मणिपुर में जब किसी से दिन में पहली बार मिलते हैं तो यह नहीं पूछते कि आप कैसे हैं?
पहला सवाल होता है- चाक चारबरा?
यानी आपने खाना तो खाया है? और, दूसरा सवाल होता है- आपने क्या व्यंजन खाया.
जब मैं जब इरोम से अस्पताल में मिलती थी तो वो मुझसे यही सवाल पूछती थी. तब मुझे बहुत ही अजीब लगता था. क्योंकि, बदले में मैं उनसे ये नहीं पूछ सकती थी कि आपने खाना तो खाया है न ?"
इरोम शर्मिला से अपनी मुलाक़ातों को स्थानीय पत्रकार चित्रा अहेनथंम कुछ इन्हीं शब्दों में याद करती हैं.
वे कहती हैं, "मैं अस्पताल में मिलते वक़्त हमेशा सोचती थी कि कब ऐसा होगा कि मैं भी इचे ( मणिपुरी में दीदी को इचे कहते हैं ) से ये पूछ पाऊँगी कि आपने क्या खाया."
मणिपुर की राजधानी इंफाल के लगभग बीचों-बीच बना यही अस्पताल एक दशक से भी ज़्यादा समय से इरोम शर्मिला का घर है. उनका असली घर यहाँ से करीब एक किलोमीटर दूरी है, जहाँ उनकी माँ, भाई और रिश्तेदार रहते हैं.
लेकिन 16 साल से भूख हड़ताल कर रहीं इरोम शर्मिला ने इतने सालों में कभी भी इस एक किलोमीटर की दूरी को पाटने की कोशिश नहीं की.
इस अस्पताल के सामने खड़े होकर ऐसा लगा मानो गुलज़ार के ये बोल इरोम के लिए ही बने हों, ‘छोड़ आए हम वो गलियाँ.’
हर 15 दिन पर इरोम शर्मिला को इंफाल के जवाहर लाल नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज से कोर्ट ले जाया जाता है. उनकी गाड़ी उनके घर के रास्ते से होकर गुज़रती है. इरोम की माँ और परिवार के लिए भी घर आने-जाने का रास्ता इसी अस्पताल के सामने से है.
पर इरोम कभी घर नहीं गईं. कुछ ऐसी ही है इरोम शर्मिला की कहानी.
16 साल से अस्पताल की चारदिवारी ही उनकी दुनिया रही है. इन सालों में उनकी जीभ ने किसी खाने-पीने की चीज़ का स्वाद नहीं चखा है. यहाँ तक कि वो ब्रश भी करती हैं तो रुई के साथ और बिना पानी के ताकि गलती से भी जल उनके होठों को न छू पाए.
ख़ुद को 16 साल से आईने में नहीं देखा. लेकिन उनकी ज़िंदगी हमेशा ऐसी नहीं थी.
मणिपुर के एक साधारण से परिवार की साधारण सी लड़की थी इरोम. स्कूली पढ़ाई-लिखाई में ज़्यादा मन नहीं लगता था, 12वीं पास नहीं कर पाईं. उन्हें कविता लिखना पसंद था और कभी-कभी अख़बार में लेख लिख लेती थीं. इसी बीच मानवाधिकर संगठन से वो जुड़ गईं. जीवन यूँ ही चल रहा था.
मानवाधिकार कार्यकर्ता बबलू लोइटोंगबम इरोम को भूख हड़ताल से पहले के दिनों से जानते हैं. अकसर इरोम युवा वोलंयटिर के रूप में अलग-अलग मानवाधिकार संगठनों की बैठकों में आती थीं और चुपचाप बैठी रहती थीं.
बबलू बताते हैं, "एक पत्रकार ने एक दिन मुझसे पूछा कि क्या ये लड़की कोई बाहरी एजेंट-वेजेंट तो नहीं है, ये हर मीटिंग में मौजूद होती है."
फिर 2 नवंबर 2000 में वो घटना हुई जिसने इरोम की ज़िदंगी हमेशा के लिए बदल दी.
पूर्वोत्तर राज्यों में पत्रकारिता करते रहे किश्लय भट्टाचार्य याद करते हैं, "मणिपुर में अफ़्सपा पहले सी ही लागू है. इस दौरान सन 2000 में इंफाल के पास मालोम गाँव में सैनिकों की गोलीबारी में 10 नागरिक मारे गए थे. उनमें से कोई भी इरोम का दोस्त या रिश्तेदार नहीं था.”
लेकिन इरोम ने मन ही मन एक फ़ैसला किया. किसी को कुछ नहीं बताया. बस माँ के पास गईं और कहा माँ मुझे आर्शिवाद दो मैं किसी अहम काम के लिए जा रही हूँ. वो भूख हड़ताल पर बैठ गई."
भट्टाचार्य कहते हैं, "तब उस समय मालोम गाँव के लोग भी नहीं चाहते थे कि इरोम वहाँ भूख हड़ताल करें. उन्हें डर था कि इस वजह से उनके लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. बाद में परिवार को पता चला कि इरोम ने अफ़्सपा न हटाने तक भूख हड़ताल करने का फ़ैसला लिया है. वो 28 साल की थीं. तब न वहाँ न ख़ास मीडिया था, न जनसमर्थन. तीन-चार साल बाद लोगों ने इरोम की बात करनी शुरू की."
भूख हड़ताल लंबी खिचने की बाद इरोम पर आत्महत्या करने का आरोप लगा और उन्हें हिरासत में ले लिया गया. 16 सालों से उनकी ज़िंदगी का एक बंधा-बंधाया रूटीन रहा है.
हर 15 दिन बाद अस्पताल के वार्ड से कोर्ट का चक्कर, जज का वही सवाल कि क्या आप व्रत तोड़ेगीं, इरोम का सधा-सधाया जवाब, नहीं.
साल में एक बार उन्हें रिहा किया जाता है और फिर गिरफ़्तार कर लिया जाता है.
इस दौरान बहुत कम लोगों को उनसे मिलने दिया जाता रहा है.
इरोम की ज़िंदगी पर किताब लिखने वाली दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा कई बार इरोम से मिली हैं.
वो बताती हैं, "मैं एक बार इंफाल उनसे मिलने गई. उन्होंने मुझसे कहा कि क्या आपने मणिपुर की भाजी खाई है, एक दिन मैं आपको बनाकर खिलाऊँगी, मुझे पकाना अच्छा लगता है, मुझे लगा कि एक व्यक्ति जिसने सालों से कुछ चखा तक नहीं वो स्वाद की बातें कर रही हैं."
पत्रकार चित्रा इरोम के व्यक्तित्व को यूँ बयां करती हैं, नरम दिल लेकिन पक्के इरादे वाली महिला. हाँ थोड़ी ज़िद्दी हैं कभी-कभी.
वहीं किश्लय भट्टाचार्य कहते हैं कि वे जब भी इरोम से मिले वो एक बात हमेशा कहती थीं, मैं लोगों की नज़रों में देवी या संत नहीं बनना चाहती. मैं आम ज़िंदगी जीना चाहती हूँ, खाना चाहती हूँ, प्यार करना चाहती हूँ.
इन 16 सालों से वो लगभग दुनिया से, लोगों से एक स्तर पर कटी रहीं, वहीं उनकी ज़िंदगी में किसी ने प्यार की दस्तक भी दी.
जिस तरह एक दिन अचानक इरोम शर्मिला ने सब छोड़-छाड़ भूख हड़ताल पर जाने का फ़ैसला किया था, उसी तरह पिछले महीने इरोम ने सबको हैरान कर दिया जब उन्होंने कोर्ट के बाहर बताया कि वो भूख हड़ताल ख़त्म कर राजनीति में जाने वाली हैं और शादी भी करेंगी.
मणिपुर में बहुत से लोग इरोम के फ़ैसलों का विरोध भी कर रहे हैं.
भूख हड़ताल तोड़ने का फ़ैसला ही क्यों, ऐसे कई सवाल होंगे जो इरोम के मन में भी होंगे
सुना है उन्हें कविता लिखने का ख़ूब शौक है. बीते 16 सालों में उन्होंने बहुत सारी कल्पनाएँ, भावनाएँ अपनी इन कविताओं में उतारी हैं.
इंफाल में शाम को जब मैं अस्पताल में इरोम के कमरे से कुछ दूरी पर खड़ी तो देर तक सोचती रही कि 16 सालों की उनकी इन्हीं कविताओं में शायद उनकी ज़िंदगी से जुड़े सवालों के कई जवाब भी होंगे…और 16 सालों की अनकही, अनसुनी बातें भी.
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