आप लोगों ने मोहम्मद शाहिद के लिए प्रार्थना नहीं की, वह भी चला गया.
अलीगढ़ में था और ज़फ़र इक़बाल की बात होती, तो बात आगे बढ़कर शाहिद तक चली जाती, और घास के मैदान से प्लास्टिक टर्फ़ के मैदान पर शाहिद के चकमा देने के अद्भुत करतब लोगों की ज़बान पर चढ़ने लगते.
पाकिस्तान के हसन सरदार की बात होती तो वह कहते कि पाकिस्तान भारत से नहीं शाहिद से हार जाता है.
धनराज पिल्लई तो उन्हें हॉकी का भगवान कह चुके हैं.
रेडियो पर हॉकी मैच की कॉमेंट्री आप सबको शायद याद आ जाए जब शाहिद के पास गेंद हो और कॉमेंटेटर का जोश, तो सुनने वाला यही समझता था कि अब यह गेंद गोल पोस्ट में ही जा कर रुकेगी.
कम ऑडियो वाले रेडियो भी चीख़ने लगते और कम बोलने वाले कॉमेंटेटर भी जोश से भर जाते थे. हॉकी का यह जादूगर किसी भी खिलाड़ी को मैदान में चकमा दे सकता था.
हम लोगों की बड़ी इच्छा होती थी कि एक बार, केवल एक बार शाहिद को देख लें.
‘बेंड इट लाइक बेकहम’ में हमें इसलिए अधिक रुचि नहीं रही कि हम भारतीय हमारे ही लोगों को वह सम्मान नहीं दे सके जिसे दुनिया ने आंखों पर बिठाया, हमारे लिए ‘बेंड इट लाइक शाहिद’ ही मिसाल थे.
स्पोर्ट्स पत्रिका और अख़बारों में इनकी तस्वीरें कुछ पल के लिए ही रहतीं, फिर वह हमारे छात्रावास की दीवारों पर सज जातीं.
घुंघराले बालों वाले छरहरे बदन के शाहिद को समय ने गंजा बना दिया, उन्हें कमजोर कर दिया और उन्हें इतनी बीमारियों ने इस तरह घेर लिया कि जैसे विपक्षी डी एरिया में वह अपनी स्टिक लेकर आ चुके हैं और रक्षा खिलाड़ी इसे फ़ॉलो करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं.
दिल्ली के मेदांता अस्पताल में शाहिद मौत के गोलपोस्ट में गेंद डालने से चूक गए. मैदान से मेदांता तक का सफ़र उनके मज़बूत होने की दलील है. आप लोगों ने उनके लिए दुआ नहीं की और वह जीवन के संघर्ष में स्वर्ण पदक से चूक गए, भारत के कुछ खिलाड़ी उनसे दुआ लेकर ब्राज़ील ज़रूर गए हैं.
वो यह नहीं कह सके कि आओ साथी.. बैठो, तुम्हें बनारस का पान और जलेबियां खिलाता हूं. शाहिद के लिए हर व्यक्ति पार्टनर होता था. वह इसी नाम से संबोधित करते थे…
एक चैरिटी मैच के दौरान अचानक एक व्यक्ति घेरा तोड़ कर टर्फ़ की ओर जाना चाहता है और लोग उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं.
इसके साथ छोटा सा बच्चा था, ‘प्लीज़, मुझे अंदर जाने दीजिए … मैं हिमाचल से कल रात की ट्रेन पकड़ कर आया हूँ … आज ही पहुंचा हूँ … मैं अपने बच्चे को दिखाना चाहता हूं कि मोहम्मद शाहिद कौन हैं, कैसे दिखते हैं.’
इन साहब ने शाहिद को अपने बच्चे से मिलवाया. शाहिद ने सिर पर हाथ रखा और गर्मजोशी से कहा, ‘यही प्यार तो हमें जीवित रखता है…’
शाहिद साहब के पहले कुछ शब्द होते थे, "साथी, नहा धो लो … कुछ नाश्ता कर लो … फिर काशी विश्वनाथ के दर्शन करवाता हूं."
जो धार्मिक भाईचारा आमतौर पर भाषणों का हिस्सा होता है, वह शाहिद के लिए जीवन जीने का तरीक़ा था.
इस दिन समझ में आया कि शाहिद ने बनारस क्यों नहीं छोड़ा … वह कभी छोड़ ही नहीं सकते थे. अपने शरीर, अपने तन मन में बनारस बसाए ‘बाबा विश्वनाथ की धरती है … पूर्वजों की भूमि है, कैसे छोड़ेंगे’
बनारस प्रेम के लिए उन्होंने बड़ा-बड़ा ऑफर ठुकरा दिया, "कुछ दिन बाहर रहता हूं तो याद आने लगती है बनारस की … अधिक दिन नहीं रह सकता दूसरी जगह."
वो हमेशा हांकी कहते थे, हॉकी नहीं. बताते थे कि हॉकी तो अंग्रेज़ कहते हैं … बनारसियों के लिए तो यह हांकी है, लेकिन हॉकी ने उन्हें तकलीफ़ भी दी.
उनकी बेटी के दिल में छेद था, दिल्ली में इलाज हुआ, लेकिन वह बच नहीं सकी.
ये वह दौर था जब शाहिद खेल रहे थे, वे टूट गए.
खुद को दोषी मानते थे कि हॉकी के कारण वह बच्ची पर इतना ध्यान नहीं दे पाए जितना देना चाहिए था.
टूट वह तब भी गए थे जब अपने अंतिम ओलंपिक मैच में उन्हें पहले हाफ़ में खिलाया ही नहीं गया, वहीं पर उन्होंने खेल छोड़ने का फ़ैसला किया था.
जीवन के ये दो पल ऐसे थे जिन्होंने शाहिद को तोड़ दिया. उनके जीवन ने अनुशासन मानने से जैसे इनकार कर दिया. वह उन्हें उस स्थान पर ले आया कि अपनी गति के लिए जाना जाने वाला खिलाड़ी आज मौत से नहीं भाग सका.
जिसे हवाई यात्रा से डर लगता था, उसी एयर एंबुलेंस से वाराणसी से दिल्ली लाया गया. जिसे जिगर से लेकर किडनी तक समस्याएं ही समस्याएं थीं, उन्हें आज चार आदमी कब्रिस्तान ले जा रहे हैं.
हम शाहिद को इसलिए नहीं याद रहे कि उन्होंने 20 साल की उम्र में ओलंपिक स्वर्ण जीता था, चैंपियंस ट्रॉफी और एशियाड पदक जीते, अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री पाए.
इसलिए नहीं कि उसके बाद उनके हिस्से मैदान और मैदान के बाहर उनके अलावा और भी उपलब्धियां आईं.
बल्कि हम उस जादूगर को याद कर रहे हैं जिसने पूरी पीढ़ी पर जादू किया. जब हॉकी में ड्रिब्लिंग की बात होती है तो शाहिद याद आते हैं.
जब गति, चकमा, खेल में जादूगरी की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं.
जब ज़िंदादिली की बात होती है, तो शाहिद याद आते हैं, जब बनारस की बात होती है तो शाहिद याद आते हैं.
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