भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मेरी पहचान एकतरफ़ा है. यानी, सिर्फ़ मेरी तरफ़ से.
लंबे समय पहले जब अमित शाह अहमदाबाद में थे, तब उनसे फ़ोन पर संपर्क करना, बातचीत करना आसान हुआ करता था.
सोहराबउद्दीन फर्ज़ी मुठभेड़ मामले में अदालती आदेश के बाद जब उन्हें गुजरात छोड़कर दिल्ली आना पड़ा तब गुजरात भवन में उनके निवास काल के दौरान मैंने उनसे मिलने की कोशिश की लेकिन सफ़लता नहीं मिली.
तब से अब तक अमित शाह ने लंबा सफ़र तय कर लिया है. अब वो भाजपा अध्यक्ष हैं और उनके ‘नरेंद्र भाई’ भारत के प्रधानमंत्री – और ये देश की शायद सबसे शक्तिशाली जोड़ी है.
पिछले कुछ वक़्त से मैं अमित शाह को पत्रकारों को जवाब देते हुए देख रहा हूं. और कई बार इसे लेकर मेरे मन में उत्सुकता और परेशानी के भाव हैं.
उत्सुकता ये जानने की कि अमित शाह मीडिया के बारे में क्या सोचते हैं और परेशानी इसलिए कि कई बार वो जिस तरह जवाब देते हैं, उसे देखकर लगता है कि मीडिया को लेकर उनके मन में एक मज़बूत धारणा है.
अपने जवाबों में अमित शाह आक्रामक होते हैं, हालांकि कभी-कभी उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी दिखती है और वो पत्रकारों को ‘भइया’ कहते दिखते हैं. सवाल के हर शब्द को वो ध्यान से सुनते हैं और जवाब में उस शब्द का हवाला देकर टिप्पणी तुरंत चिपका भी देते हैं.
वो मीडिया से बेहद ख़फ़ा दिखते हैं, जैसे उन्हें लगता हो कि मीडिया का एक हिस्सा उनके खिलाफ़ है, हालांकि वो जल्द भूल जाते हैं कि जब मीडिया में यूपीए के खिलाफ़ कहानियां होती थीं तो उन्हीं का दल इसी मीडिया की तारीफ़ करता था. उधर एक दूसरे पक्ष की शिकायत है कि मीडिया में सरकार के खिलाफ़ लिखना मुश्किल होता जा रहा है.
तारीख़ 27 मई 2016. अमित शाह ने नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर प्रेस कान्फ्रेंस बुलाई थी. मनमोहन सिंह को ‘मौनमोहन सिंह’ बुलाने वाले नरेंद्र मोदी उस दिन अख़बारों, सोशल मीडिया पर तो मौजूद थे लेकिन पत्रकारों के सवालों के लिए नहीं. सरकार के दूसरे मंत्री भारतीय मीडिया पर साक्षात्कर दे रहे थे लेकिन सरकार के मुखिया ने साक्षात्कार के लिए ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ को चुना.
मीडिया के सवालों के लिए उस दिन मंच पर कमान संभाली अमित शाह ने. सफ़ेद कुर्ते पर बैगनी नेहरू जैकेट पहने अमित शाह मंच पर बैठे थे. चेहरे पर जानी पहचानी हल्की दाढ़ी. सामने पत्रकारों का जमावड़ा और मैं उन्हें दफ़्तर में टीवी पर देख रहा था.
अमित शाह ने मज़बूती से सरकार की दो साल की उपलब्धियों गिनाईं. और फिर सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ.
पहला सवाल, पिछले दो सालों में सरकार को किस तरह की चुनौतियां पेश आईं हैं. अमित शाह ने अगले 43 सेकेंड में पूर्व यूपीए सरकार की कथित ख़राब नीतियों के कारण खज़ाना खाली होने, पॉलिसी परालिसिस आने, जनता में निराशा फैलने के अलावा नई आशा के संचार का ज़िक्र किया. मुझे इससे कहीं बेहतर, विचारशील जवाब की तलाश थी.
फिर अमित शाह ने एक पत्रकार से थोड़ा मज़ाक कर माहौल को आसान बनाया. एक पत्रकार ने सरकारी योजनाओं में चुनौतियों से जुड़ा सवाल उठाया तो जवाब मिला कि सरकार योजनाओं पर निगरानी रखती है, और जानकारी चाहिए तो नरेंद्र मोदी ऐप देखिए.
एक दूसरे पत्रकार ने किसी सर्वे का हवाला देते हुए बेहद गंभीर अंदाज़ में पूछा, लोगों को तो सरकारी कार्यक्रमों के बारे में जानकारी ही नहीं है. अमित शाह ने बाएं हाथ से इशारा करते हुए नाटकीय अंदाज़ में कहा, अरे भइया, मीडिया का भी तो दायित्व है, आप दिखाओ ज़रा एक-एक योजना के बारे में. हर एक योजना के बारे में टीवी पर दिखाओ, हर योजना प्रसिद्द हो जाएगी. मैंने ख़ुद से पूछा, क्या?
सरकार के दो साल पूरे होना बेहद महत्वपूर्ण वक़्त था. ऐसे वक़्त जब देश एक बड़ा हिस्सा सूखे से जूझ रहा हो, महंगाई एक चुनौती हो, पार्टी के कई चुनावी वायदों के पूरा होने पर सवाल हो, ऐसे में मुझे उम्मीद थी कि एक लिखे पर्चे को पढ़ने के अलावा अमित शाह लोगों से सीधे बातचीत करेंगे, मुद्दों, परेशानियां और उनके उपायों पर बात करेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
या फिर मेरी उम्मीद ही ग़लत थी क्योंकि ये सरकार या फिर सरकार का एक हिस्सा सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों से सीधे जुड़ने में विश्वास करता है न कि पत्रकार मीडिया के माध्यम से.
कुछ महीने पहले जब अमित शाह किरण बेदी का नाम दिल्ली के मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर घोषित कर रहे थे तो एक पत्रकार से उन्होंने कहा, “हमारे सीटों के चयन का फ़ैसला आपके सवाल के आधार पर नहीं होता, हमारी पार्टी की अनुकूलता के आधार पर होता है.” एक अन्य सवाल पर मुस्कुराते हुए तंज़ कसा, “आप मेरी पार्टी चलाना मुझपर छोड़ दो, आप चैनल चलाना चालू रखो.”
इंडिया टुडे कॉन्क्लेव शायद एकमात्र ऐसा मंच था जहां अमित शाह थोड़ा खुले और मीडिया के बारे में उनकी सोच सामने आई.
पत्रकार राहुल कंवल के एक सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा, “स्वर कितना है और उसके आगे लाउडस्पीकर कौन लगाता है वो देखना पड़ेगा. मैं बताता हूं, कैसे आप लोग करते हो. आगरा में दलित युवा की हत्या हुई. किसी ने नहीं दिखाया. अब उसकी श्रद्दांजली के कार्यक्रम में कोई कुछ बोल गया, पूरे देश में मीडिया काऊं काऊं करने में लग गया.”
केरल में आरएसएस के एक कार्यकर्ता की हत्या पर मीडिया रिपोर्टिंग पर उनकी टिप्पणी थी, आपने “केरल में मारने वालों का उल्लेख नहीं किया. आपके डुएल स्टैंडर्ड क्यों हैं.”
सवालों को टाल जाना, सीधा जवाब न देना, नेताओं के लिए नई बात नहीं है. जयललिता, मायावती, सोनिया गांधी, नवीन पटनायक, इन नेताओं का पिछला साक्षात्कार आपको शायद ही याद हो. लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह अमित शाह जिस तरह पत्रकारों को जवाब देते दिखे हैं, उससे मीडिया पर उनकी सोच ज़रूर पता चलती है.
पत्रकार के तौर पर उनसे साक्षात्कार शायद सबसे मुश्किल कामों से के एक हो. क्योंकि कम वाक्यों में वो पार्टी लाइन को जस का तस परोस देते हैं.
यहां यूपीए दौर की एक बात ज़रूर याद आती है. यूपीए की हार के पीछे एक तर्क ये भी दिया जाता है कि भ्रष्टाचार, ढलती अर्थव्यवस्था के अलावा जिस बात ने सरकार की छवि ख़राब की वो थी मीडिया खासकर टीवी पर पार्टी प्रवक़्ताओं का जवाब देने का अंदाज़ – सीना ठोंककर ये कहना कि सबकुछ ठीक है. इसे कई लोगों ने सत्ता के ग़ुरूर की निशानी माना. कपिल सिबल, मनीश तिवारी, संजय झा की दीवार के पीछे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या सोचते हैं, ये लोगों को पता नहीं चला.
अगर आप कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इंटरव्यू पढ़ने के लिए गूगल करें तो भूरी शर्ट और टाई पहने हुए और मूछ धरे राजीव शुक्ला को दिया गया 1999 का साक्षात्कार सबसे ऊपर दिखता है. उसके बाद एनडीटीवी को 2004 का शेखर गुप्ता से किया गया साक्षात्कार है. और इसके अलावा सोनिया गांधी इक्के दुक्के इंटरव्यू ही मुझे नज़र आते हैं.
अमित शाह से बेहतर उम्मीदे थीं क्योंकि ये सरकार जनता से बातचीत में कहीं बेहतर मानी गई थी. लेकिन उनके ताज़ा मीडिया संवाद से कई लोग निराशा हुए होंगे. या गुजरात, सोहराबउद्दीन, फर्ज़ी मुठभेड़, कथित ग़ैरकानूनी स्नूपिंग छोड़िए, आसान राजानीतिक सवालों पर जवाब मिलना मुश्किल हो गया है.
अमित शाह जी, सवाल पूछना हमारा काम है. उम्मीद है आप हमें थोड़ा और गंभीरता से लेंगे.
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