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भाजपा और दलितों की कुंडली मिलती क्यों नहीं?

बद्री नारायण समाजशास्त्री, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए आरएसएस और भाजपा मूल रूप से ब्राह्मणवादी संस्कृति में रचे बसे हैं. ओबीसी जातियों के बाद संघ और भाजपा ने चाहा और दलितों को ख़ुद से जोड़ने की हर संभव कोशिश की. भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा और अगले आम चुनावों के लिए दलित वोट बेहद […]

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आरएसएस और भाजपा मूल रूप से ब्राह्मणवादी संस्कृति में रचे बसे हैं. ओबीसी जातियों के बाद संघ और भाजपा ने चाहा और दलितों को ख़ुद से जोड़ने की हर संभव कोशिश की.

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा और अगले आम चुनावों के लिए दलित वोट बेहद ज़रूरी है. आख़िर ये देश की आबादी का 16.6 फीसद हैं.

लेकिन बड़े प्रयासों के बाद संघ के बनाए भाजपा में कल्याण सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह से लेकर बीएस येदियुरप्पा तक खूब ओबीसी नेता हैं.

नरेंद्र मोदी कभी ख़ुद को दलित बताते हैं, कभी महादलित. लेकिन वो हिंदुत्व और वह भी ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के खांटी चेहरे हैं.

लेकिन दलित, संघ और भाजपा से जुड़ नहीं रहा… आख़िर क्यों?

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संघ और भाजपा सवर्ण ब्राह्मणवादी संस्कृति से प्रभावित रहे हैं. लंबे समय तक इसका आधार ऊॅंची जातियाँ और शहरी व्यापारी रहे हैं, जो मूल रूप से ब्राह्मणवादी संस्कृति के झंडाबरदार रहे हैं.

राजनीति के दबाव में संघ परिवार और भाजपा, पिछड़ी और दलित जातियों से जुड़ने को मजबूर हुई है. एक सवाल यह भी है कि भाजपा इतनी सवर्णवादी है तो पिछड़ों को इससे जुड़ने में दिक़्क़त क्यों नहीं हुई?

पिछड़ी जातियों ने अपने सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचें में ब्राह्मणवादी संस्कृति को आत्मसात कर लिया है, इसलिए उनसे भाजपा को जुड़ने में कोई परेशानी नहीं हो रही है. वो ख़ुद को क्षत्रिय की तरह देखते हैं और वेदों से निकले देवी-देवताओं और पंडितों को पूजते हैं.

वो केवल अपने से नीची जातियों और मुसलमानों से भिड़ते हैं, ऊपर वालों से नहीं. इसलिए ओबीसी का ब्राह्मणवाद संघ को अपनी हिन्दुत्व की राजनीति के लिए ठीक लगता है. लेकिन दलित समूहों के जीने की अपनी ज़रूरतें और तौर-तरीक़े ब्राह्मणवाद के घोर विपरीत हैं.

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दलितों में गाय-भैंस-सूअर खाने जैसी ज़रूरतें और आदतें हैं. वो वेदों के बाहर के देवताओं की पूजा करते हैं, जो शराब और मुर्गी का भोग लगाते हैं. ये बातें ब्राह्मणवादी ढाँचे को कई बार नकारती हैं और संघ की संस्कृति के लिए समस्या पैदा करती हैं.

दूसरी वजह यह भी है कि दलित, अंबेडकर और कांशीराम की जगाई चेतना की वजह से सीधे ब्राह्मण, ठाकुरों और वैश्यों पर हमला करते हैं. इससे संघ, जिसमें आज तक केवल एक ग़ैर ब्राह्मण सरसंघचालक हुआ है, असहज हो उठता है. जो एक मात्र गैर ब्राम्ह्मण सरसंघचालक हुआ वो भी ठाकुर थे.

जब-जब ‘जय श्री राम’ का नारा लगाया जाता है, कोई न कोई दलित चिंतक शंबूक की कहानी लेकर बैठ जाता है. वही शूद्र शंबूक, जो था तो ऋषि लेकिन उसे अपनी जान राम के आदेश पर गंवाना पड़ी थी, क्योंकि वह जाति से शूद्र था.

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चुनावों को देखते हुए दलितों को जोड़ने के लिए भाजपा तरह-तरह के प्रयास कर रही है. लेकिन लगता है कि दलितों को जोड़ना भाजपा के लिए मुट्ठी में रेत बांधने जैसा हो गया है.

भाजपा और संघ परिवार ने दलितों को ख़ुद से जोड़ने के लिए अंबेडकर के प्रतीकों को अपनी राजनीति से जोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए.

मोदी सरकार ने बाबा साहेब अंबेडकर के लंदन वाले घर को ख़रीदकर उसे मेमोरियल बनाया.

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागौर में हुई प्रतिनिधि सभा में मंच के बीच में अंबेडकर की तस्वीर रखी और आयोजन मंडप का नाम बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर रखा.

वहीं संघ परिवार और भाजपा 90 के दशक से ही दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान चला रही है, हाल के दिनों में उसे तेज़ भी किया है और इसमें अनेक बदलाव भी किए गए हैं.

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सामाजिक समरसता अभियान दलित बस्तियों में जाकर उनके साथ भोजन करना भर ही नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान की पवित्र नदियों और तीर्थस्थलों पर दलितों के साथ नदी में स्नान और दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाना शुरू किया गया है.

साथ ही ‘समरसता अभियान’ के साथ एक नया कार्यक्रम ‘विचार कुंभ’ भी जोड़ा गया है. इसके तहत समरसता आयोजन के अवसर पर गांव-गांव में दलितों और प्रतिष्ठित हिदूंवादी लोगों के बीच जनसंवाद आयोजित किया जाता है. इन संवादों में आम दलितों से हिन्दुत्व की दिशा में अग्रसर होने की अपील की जाती है.

इसके अलावा पिछले तीन महीने से उत्तर प्रदेश के विभिन्न इलाक़ों की दलित बस्तियों, झुग्गियों और नगरों में ‘धम्मयात्रा’ का आयोजन भी संघ परिवार के ऐसे ही प्रयासों का हिस्सा है.

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इन सारे अभियानों का एक ही लक्ष्य है, हिन्दुत्व की राजनीति यानि संघ परिवार और भाजपा से दलितों को जोड़ना.

एक तरफ भाजपा इसके लिए बड़े प्रयास कर रही है, दूसरी तरफ ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं, जिनके कारण दलितों के मन में भाजपा को लेकर अविश्वास, भय और गुस्सा बढ़ता जा रहा है.

रोहित वेमुला की आत्महत्या हो, गुजरात में मरी गाय की छाल छील रहे दलितों की पिटाई हो या यूपी भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह का मायावती पर दिया गया बयान हो. सब दलितों और भाजपा के बीच की खाई को बढ़ाते जा रहे हैं.

इसे संयोग कहें या भाजपा और संघ परिवार के अपने वर्ग चरित्र का अन्तर्विरोध. लगातार अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो संघ के दलित अभियानों को निरर्थक बनाती जा रही हैं.

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उत्तर प्रदेश में अमित शाह के देखरेख के भाजपा की जो नई टीम बनी है, उसके एक महत्वपूर्ण उपाध्यक्ष श्री दया शंकर सिंह का मायावती पर दिए गए बयान ने आम दलितों को ख़ासा नाराज़ किया है. इसने मायावती की प्रति उनकी सहानुभूति बढ़ाई है.

हालांकि भाजपा ने दयाशंकर सिंह पर कड़ी कार्रवाई की है, लेकिन मायावती ख़ुद इस घटना को एक बड़े राजनीतिक अभियान में बदल देना चाहती हैं. वो इसे बिहार चुनाव के वक़्त संघ प्रमुख मोहन भागवत के ‘आरक्षण की समीक्षा’ वाले बयान जैसा बनाना चाहती हैं. वो इस बयान से लालू यादव और नीतीश कुमार ने जिस तरह राजनीतिक लाभ उठाया था, वैसा ही लाभ उठाना चाहती हैं.

मायावती इसे अपने उपर किए गए व्यक्तिगत टिप्पणी के साथ-साथ ‘दलित गरिमा’ और ‘दलित अस्मिता’ के ऊपर हमले का सवाल बना देना चाहती हैं.

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अगर भाजपा के रणनीतिकारों के न चाहने के बाबज़ूद ऐसी घटनाएं हो रही हैं, तो इससे लगता है कि यह भाजपा के मूल ढांचे का अन्तर्विरोध है. जहां एक तरफ उसमें दलित जनमत को जोड़ने की चाह है, वहीं कहीं न कहीं दलितों के प्रति भाजपा में निहित ब्राह्मणवादी और जातिवादी मानसिकता भी उजागर हो रही है.

अभी उत्तर प्रदेश चुनाव में 6-8 महीने बाक़ी हैं. देखना है तब तक भाजपा को लेकर दलितों की नाराज़गी बसपा और दूसरे भाजपा विरोधियों को कितना लाभ पहुँचा पाती है. इनसे भाजपा के दलित जोड़ो अभियान को कितना नुक़सान होता है.

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