हाल में अफ़ग़ान-पाकिस्तान सीमा पर सेनाओं के बीच बढ़ता तनाव 100 साल से भी ज़्यादा पुराने क्षेत्रीय विवाद का हिस्सा है.
कुछ अफ़ग़ान आरोप लगाते हैं कि इस क्षेत्रीय विवाद की तरफ़ अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करने के लिए पाकिस्तान ने हाल में इस तनाव को बढ़ावा दिया है.
पिछले कुछ दिनों से दोनों देशों की सेना अफ़ग़ानिस्तान के पूर्वी सीमा पर स्थित तोरख़म चौकी पर एक दूसरे पर गोलीबारी कर रही है.
पाकिस्तान की तरफ़ से इस सीमा पर गेट बनाने को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद दोबारा से शुरू हुआ है.
अब तक दो अफ़ग़ान सैनिक और एक वरिष्ठ पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी की मौत हो चुकी है, जबकि दर्जनों सैनिक हताहत हुए हैं.
पाकिस्तान ने हाल के सालों में अफ़ग़ानिस्तान से लगी 1500 मील लंबी सीमा पर कथित तौर पर घुसपैठ की है और मीलों तक खाई खोदी है.
अफ़ग़ान शरणार्थियों पर देश छोड़कर जाने का दबाव बढ़ाने के साथ-साथ पाकिस्तान ने पिछले हफ़्ते बॉर्डर से आवाजाही पर भी रोक लगा दी.
1893 में अफ़ग़ान राजा और ब्रिटिश शासित भारत के विदेश मंत्री सर मोर्टिमर डूरंड के बीच हुए समझौते के बाद अफ़ग़ानिस्तान का कुछ हिस्सा ब्रिटिश इंडिया को दे दिया गया था.
1947 में पाकिस्तान के जन्म के बाद कुछ अफ़ग़ान शासकों ने डूरंड समझौते की वैधता पर ही सवाल उठाए.
क्षेत्रीय दावों ने दोनों देशों के बीच दुश्मनी के बीज बो दिए थे जिसके बाद से अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान के बीच प्रॉक्सी युद्ध चल रहा है.
पाकिस्तान सार्वजनिक रूप से डूरंड मुद्दे को उठाने से बचता रहा है और दिखाता है कि इस मामले पर समझौता हो चुका है.
लेकिन अफ़ग़ानियों को शक है कि पाकिस्तान, तालिबान विद्रोह को समर्थन दे रहा है जिससे अफ़ग़ानिस्तान पर डूरंड रेखा को स्थाई सीमा मानने के लिए बाध्य कर सके.
अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने कई मौक़ों पर ज़ोर दिया कि पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने कई निजी बातचीत के दौरान प्रस्ताव रखा था कि अफ़ग़ानिस्तान वर्तमान सीमा को मान्यता देता है तो शांति बहाल हो सकती है.
करज़ई दावा करते हैं कि उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था.
छह दशकों पहले पाकिस्तान के जन्म के बाद अफ़ग़ानिस्तान और उसके ताक़तवर साथी भारत और पूर्वी सोवियत संघ ने पख़्तून राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जिसे पाकिस्तान नहीं मानता.
पाकिस्तान ने दुश्मन देशों के ख़तरे से निपटने के लिए इस्लामिस्ट गुटों को बढ़ावा और समर्थन देना शुरू कर दिया.
अफ़ग़ान विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने मई 2013 में प्रेस वार्ता के दौरान कहा था, "डूरंड रेखा समस्या तब सुलझेगा जब इस क्षेत्र में चरमपंथ और उग्रवाद की समस्या ख़त्म होगी."
इस बयान से साफ़ ज़ाहिर था कि अफ़ग़ानिस्तान, सीमा रेखा के भाग्य को तय करने के लिए बातचीत करने को भी तैयार था.
लेकिन कई बार पहल करने और 22 बार पाकिस्तान का दौरा करने के बाद करज़ई की पाकिस्तान से सारी उम्मीदें ख़त्म हो गईं.
यहां तक कि उन्होंने पाकिस्तान को ख़ुश करने के लिए अपनी सरकार में मौजूद कई पाकिस्तान विरोधी अधिकारियों को दरकिनार कर दिया था.
बाद के सालों में करज़ई पाकिस्तान विरोधी हो गए और पख़्तून राष्ट्रवाद विचारधारा को अपनाने लगे.
लेकिन कुछ लोगों को लगा कि पूर्व राष्ट्रपति के ये क़दम कार्यकाल की समाप्ति के बाद भी पख़्तूनों के बीच अपने लिए भूमिका तलाशने की कोशिश का एक हिस्सा था.
पाकिस्तान की तरफ़ से हाल के झड़पों पर बोलते हुए करज़ई ने 13 जून को बीबीसी फ़ारसी रेडियो से कहा, "लंबे समय से वो हमें ऐसे उकसाकर डूरंड पर बातचीत के लिए बाध्य करने की कोशिश करते रहे. ऐसी कोशिशें कभी कामयाब नहीं होंगी."
करज़ई ने पहले भी कई मौक़ों पर ऐसे बयान दिए हैं.
अप्रैल 2016 में करज़ई ने एक पख़्तून राष्ट्रवाद गुट, मिली घोरज़ंग के आयोजित सभा में बोतले हुए कहा था, "डूरंड रेखा को नहीं मानने का कारण है कि ये हमारी ज़मीन है. ब्रिटिश ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया था. जब वो इसे छोड़कर चले गए तो पाकिस्तान को इसे विरासत में मिल गई. ज़ब्त ज़मीन का मतलब ये नहीं कि ये हमारा नहीं है."
करज़ई समर्थक मीडिया भी इसी सुर में बोलती है.
मिली घोरज़ंग के सदस्य अख़बर जान पोलाड ने 11 जून को स्पागमई रेडियो को बताया, "दिक़्क़त ये है कि वो लोग चरमपंथ, तालिबान या दूसरे कटपुतलियों के ज़रिए अफ़ग़ान पर डूरंड रेखा को मान्यता देने का दबाव डाल रहे हैं."
स्पागमई रेडियो करज़ई समर्थक छोटे से मीडिया गुट का एक हिस्सा है.
कुछ हल्क़ों में राष्ट्रवादी बयानबाज़ी के बावजूद अफ़ग़ान काफ़ी हद तक डूरंड रेखा के शीघ्र निपटारे के पक्ष में हैं.
सालों के मीडिया रिपोर्ट को देखें तो पता लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान का पूरा ग़ैर-पख़्तून आबादी, जो की देश की आबादी का कुल 60 फ़ीसदी है, जल्द से जल्द इस छह दशक लंबे विवाद का निपटारा चाहता है.
एक वरिष्ठ अफ़ग़ान टीवी एंकर अबु मुस्लिम शिरज़ाद ने फेसबुक पेज पर 15 जून को लिखा था, "पाकिस्तान के साथ युद्ध कोई समाधान नहीं है. डूरंड के लिए एक तार्किक समाधान ढूंढने की ज़रूरत है नहीं तो भावनात्मक कार्रवाई इसी तरह जान लेती रहेगी."
देश के पख़्तूनों को भी ऐसा लगने लगा है कि इस विवाद का निपटारा होना चाहिए क्योंकि ये उनके ग़रीब देश के सीमित संसाधनों को बर्बाद कर रहा है.
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