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मुलाक़ात तो होगी, पर बात क्या होगी?

ब्रजेश उपाध्याय बीबीसी संवाददाता, वॉशिंगटन दो साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने वाशिंगटन पहुंचे थे तो उस मुलाक़ात में ठोस नीतियों और साझेदारियों से कहीं ज़्यादा सबकी नज़र इस बात पर थी कि दोनों नेता एक दूसरे से किस तरह से पेश आएँगे. आख़िर इसी अमरीका ने प्रधानमंत्री […]

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दो साल पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने वाशिंगटन पहुंचे थे तो उस मुलाक़ात में ठोस नीतियों और साझेदारियों से कहीं ज़्यादा सबकी नज़र इस बात पर थी कि दोनों नेता एक दूसरे से किस तरह से पेश आएँगे.

आख़िर इसी अमरीका ने प्रधानमंत्री मोदी को दस साल तक अपनी ज़मीन पर पांव रखने की इजाज़त नहीं दी थी. वो वीज़ा प्रतिबंध भी इसलिए हटा क्योंकि मोदी एक राष्ट्राध्यक्ष की हैसियत से अमरीका का दौरा कर रहे थे.

तब से अब तक दोनों ही नेता छह बार मिल चुके हैं. अंतरराष्ट्रीय मीडिया कई बार उनके आपसी रिश्ते या केमिस्ट्री को ‘ब्रोमांस’ या बेहद क़रीबी दोस्ती का नाम देती है.

जानकारों का कहना है कि मंगलवार को जब मोदी और ओबामा व्हाइट हाउस में मिलेंगे तो किसी ऐतिहासिक या सुर्खियां बटोरने वाले ऐलान की उम्मीद नहीं है बल्कि पिछले दो सालों में जिन साझेदारियों और संभावनाओं पर बात हुई है, उन्हें ठोस स्वरूप देने पर बात होगी.

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व्यापार, सुरक्षा, आतंकवाद, सायबरतंत्र, जलवायु परिवर्तन, स्वच्छ उर्जा और परमाणु मामलों पर सहयोग जैसे विषय दोनों ही नेताओं की बातचीत का अहम हिस्सा होगें.

एक दूसरे की सैन्य सुविधाओं के इस्तेमाल में आपसी सहयोग या ‘लॉजिस्टिक्स कोऑपरेशन’ से जुड़े समझौते पर दस्तख़त हो सके इसके लिए अमरीकी और भारतीय अधिकारी पूरी कोशिश कर रहे हैं.

भारत और अमरीका औपचारिक रूप से मित्र-राष्ट्र नहीं हैं. इसलिए ये समझौता भारत के लिए राजनीतिक रूप से काफ़ी संवेदनशील है, क्योंकि भारत आज भी गुट निरपेक्ष की नीति पर अमल कर रहा है.

ओबामा प्रशासन भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप, परमाणु ऊर्जा से जुड़ी टेक्नोलॉजी और उसके व्यापार को नियंत्रित करने वाले संगठन की सदस्यता देने के हक़ में बोल चुका है. अगर राष्ट्रपति ओबामा उससे संबंधित कोई ऐलान करते हैं तो माना जा रहा है कि ये प्रधानमंत्री मोदी के लिए अच्छी ख़बर होगी.

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मोदी इस संगठन की सदस्यता के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. लेकिन जानकारों का कहना है कि इसमें सबसे बड़ी रूकावट चीन की तरफ़ से है. अगर ओबामा चीन को मनाने के लिए तैयार हो गए तो ये भारत के लिए बड़ी सफलता होगी.

विश्व व्यापार मंचों पर दोनों ही देशों के बीच अभी भी भारी मतभेद हैं. उन मामलों पर किसी तरह की प्रगति के आसार इस दौरे में नहीं हैं.

वाशिंगटन के जानेमाने थिंकटैंक सीएसआईएस में भारत-अमरीका मामलों के जानकार रिचर्ट रोसो का कहना है, ”ये दोनों ही राष्ट्राध्यक्षों के बीच शायद आख़िरी द्विपक्षीय मुलाक़ात होगी. इसलिए ये बेहद अहम है."

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वो कहते हैं, "ये वो मुलाक़ात होगी जिसमें उनके पास सही मायने में समय होगा कि एक दूसरे से अब तक किए गए वादों का लेखा-जोखा लेकर उन्हें पूरा कर सकें."

इस दौरे पर प्रधानमंत्री मोदी अमरीकी कांग्रेस की साझा बैठक को भी संबोधित करेंगे. ये काफ़ी मायने रखता है क्योंकि ये एक अहम मौक़ा होगा कि वो रिपब्लिकंस और डेमोक्रैट्स दोनों को अपनी नीतियों और पिछले दो साल में जो हासिल किया है उससे अवगत करा सकें.

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हाल ही में अमरीकी संसद के ऊपरी सदन सिनेट की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष बॉब कार्कर ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हुए कहा था कि वादों और हक़ीक़त के बीच की खाई काफ़ी बढ़ रही है. आर्थिक सुधार की गति जुमलेबाज़ी से काफ़ी पीछे है.

कई सदस्यों ने अल्पसंख्यकों और मानवाधिकारों पर भी मोदी सरकार की तीखी आलोचना की है. मंगलवार को कांग्रेस में इन मामलों पर एक सवाल-जवाब सत्र का भी आयोजन हुआ. इससे अंदाज़ा है कि गोमांस, धर्मांतरण, ग़ैर-सरकारी संगठनों पर रोक जैसे विषयों पर ख़ासी चर्चा होगी.

जानकारों का कहना है कि बुधवार को जब मोदी सिनेटरों और अन्य अमरीकी प्रतिनिधियों से मिलेंगे तब भी उनसे इन मामलों पर सवाल किए जा सकते हैं. उम्मीद है कि कांग्रेस की साझा बैठक को संबोधित करते हुए वो अपना पक्ष स्पष्ट करने की कोशिश करें.

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राष्ट्रपति ओबामा अब अपनी हुकूमत के आख़िरी दौर में हैं. संभव है कि दोनों देशों के कई द्विपक्षीय मामलों पर निर्णायक फ़ैसले अगले राष्ट्रपति के दौर में हों. लेकिन जानकारों की राय में दोनों नेताओं के लिए ये एक मौक़ा है आपसी रिश्तों को परिपक्वता की ओर ले जाकर उस मुक़ाम पर पहुंचाने का जहां से सिर्फ़ आगे ही बढ़ा जा सकता है.

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