ये वो काम है जहाँ किसी भी चीज़ से ज़्यादा वफ़ादारी की ज़रूरत होती है. इसकी वजह भी सीधी सी है कि जो भी बनाने का प्रयास किया जाता है वो बनने में लंबा समय लेती है.
यहाँ बात हो रही है उस उत्पाद की जो विदेशों में रह रहे लोगों के लिए भी तैयार किया जा रहा है और कम से कम इस चीज़ को बनाने में भारत को महारत तो नहीं ही रही है. यानी सिंगल माल्ट व्हिस्की.
सुरिंदर कुमार थट्टू ने लगातार तीन दशक तक इस क्षेत्र में काम शुरू किया और कुछ ही वर्षों बाद ब्रिटेन और यूरोप में इसे चाहने वालों की क़तार खड़ी कर दी.
पहली कड़ी: इन्हें कॉफ़ी पीने के मिलते हैं पैसेअमरुत डिस्टलरीज़ के उपाध्यक्ष थट्टू ने बीबीसी हिंदी को बताया, "ये नज़रिये, अनुशासन और इससे संबंधित जानकारियों से संभव हुआ, जो कि इसके लिए आवश्यक है. तैयारियों में ही कम से कम तीन साल लग जाते हैं, तब जाकर कहीं आप इसे चख पाते हो."
और, अगर तीन साल में चीज़ वैसी नहीं बनी, जैसी कि उम्मीद थी तो फिर से वही सब दोहराना होता है, जो पहले किया गया था. यानी उत्पाद को हर उस पैमाने पर खरा उतरना होता है जो उसके लिए तय किए गए हैं.
मैसूर स्थित केंद्रीय खाद्य तकनीकी अनुसंधान संस्थान (सीएफ़टीआरआई) से पढ़ाई पूरी करने के बाद थट्टू ने इस क्षेत्र में हाथ आज़माने की सोची थी.
सुरिंदर थट्टू जम्मू-कश्मीर में कृषि विभाग में राजपत्रित अधिकारी की नौकरी छोड़कर मैसूर आए थे. उनका मानना है कि शायद क़िस्मत में यही सब रहा होगा तभी तो कैंपस में तीन नौकरियों और इसराइल में बायोटेक्नोलॉजी कोर्स का विकल्प होने के बावजूद उन्होंने मेरठ स्थित डिस्टलरी में नौकरी को चुना.
थट्टू बताते हैं, "मैंने ये नौकरी क्रिकेटर राहुल द्रविड़ के पिता शरद द्रविड़ की सलाह पर चुनी थी. मैं उनसे अपने एक मित्र के ज़रिये मिला था, जब मैं अपने भाई से मिलने बैंगलुरू आया था. द्रविड़ के पिता ने मुझसे कहा था कि डिस्टलरी अच्छा विकल्प है, लेकिन अगर मुझे किसी तरह की आपत्ति है तो मैं उस जैम बनाने वाली कंपनी में भी नौकरी कर सकता हूं, जिसमें वो जनरल मैनेजर थे."
थट्टू ने कहा, "मेरठ डिस्टलरी में मुझे बेहतरीन बॉस मिला और तब मुझे पता चला कि सीएफटीआरआई पाठ्यक्रम कितना बेहतरीन है. लेकिन इसके बाद, 1987 में पारिवारिक कारणों की वजह से मैं अमरुत डिस्टलरी पहुँचा जो कि 1948 में स्थापित हुई थी. इसके बाद से मैं कंपनी के साथ और कंपनी मेरे साथ आगे बढ़ रही है. इसके साथ मेरा रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे कि ये कंपनी मेरा बच्चा हो."
1991 में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया और उसके बाद भारतीय व्हिस्की उत्पादकों को विदेशी कंपनियों की गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा. वो कहते हैं, "सभी भारतीय व्हिस्कियों में जौ की मात्रा काफी अधिक होती थी. विदेशी ब्रैंडों से मुक़ाबला करने के लिए इस रणनीति में बदलाव करना पड़ा."
थट्टू बताते हैं, "हमने शराब बनाने के लिए लकड़ी के बैरल की बजाय स्टील के कंटेनर्स का इस्तेमाल करना शुरू किया. इन प्रयासों से हमें तब मदद मिली जब हमारे कार्यकारी निदेशक रक्षित जगदाले ने हमें सिंगल मॉल्ट व्हिस्की का बाज़ार तलाशने के लिए हमें ब्रिटेन भेजा. वहाँ लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया. निश्चित तौर पर, हमारे लिए चुनौती ये थी कि हम दुनिया को यक़ीन दिलाएं कि भारत विश्वस्तरीय व्हिस्की बना सकता है."
इसे सुगंधित बनाने के लिए क्या करते हैं, इस सवाल पर थट्टू कहते हैं, "इसके लिए सूंघने की बेहतर क्षमता ज़रूरी है. जब व्हिस्की को लकड़ी के पीपों में रखा जाता है तो कई यौगिक बनते हैं, इन्हें पहचानने की आवश्यकता होती है."
मास्टर ब्लैंडर एक पेंटर की तरह होता है जो किसी चीज़ के बारे में सब कुछ काग़ज पर बताता है. उसी तरह मुझे सिंगल माल्ट की हर प्रक्रिया के बारे में पता होना चाहिए. अनाज से लेकर बोतल तक, सब कुछ बेहद अहम है. वर्ना तीन साल की कोशिशों के बाद आप पाएंगे कि सब कुछ बेकार चला गया है और प्रक्रिया फिर से शुरू करनी होगी.
थट्टू कहते हैं, "अगर आपका उत्पाद बेकार है और आप इसे अच्छे बैरल में रखें तो नतीजा अच्छा नहीं निकलेगा. महीने दर महीने, साल दर साल गुणवत्ता को सुधारने के लिए हर स्तर पर हर प्रक्रिया में प्रयास करने की आवश्यकता है."
इसलिए, आमतौर पर थट्टू दिनभर में 20-30 नमूने चखते हैं.
थट्टू कहते हैं, "मास्टर ब्लैंडर धूम्रपान नहीं कर सकता, किसी भी तरह का तंबाकू का सेवन नहीं कर सकता. परफ्यूम का इस्तेमाल नहीं कर सकता. यानी कुल मिलाकर आपको बेहद अनुशासित रहना होता है."
वो कहते हैं, "मैं पार्टी वगैरह में 30 मिलीलीटर शराब ले लेता हूँ, लेकिन मैं ज़्यादा नहीं पीता."
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)