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मैं तो आम आदमी हूं, मुझ पर क्यों कर्फ्यू

निदा नवाज़ बीबीसी हिंदी के लिए सूरज आज भी मेरी खिड़की से झांक रहा है. लेकिन आज मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं, कोई यारी नहीं. पिछले कुछ दिनों से मुझे लग रहा है जैसे यह मुझे चिढ़ाने की कोशिश कर रहा है. यह दिन भर मेरी कश्मीर घाटी का चक्कर लगा कर आता है और […]

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सूरज आज भी मेरी खिड़की से झांक रहा है. लेकिन आज मुझे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं, कोई यारी नहीं.

पिछले कुछ दिनों से मुझे लग रहा है जैसे यह मुझे चिढ़ाने की कोशिश कर रहा है.

यह दिन भर मेरी कश्मीर घाटी का चक्कर लगा कर आता है और मैं, जी हाँ, मैं अपने इस कमरे में पिछले लगभग एक महीने से क़ैद हूँ.

अक्सर सोचता हूँ कि मुझे किस अपराध में यह कर्फ़्यू नाम की क़ैद की सज़ा दी गई. मैं तो एक आम कश्मीरी हूँ.

मैं ना फ़ौजी हूँ और न ही जिहादी. मैंने न कभी कोई प्रदर्शन ही किया है और न ही कोई पत्थरबाज़ी.

फिर भी मेरा फ़ोन एक महीने से क्यों बन्द किया गया है, मेरा इंटरनेट क्यों बन्द किया गया है.

मेरा केबल नेटवर्क क्यों नहीं चल रहा है और यह सूरज, इसको तो कोई कर्फ़्यू की पाबंदी नहीं.

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इसपर कोई पत्थर भी नहीं फेंक सकता और न ही कोई गोली पेलेट गन से मार सकता है.

मैं तो कर्फ़्यू की वजह से अपने ही आंगन में आकर इसको अपनी भरपूर निगाहों से भी नहीं देख सकता.

हर एक कश्मीरी की ही तरह दिन का आरम्भ दूध वाली नमकीन चाय से करता रहा हूँ.

पिछले लगभग एक महीने से बाज़ार बन्द हैं, दूध कहाँ से मिलेगा.

नमकीन चाय का काला काढ़ा पी-पीकर अब दिमाग़ ख़राब हो गया है.

पिछले महीने की 12 तारीख़ से छोटे बेटे नीरज की यूनिवर्सिटी परीक्षाएं आरम्भ होने जा रही थीं.

कितने चाव से प्रतीक्षा कर रहा था और कह रहा था कि डेडी इस साल मैंने पूरी तैयारी की है.

हालात भी ठीक रहे हैं, अबकी बार अच्छे मार्क्स आएंगे.

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और फिर अचानक जैसे कश्मीर के बाज़ारों, स्कूल जाते नन्हें बच्चों और मुस्कुराते चेहरों की रौनक़ को किसी की नज़र लग गई.

एक बार फिर प्रदर्शन, पत्थरबाज़ी, कर्फ़्यू और मारधाड़ का अशुभ महूरत आरम्भ हुआ.

अब कुछ नहीं मालूम बेटे की परीक्षाएं होंगी भी या नहीं. उसको श्राप सा लग गया है.

अपने कमरे में अकेला बैठा रहता है, गुमसुम. किसी से बात तक नहीं करता.

मैं कुछ कहता हूँ तो गुस्सा करता है, सरकार को बुरा भला कहता है, जिहादियों को बुरा भला कहता है.

और गुस्से से कहता है डेडी मेरे एग्ज़ाम का क्या होगा.

कहीं अबकी बार भी एक साल का सेमिस्टर डेढ़ साल का न हो जाए, फिर रोना शरू करता है.

मेरा बेटा जो फुर से मोटर बाइक निकाल कर पूरा शहर घूम आता था, दोस्तों के साथ हंसता-खेलता था, कर्फ़्यू की वजह से अब उसकी हालत देखी नहीं जाती.

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घर में तंग आकर कभी-कभी सड़क तक निकलने की ज़िद भी करता है.

मगर हम मियां-बीवी दिन भर अपने बच्चों की पहरेदारी करते हैं.

क्या भरोसा सड़क पर निकल कर पत्थरबाजों के पत्थर का निशाना बन जाए या फिर फ़ौजियों के छर्रों या गोलियों का निशाना.

बीवी भी परेशान है सब्ज़ी के नाम पर भेड़-बकरियों की तरह एक महीने से खाली साग खाते आ रहे हैं जो किचनगार्डन में लगाया था.

घर पर रखा आटा और चावल अब लगभग ख़त्म हो चुका है, सोचता हूँ कर्फ़्यू इसी तरह चलता रहा तो क्या करूँगा, बच्चों को क्या खिलाऊंगा.

पूरा परिवार डिप्रेशन का शिकार हो चुका है. या अल्लाह मेरी इस कश्मीर घाटी में शान्ति के दिन कब फिर से लौटकर आएंगे.

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