित बाबा ने कभी आदिवासी-मूलवासियों को अलग नहीं समझा.
दोनों ही समुदाय को साथ लेकर चले. सच कहा जाय तो झारखंड के इतिहास में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा व गोमके डॉ रामदयाल मुंडा को जो दर्जा हासिल है, वही दर्जा डॉ. केसरी काे प्राप्त है. झारखंड की अलग अस्मिता व पहचान की जो लड़ाई आदिवासी महासभा के नेतृत्व में छेड़ी गई थी, उसे झारखंड आंदोलन के चरम में बौद्धिक आधार देने का काम बाबा केसरी ने ही किया था. इतना ही नहीं कमोबेश झारखंड आंदोलन के वक्त जितने भी संगठन सक्रिय थे, उन्हें केसरीजी का सानिध्य प्राप्त था. वास्तव में वे झारखंड के केसरी थे. उन्हें झारखंड की आबो हवा, वन, पहाड़, भाषा-साहित्य-संस्कृति से बेहद गहरा लगाव था. वे जानते थे कि झारखंड की पहचान के लिए इसकी भाषा-संस्कृति को वैज्ञानिक आधार देना जरूरी है. इसी के मद्देनजर उन्होंने कई पत्रिकाओं के साथ साथ शोध संस्थान की भी स्थापना की.
डॉ केसरी मूलत: साहित्यकार थे, उन्होंने कई अमूल्य साहित्यिक ग्रंथों की रचना तो की ही, देश-प्रदेश के विभिन्न भागों में रहने वाले, वर्षों से बिसरा दिए गए झारखंडी रचनाकारों को ढूंढ कर उनकी रचनाओं को संग्रहित कर उन्होंने एक ऐतिहासिक काम किया. अपने जीवन के अंतिम समय तक उनकी कलम बिना थके चलती रही. समाज में बाबा के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता.
(लेखक जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग, रांची विश्वविद्यालय से जुड़े हैं)
बनखंडी मिश्र
15 अगस्त 2016, आजादी की 70वीं वर्षगांठ की यह सुबह मेरे लिए व्यथित करने वाला समाचार लाएगा, यह मैंने कभी कल्पना नहीं की थी. हर दिन की भांति अलसुबह अपने झरिया स्थित आवास पर समाचार–पत्रें की प्रतीक्षा कर रहा था और मन में 15 अगस्त 1947 के दिन की स्मृतियां तैर रही थीं. लेकिन, यह क्या! अखबार हाथों में आते ही, पहली खबर, जिस पर नजर गई–स्तब्ध करने वाली थी. विगत आधी सदी का मेरा यार और हमराही बिसेश्वर (डॉ बीपी केसरी) नहीं रहा.
वैसे, रांची की खास खबरों को पढ़कर (जिनमें बिसेश्वर की चर्चा होती थी) तुरंत मैं अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता था, उसकी भी सुनता था. दोनों की आयु 80 पार कर चुकी थी. मेरा फोन जब भी उसको जाता या उसका फोन जब भी मुझे आता, हेलौ! की जगह ‘कहो बुड्ढे’ का संबोधन हुआ करता था और फिर लंबी बातचीत चलती थी, जिसमें हाल–चाल से लेकर हंसी–मजाक, पुरानी बातें, बच्चों का समाचार, लेखन व पठन संबंधी दोनों की नई योजनाएं भाामिल हुआ करती थीं.
लेकिन, आज? प्रतिक्रियाओं का आदान–प्रदान हो, तो कैसे? आमने–सामने मिल–बैठकर घंटों चली आखिरी बातचीत सिंतबर 2010 में धनबाद में हुई थी. भारत कोकिंग कोल लिमिटेड द्वारा राष्ट्रभाषा समारोह आयोजित हुआ था, जिसमें मुख्य अतिथि विख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह, बिसेश्वर और मुझे सम्मानित किया गया था. उसी समारोह में, झारखंड के एक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के डॉ. गिरधारी राम ‘गौंझू’ एवं डॉ अशोक ‘पागल’ से भी मेरा परिचय हुआ था.
यों, मैं और बिसेश्वर हमउम्र थे, दोनों का जन्म बिहार के अलग–अलग क्षेत्र में हुआ था. वह था, झारखंड का भावी अग्रदूत और मैं ठहरा बिहार का घसीटाराम. हमदोनों की प्रथम भेंट सन 1956 ई. में हुई थी–वह भी अध्ययन–अध्यापन के क्रम में. रांची जिला स्कूल में शिक्षक–प्रशिक्षण (बीएड) का एक लघु कार्यक्रम शुरू हुआ था. जिला स्कूल के प्रधानाध्यापक स्व. गुणानन्द झा (हमारे ग्रामीण एवं संबंध में चाचा) उस कार्यक्रम के प्रभारी थे. छोटानागपुर के शिक्षा निदेशक स्व. ज्वाला पांडेय थे, उन्होंने यह प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की स्वीकृति दी थी. कारण, उन दिनों झारखंड के पुराने एवं प्रस्तावित उच्च विद्यालयों में प्रशिक्षित शिक्षकों का घोर अभाव था.
जिला स्कूल के कार्यालय में ही चाचाजी ने हमारा परिचय बिसेश्वर से कराया था. मुझे याद है, उन्होंने कहा था, ‘एक प्यारे शिष्य तुम हो बिसेश्वर और तुम्हारे साथ एक पारिवारिक बालक को जोड़ रहा हूं.’ और उसी दिन से हम दोनों उस कार्यक्रम के प्रमुख (सहपाठियों की राय में) जोड़ा बैल बन गए थे.
डेढ़ महीने की दोस्ती–हर कार्यक्रम में अंगरेजी सिनेमा के ‘लॉरेल–हार्डी’ की तरह हंसते–खेलते शैक्षणिक गहराइयों को हम दोनों नापते रहे. ट्रेनिंग कोर्स से संबंधित हर कार्यक्रम में वस्तुत: जोड़ा बैल की तरह जुते रहे-शिक्षा की फसल तैयार करने में लगे रहे. उसी बैच में खूंटी स्कूल के एक अप्रशिक्षित शिक्षक जगदीश त्रिगुणायत नामक एक कवि–शिक्षक भी थे, जो उस समय अपना ‘बांसरी बज रही’ नामक काव्य–संकलन की तैयारी में लगे हुए थे (बाद में, यह पुस्तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा सन 1957 में प्रकाषित हुई थी).
त्रिगुणायतजी, वयस में, हमदोनों से बीस पड़ते थे. लेकिन, समापन समारोह में– बिसेश्वर का मांदर बजाते नृत्य और मेरे द्वारा प्र्रस्तुत ‘खऐर कका’ नामक प्रहसन (स्व. प्रो. हरिमोहन झा द्वारा रचित) ने चमत्कार किया था– ऐसा अभिमत हमारे निदेशक पांडेय साहब का था. फलत:, परीक्षा का रिजल्ट निकलने के पहले ही हमदोनों को, सरायकेला–खरसांवा के दो प्रस्तावित उच्च विद्यालयों का प्रधानाध्यापक नियुक्ति का आदेश उन्होंने दे दिया था. लेकिन, मैं था ‘घरमुंहा’ (धनबाद के प्रति एकाग्र) और बिसेश्वर तो रांची छोड़ना नहीं चाहता था. इसलिए हमलोगों ने उस नौकरी को स्वीकार नहीं की.
पिछले पचास साल तक हमदोनों यार बने रहे। उसने झारखंडी साहित्य–संस्कृति के संरक्षण और उन्नयन का जो बीड़ा उठाया, उसका सफलतापूर्वक निर्वाह किया, यह जगत विदित है.
उसने जो विपुल साहित्य का सृजन–संकलन किया, उस पर अगली सदी के शोधार्थियों का पथ–प्रदर्शन होता रहेगा. स्व. डॉ. रामदयाल मुंडा जैसी अंरराष्ट्रीय विभूति, बिसेश्वर की देन थे– ऐसा मैं मानता हूं. पिछले पचास वर्षों में, बिसेश्वर ने झारखंडी भाषा, साहित्य व संस्कृति को विश्व के सामने उतारने का, जो भगीरथ प्रयत्न किया, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकाश–पुंज का काम करता रहेगा. उसके वैचारिक महासागर में, मेरे ऐसा सदा भटकने वाला व्यक्ति, तिनके के रूप में बहता रहा है. अपने पेशागत यायावरी में जब कभी, रांची जाता रहा हूं, मैं उससे मिलने का, वैचारिक आदान–प्रदान का अवसर निकाल लेता था. यह मेरा दुर्भाग्य है कि बढ़ती उम्र और शारीरिक रुग्णता के कारण इधर एक साथ बैठकर विचार–विमर्श नहीं कर पाते थे. यों, दूरभाष के माध्यम से बिसेश्वर से प्राय: बातें होती रही थी. उससे दिशा–निर्देश पाता रहा. लेकिन, अब तो मेरे सामने अंधकार–ही–अंधकार है.
मुझे फिर भी विश्वास है कि मेरा वो वैचारिक प्र्रकाश–स्तंभ सदा बना रहेगा. मैं महाप्रभु से प्रार्थना करता हूं कि मेरे सखा को, स्वर्ग में उचित स्थान देंगे, जहां से वह न केवल झारखंडी समुदाय को, बल्कि पूरे मानव–समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा. बिसेश्वार कॉलेज/विश्वविद्यालय में अध्यापकीय करते हुए देश–दुनिया की यात्रओं का भी अवसर निकालता रहा. सांस्कृतिक यायावरी में उसकी उपलब्धियों की तुलना महान घुमक्कड़ राहुल सांस्कृत्यान से की जा सकती है. बिसेश्वर द्वारा रचित साहित्य में से कुछ का उल्लेख करना अत्यावश्यक प्रतीत होता है.
1. नेरूआ लोटा और सांस्कृतिक अवधारणा
2. छोटानागपुर का इतिहास: कुछ सूत्र, कुछ संदर्भ
3. झारखंड के सदान
4. झारखंडी गीतों का वृृहद् संकलन
5. मैं झारखंड हूं
देश-विदेश की विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित डॉ बिसेश्वर के सारगर्भित असंख्य लेखों का संकलन, न केवल विश्व–कोष का काम करेगा, बल्कि भावी पीढ़ी के शोधार्थियों का उचित मार्गदर्शन भी करता रहेगा.
झारखंडी संस्कृति की मूल भावना को जन–जन तक पहुंचाने की उसकी ‘मेला योजना’ देश के प्रसिद्ध चिंतक और समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया (रामायण मेला के प्रायोजक) की कोटि में बिसेश्वर को रखता है. मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सद्गुणों को आमजनों में प्रचारित–प्रसारित करने का जो अथक प्रयास डॉ लोहिया ने किया, मेरा यार भी उन्हीं की श्रेणी में आता है. वैचारिक दृष्टि से मैं, डॉ लोहिया का मुरीद होने के गर्व का अनुभव करता हूं. दूसरी ओर, बिसेश्वर की उपलब्धियों को मैं क्या अगली पीढ़ी सदा याद रखेगी.
हमलोगों की यायावरी की एक घटना का उल्लेख करने का लोभ संवरण मैं नहीं कर पा रहा हूं. बिसेश्वर अपने सखा एवं शिष्य डॉ. रामदयाल मुंडा के साथ दिल्ली में था और जेएनयू के गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था. मैं भी अपने ज्येष्ठ दौहित्र चिरंजीवी पुलपुल के साथ उसी गेस्ट हाउस में टिका था. संयोगवश, भोजन के समय हमलोगों की मुलाकात डायनिंग हॉल में हो गई. फिर क्या था, एक ही टेबुल पर सभी बैठे. भोजन के मेनू भले अलग थे, लेकिन हमलोगों के ठहाकों से पूरा हॉल गूंजने लगा था. कर्मचारी सब चकित हो गए कि ये बूढ़े लोग भी अपने अंत:करण में कैसा उल्लास छिपाकर रखते हैं.
और आज गह्वलित मन से बिसेश्वर का एक व्यंग्य (जो उसने मुझपर किया था) नहीं भूल सकता हूं. वह इस प्रकार था कि, यार! तुम्हारा नाम बनखंडी कैसे पड़ गया? हो तो तुम मिथिलांचल के!’ उस समय मैंने उत्तर दिया, ‘मेरा एक भाई है, जो झारखंडी है और मैं बनखंडी हूं.’ वह भले उस वक्त निरुत्तर हो गया हो, लेकिन दो सगे भाई के स्नेह–सूत्र के अटूट बंधन को आजीवन उसने बनाए रखा. आज मैं अपने भ्राता ‘झारखंडी’ को कहां खोजूंगा? मेरा हृदय पूर्णरूप से द्रवित हो रहा है. मैं अपने मन की ‘बिथा’ पाठकों के सम्मुख भावावेष में उपस्थित कर रहा हूं, न जाने मेरा बिसेश्वर, मेरे इस आचरण को किस रूप में स्वीकारेगा?
बस…..अलविदा! मेरा सखा… मेरा रहबर!
डॉ बीपी केसरी व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सुजीत केसरी
डॉ बिसेश्वर प्रसाद (बीपी) केसरी का जन्म एक जुलाई 1933 को हुआ. जीवन यात्रा पिता शिवनारायण साहू और माता लगन देवी की छत्रछाया में शुरू हुई. मां की ममता से पढ़ने की जिद पैदा हुई. प्राथमिक शिक्षा गांव में प्राप्त कर रांची विश्वविद्यालय से एमए और पीएचडी की. वे ख्याति प्राप्त झारखंडी आंदोलनकारी, साहित्यकार, शिक्षाविद्, इतिहासकार एवं पत्रकार थे.
इनकी प्रमुख कृतियों में नागपुरी भाषा और साहित्य, साहित्य के तत्त्व और आयाम, झारखंडी भाषाओं की समस्याएं और संभावनाएं, छोटानागपुर का इतिहास, झारखंड आंदोलन की वास्तविकता, चरित्र-निर्माण, झारखंड के सदान, मैं झारखंड में हूं, ऊँ विश्वविद्यालय नम:, कवि रत्न शारदा प्रसाद शर्मा-एक अंतरंग आकलन, नागपुरी गीतों में शृंगार रस, सिर्फ सोलह सफे, शेष सारे सफे (दोनों हिंदी कविता), सत्यार्चन, ठाकुर विश्वनाथ शाही, नेरूआ लोटा उर्फ सांस्कृतिक अवधारणा, कल्चरल झारखंड : प्रोब्लम्स एंड प्रोस्पेक्ट्स, नागपुरी भाषा उद्गम और विकास, झारखंड के इतिहास की कुछ जरूरी बातें, रेडियो ले दूठो नागपुरी नाटक, नागपुरी लोक गीत वृहद् संग्रह और नागपुरी कवि और उनका काव्य प्रमुख है. इसके अलावे इनके द्वारा अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया गया है.
इन्हें अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में साउथ एशियन कांफ्रेन्स विंसकौन्सिन, यूएसए (1985), इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपिंग इकोनोमी, टोकियो और यूनिवर्सिटी ऑफ क्योटो, जापान (1988) एवं कैंब्रिज यूनिवर्सिटी इंगलैंड (1996) में भाग लेने का अवसर मिला.
इन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा गया है. इन सम्मानों में विक्रमशिला विद्यापीठ, भागलपुर के द्वारा ‘विद्या-सागर’ (1982), लोक सेवा समिति द्वारा ‘झारखंड रत्न’ (1999), झारखंड साहित्य परिषद्, डालटनगंज द्वारा ‘साहित्य-शिरोमणि’ (2002), वैश्य सम्मेलन रांची द्वारा ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्य सम्मान’ (2003), प्रभात खबर द्वारा ‘झारखंड गौरव सम्मान’ (2009), राजभाषा सम्मान, धनबाद, झारखंड (2010), रांची दूरदर्शन केंद्र द्वारा ‘रांची दूरदर्शन केंद्र सम्मान’(2010), दैनिक जागरण रांची द्वारा ‘दैनिक जागरण सम्मान’ (2012), कला-संस्कृति, खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग, झारखंड सरकार के द्वारा ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ (2011-2012), झारखंड भाषा साहित्य संस्कृति, अखड़ा रांची द्वारा ‘अखाड़ा सम्मान’ (2013) और ब्रजेंद्र मोहन चक्रवर्ती स्मृति साहित्य सम्मान (2014) शामिल हैं.
झारखंडी समाज और नागपुरी भाषा को इनकी अनूठी देन है-नागपुरी संस्थान (शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र) पिठोरिया. इनसे प्रशिक्षित सैकड़ों शोधार्थी झारखंडी सभ्यता-संस्कृति, भाषा-साहित्य एवं रीति रिवाजों के संरक्षण-संवर्द्धन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. 14 अगस्त 2016 को इनका देहावसान हो गया.
मुख्यमंत्री ने दी श्रद्धांजलि
रांची. मुख्यमंत्री रघुवर दास ने सोमवार को स्वर्गीय बीपी केसरी के पार्थिव शरीर पर पुष्प अर्पित करते हुए श्रद्धांजलि दी. उन्होंने पिठोरिया स्थित उनके आवास पर जाकर शोक संतप्त परिवार को सांत्वना भी दी. मुख्यमंत्री के आदेश पर मंगलवार को उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया गया.
डॉ बीपी केसरी की अनूठी देन है नागपुरी संस्थान
रांची. यदि आपको झारखंडी सभ्यता-संस्कृति, भाषा-साहित्य, रीति-रिवाज, इतिहास-भूगोल, आचार-विचार और अस्तित्व-अस्मिता से जुड़े किसी भी झारखंडी प्रश्नों का जवाब चाहिए तो झारखंड की राजधानी रांची से 17 किमी दूर रांची-पतरातू-रामगढ़ स्टेट हाइवे में स्थित पिठोरिया गांव के नागपुरी संस्थान (शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र) में आना होगा. 17 फरवरी 2002 को संस्थान की स्थापना डॉ बीपी केसरी और उनकी पत्नी शांति केसरी के द्वारा की गयी. कार्यारंभ एक जुलाई 2003 से हुआ.
झारखंडवासियों को नागपुरी संस्थान की अनन्यतम देन संस्थान का पुस्तकालय है. यहां जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं की 520 पुस्तकें, अंगरेजी साहित्य की 515 पुस्तकें और 192 पत्रिकाएं, हिंदी साहित्य की 1556 पुस्तकें और हिंदी व नागपुरी भाषा के 3392 पत्रिकाएं उपलब्ध हैं. इसके अलावे 67 नागपुरी कवियों द्वारा रचित 117 कविता और गीत की पुस्तकें, 645 नागपुरी कवियों का जीवनवृत्त और उनके द्वारा रचित 35000 शिष्ट गीत और लगभग 4 हजार लोकगीतों का संग्रह है. समग्र रूप से पुस्तकालय की किताबों को मूल पांडुलिपि, प्रतिलिखित, प्रकाशित और अप्रकाशित वर्ग में रखा जा सकता है.
राह रही एक, साथी बने अनेक
अनिल अंशुमन
आंदोलनों की रचना करना एक कठिन कार्य है और रचना का आंदोलन करना तो उससे भी अत्यंत कठिन है. विरले ही होते हैं, जो इन दोनों कार्यों को कर पाते हैं. सबों के अत्यंत प्रिय और मृदुभाषी श्रधेय बीपी. केसरी ऐसे ही विरलों में रहे, जिनका निधन झारखंड के साथ-साथ देशज समाज के लिए भी ऐसी क्षति है, जो अपूरणीय होने के साथ-साथ बार-बार हमें सालती रहेगी. खासकर ऐसे जटिल और चुनौतीपूर्ण समय में जब भिन्नताओं और भेद-मतभेदों को सुन-समझकर एकसाथ समेटकर चलने की सक्रिय क्षमता रखनेवालों की संख्या लगातार घटती जा रही है, केसरी जी का जाना कोई सामान्य घटना नहीं है.
आज जबकि अपनी कमीज सबसे सफेद और बाकी की काली कहने की प्रवृत्ति जोरों पर है. खासकर बौद्धिक-रचनाकार जगत में बाजारवाद से ग्रसित ब्रांडिंग मनोभावों ने हर चीज को इस कदर छिन्न-भिन्न कर डाला है कि कोई किसी को सुनाने-समझने को तैयार नहीं.
आपसी सहमति, सक्रिय रुचि और मौलिक रचनाकर्म की सकारात्मकता की वैचारिकता को अप्रासंगिक घोषित कर जुगाड़ डॉट कॉम पर अमल कर जल्द से जल्द चर्चा और मान्यता पा लेने की होड़ में हर कोई रहना चाहता है. जसम द्वारा आयोजित ‘सांस्कृतिक संगठन की चुनौतियों’ पर बोलते हुए हुए डाॅ केसरी ने बेबाक स्वर में चिंता जाहिर की थी, ‘लगता है, अगली पीढ़ी का इंतज़ार करना होगा क्योंकि वर्तमान पीढ़ी में एक बड़ी तादाद स्वयं को स्थापित करने की संकीर्ण सोच से बहार कुछ भी देखने और जानने-समझने को तैयार नहीं दीखती.’ मौलिक अध्ययन – रचनाकर्म घटता जा रहा है, संगठन टूटते जा रहें हैं और स्वतंत्र रहने के नाम पर व्यक्तिवादिता सिर चढ़कर बोल रही है. डाॅ रामदयाल मुंडा के निधन से वे अपने आप को काफी अकेला महसूस करने लगे थे, तो इसका कारण महज दोस्ती नहीं थी.
सर्वविदित है कि 1980 में रांची वीवी के स्नातकोत्तर जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग को कई जद्दोजहद के साथ खड़ा करने में विशेषकर मुंडा जी और केसरी जी ने किस शीद्दत और समर्पण के साथ काम किया. कई-कई दिनों तक सामूहिक गहन शोध-विमर्श के बाद स्तरीय अध्ययन-अध्यापन का पाठ्यक्रम तैयार किया तो उसके पीछे झारखंडी देशज भाषाओं के विकास का मौलिक आधार तैयार करना था. ताकि यहां पढ़नेवाले छात्रों के अंदर सोचने-समझने का एक व्यापक और सृजनधर्मी नजरिया पैदा हो और वे अपनी प्रतिभा से डिग्री हासिल करने के साथ-साथ अपनी भाषाओं को आज के संदर्भ में एक विकसित मुकाम दे सकें. दूसरों को नसीहत देने की बजाये रिटायरमेंट का पूरा पैसा लगाकर अपने गांव पिठौरिया नागपुरी भाषा संस्थान का निर्माण कर दिखलाया की अपनी भाषा-संस्कृति के विकास के लिए पहले खुद आगे आना होगा. खास बात रही कि सरकार तक से इसकी याचना नहीं की कि वो पैसा दे.
विभाग के पाठ्यक्रम में टीएस इलियट जैसे विश्व स्तरीय लेखकों के साथ-साथ देश के कई बड़े लेखकों की किताबें शामिल की गयीं, तो सिर्फ इसीलिए कि यहां पढ़नेवाले छात्रों का मानसिक स्तर बढ़ सके. उनमें मौलिक रचनाकर्म के साथ-साथ शोध करने में दक्षता आये. समय-समय पर अन्य भाषाओं के विद्वानों को बुलाकर छात्रों का ज्ञानवर्धन कराया गया. इतना ही नहीं मौलिक लेखन और पठान-पाठन का उचित माहौल तैयार करने के प्रति सदैव गंभीरता अपनायी गयी. भाषा-संस्कृति के सम्यक विकास के दायित्वों से विभाग के छात्र-छात्राओं को समय-समय पर अवगत कराते हुए सामूहिक कार्यशैली पर भी अमल करना सिखाया गया. आज यह सब लुप्त होता जा रहा है, विभाग में हर वर्ष सरहुल और कर्मा मनाने की विशिष्ट परंपरा आज भी जारी है.
डॉ केसरी ने भाषाई और बौद्धिक कार्यों के साथ-साथ जनहित मुद्दों पर चलनेवाले विभिन्न कार्यों और अभियानों से सदा स्वयं को जोड़े रखने में कभी कोई कोताही नहीं की. वे कई जनसंगठनों में न सिर्फ सक्रिय तौर पर शामिल रहे, बल्कि अनेकों बार एक कार्यकर्ता की तरह भी काम करने में कोई संकोच नहीं दिखाया. वामपंथ से सदैव ही जीवंत और सक्रिय रिश्ता निभाते हुए अपने देशज पहलू को कभी कमजोर नहीं होने दिया. जमीनी सक्रियता को लेकर अक्सर वे सबको इसी बात पर विशेष प्रेरित करते रहे कि जनता से अलग होकर साहित्य-संस्कृति तथा भाषा का वास्तविक विकास सम्भव नहीं है. क्योंकि किसी भी भाषा-संस्कृति का आधार जनता ही होती है.
भाषा-संस्कृति और जनांदोलन के मोर्चे के वे एक सैद्धांतिक स्तंभ बनकर उभरे तो इसके पीछे उनकी एक स्पष्ट व्यापक वर्गीय चेतना थी, जिसे उन्होंने अभी धूमिल नहीं होने दिया. इसी विशिष्ट क्षमता ने उन्हें झारखंड आंदोलन के दौर में सन 1987 रामगढ़ में आयोजित 53 जनसंगठनों के सम्मेलन में गठित ‘झारखण्ड समन्वय समिति’ का सर्वमान्य संयोजक बनाया.
1982 में दिल्ली में इंडियन पीपुल्स फ्रंट के स्थापना सम्मलेन में झारखंड अलग राज्य का मुद्दा शामिल कराते हुए उसकी राष्ट्रीय परिषद् के भी सदस्य बने. राष्ट्रीय सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मंडल का सदस्य और उसकी राज्य इकाई का लगातार अध्यक्ष रहे. श्रद्धेय ईश्वरी प्रसाद व अन्य साथियों के साथ मिलकर छोटानागपुर सांस्कृति संघ गठन कर पत्रिका प्रकाशन के अलावा अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य किये.
जन मुद्दों को लेकर सक्रिय रहने वालीं सभी शक्तियों से सदैव सहयोगात्मक रिश्ता कायम रहा. सबसे बढ़कर इतनी व्यस्तताओं के बीच उन्होंने अपने रचनाकर्म को कभी बाधित नहीं होने देना दर्शाता है की रचना और आंदोलन के मोर्चे पर कभी कोई समझौता किया. डाॅ केसरी जी का जाना नि:संदेह हम सब के लिए एक बड़े आघात से काम नहीं है।
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