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आज़ादी का जश्न और लम्हा-लम्हा तड़पते लोग

निदा नवाज़ लेखक और पत्रकार, श्रीनगर से बीबीसी हिंदी के लिए बाहर अभी गहरा अँधेरा है, सूरज अभी बर्फ़ीले पहाड़ों की ओट में कहीं छुपा हुआ है. दूर, मेरी कश्मीर घाटी के उस पार मेरा ही देश कहलाया जाने वाला मेरा भारत, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता दिवस मना रहा है. देश भर में तिरंगा लहराया जा […]

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आज़ादी का जश्न और लम्हा-लम्हा तड़पते लोग 4

बाहर अभी गहरा अँधेरा है, सूरज अभी बर्फ़ीले पहाड़ों की ओट में कहीं छुपा हुआ है. दूर, मेरी कश्मीर घाटी के उस पार मेरा ही देश कहलाया जाने वाला मेरा भारत, स्वाधीनता और स्वतन्त्रता दिवस मना रहा है.

देश भर में तिरंगा लहराया जा रहा है. रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है, मिठाइयां बांटी जा रही हैं और मैं कर्फ़्यू, हड़तालों, प्रदर्शनों और पत्थरबाज़ी के इस गहरे अँधेरे में सोच रहा हूँ, “स्वाधीनता और स्वतन्त्रता. हमारी आज़ादी, हमारा अपना देश, अपना संविधान, अपने अधिकार और अपना राज.”

लेकिन सोच रहा हूँ कि अब लगभग 70 वर्ष हुए और क्या हम सच में आज़ाद हुए हैं? धार्मिक कट्टरवाद से, ग़ुरबत से, अन्धविश्वास से, साम्प्रदायिकता से, जातिवाद से और क्षेत्रवाद से.

आज मेरे स्वतन्त्र देश का ताज कहलाए जाने वाले मेरे इस क्षेत्र में, इस अटूट अंग कहलाए जाने वाले क्षेत्र में पिछले 38 दिनों से आम लोग कर्फ़्यू की सज़ा काट रहे हैं.

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आम लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके हैं. हज़ारों बीमार कर्फ़्यू के कारण अपने ही घरों में तड़प रहे हैं. लाखों स्कूली बच्चों का भविष्य कर्फ़्यू और हड़तालों की नज़र हो रहा है. यह केवल दिनों और महीनों की बात नहीं है.

पिछले लगभग 28 वर्षों से कश्मीर घाटी के आम आदमी का जीवन, उसके सपने, उसका भविष्य, उसका आत्मसम्मान यहां तक कि उसकी सांसें तक जिहादियों और सुरक्षाबलों के बीच फंस चुकी हैं.

आए दिन के प्रदर्शनों, ऐहतिजाजों, कर्फ़्यू, पाबन्दियों और आकाश को दहला देने वाले नारों ने घरती के इस क्षेत्र को, कभी ऋषियों और मुनियों के रहे मसकन को, कभी विद्यापीठ कहे जाने वाले इलाके को, कभी विश्व भर के लिए प्रेरणादायक रही शांति, सौहार्द और भाईचारे की जगह को युद्ध क्षेत्र बना दिया है.

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यह कश्मीर घाटी पूरे उपमहाद्वीप की राजनीति के गले में अटकी हड्डी साबित हो रही है. देश के स्वतंत्रता दिवस समारोह को समक्ष रखते हुए पिछले चंद दिनों से कश्मीर घाटी में फ़ौजियों की गश्त बढ़ा दी गई है.

पिछले 38 दिनों से कर्फ़्यू तो है ही लेकिन अब आम लोगों के घूमने फिरने पर ही नहीं उनकी सांसों पर भी पहरे बिठाए गए हैं. हर चौक और हर नुक्कड़ को रेज़र वायर से बन्द किया गया है.

कल रात अपने एक बीमार पड़ोसी अहद सरपंज के घर जाने का अवसर मिला. अहद सरपंज के दोनों गुर्दे काम करना छोड़ चुके हैं. कुछ महीनों से डायलिसिस पर हैं.

हफ़्ते में दो दिन श्रीनगर के मेडिकल इंस्टिट्यूट जाना पड़ता था. अब पिछले कुछ समय से सख्त कर्फ़्यू की वजह से वह बिस्तर पर तड़प रहा है. सोचता हूँ मेरी इस कश्मीर घाटी में अहद सरपंज जैसे ही हज़ारों गुर्दों के बीमार, अस्पतालों से दूर, डायलेटरों से दूर अपने बन्द कमरों में लम्हा लम्हा तड़प रहे होंगे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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