मेरा नाम कनुभाई है. मैं पास में ही मृत गाय का चमड़ा निकालने का काम करता हूं.
मैं 20 सालों से ये काम कर रहा हूं.
मेरे दादा परदादा भी यही काम करते थे. इसलिए ये कहना सही होगा कि ये काम मुझे विरासत में मिला.
हम पढ़े लिखे नहीं हैं. मैंने इस काम की शुरुआत 15-20 साल पहले अपने पिताजी के साथ की थी.
पहले इस काम में मेरा मन नहीं लगता था. शव से बहुत दुर्गंध आती थी.
इस काम का सारा तरीका मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था. लेकिन क्या करें. मेरे पास कोई चारा नहीं था.
जब मैं दूसरी कक्षा में था तभी पिताजी ने कहा कि ये हमारा पारंपरिक काम है और तुम्हें वही करना चाहिए. इस कारण मैं पढ़ाई भी नहीं कर पाया.
मेरे मन में ये सोच भी बैठी थी कि अगर मैं कोई दूसरा काम करना भी चाहूं तो क्या ‘दलित’ होने के कारण समाज मुझे कोई और काम करने देगा.
गुजरात में बड़ी संख्या में दलित समाज के लोग इस काम में जु़ड़े हैं.
मेरे दिन की शुरुआत गाय की मौत की जानकारी से शुरू होती है.
कभी दो तो कभी तीन लोग बताने आते हैं कि उनकी गाय की मौत हो गई है.वो मुझसे कहते हैं कि मैं यह शव वहां से उठाकर लेकर जाऊं.
फिर मैं शाम को गाय की खाल उतारने जाता हूं. अब मैंं इस काम का आदी हो चुका हूं.
मैं खाल घर पर लेकर आ जाता हूं क्योंकि गाय के बाकी अंग मेरे काम के नहीं होते हैं. सिर्फ़ चमड़ा मेरे काम का होता है.
मैं दिन के 200 से 400 रुपए कमा लेता हूं. महीने के करीब 5000 रुपए तक हो जाते हैं.
मेरे परिवार में सात लोग हैं. मेरे चार बच्चे हैं – तीन लड़कियां, एक लड़का. हमारे पास इसके अलावा कोई काम नहीं है.
मेरी दोनों लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. एक नौवीं में है. एक दसवीं में. लड़के ने बारहवीं पास कर ली है.
मैं नहीं चाहूंगा कि मेरा बेटा इस काम में आए.
वो भी इस काम को लेकर कोई खास उत्साहित नहीं हैं.
जिस तरह चार लड़कों को पीटा गया है, इससे हम इतना डर गए हैं कि अब हम इस काम को नहीं करेंगे.
हम भी गाय को माता ही बोलते हैं.
घर वाले कहते हैं कि इस काम को अब मत करो और मज़दूरी करो.
इस घटना से घर के लोगों में डर बैठ गया है.
रोज़गार के लिए हम कहीं भी जा सकते हैं – गांव छोड़ सकते हैं, मुंबई, दिल्ली कहीं भी जा सकते हैं.
लेकिन इन सबके बावजदू मैंने कभी भी अपना धर्म बदलने की बात नहीं सोची.
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