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‘हम नेताओं से उपदेश सुनना पसंद करते हैं’

शिवम विज वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए जनता की राय एक मज़ाक़ की बात बन कर रह गई है. तथ्यों की परवाह किए बिना यह बड़ी आसानी से बदली जा रही है. तथ्यों की जगह धारणाएं और भावनाएं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चुकी हैं. अगर लोगों को लगता है कि कोई विचार ज़ाहिराना […]

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जनता की राय एक मज़ाक़ की बात बन कर रह गई है. तथ्यों की परवाह किए बिना यह बड़ी आसानी से बदली जा रही है. तथ्यों की जगह धारणाएं और भावनाएं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो चुकी हैं.

अगर लोगों को लगता है कि कोई विचार ज़ाहिराना तौर पर असफल होने वाला है या उन्हें असफलता का अंदेशा भी होने लगता है तो वह बदल जाता है.

इसकी झलक आपको इन तीन उदाहरणों में दिखने को मिलेगी. पहला इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन, दूसरा स्वच्छ भारत योजना और तीसरा दिल्ली में लागू होने वाला ऑड-इवन कार स्कीम.

2011 से 2013 के बीच चले भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन, यहां तक कि 2014 में हुए आम चुनाव के दौरान भी, दो सालों तक ये आंदोलन ऐसा चला कि लगा देश में भष्टाचार को छोड़कर दूसरा कोई मुद्दा नहीं बचा है.

उस वक़्त हर राह चलता आदमी आपको अन्ना हज़ारे के लोकपाल बिल और सरकारी जनलोकपाल बिल के बीच के अंतर को बता सकता था.

यह भारत के क़ानून निर्माण में शायद जनता की सबसे बड़ी भागीदारी थी. और अब 2016 में सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर किसी को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि मोदी सरकार ने लोकपाल नियुक्त करने से मना कर दिया है.

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यहां तक कि आम आदमी पार्टी भी मोदी सरकार के इस रवैये को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा नहीं मचा रही है.

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट के ज़रिए मोदी सरकार से भ्रष्टाचार, दलित अधिकारों, अल्पसंख्यक मुद्दों, न्यायिक सुधारों और कई मुद्दों पर सवाल-जवाब किए हैं.

लेकिन उन्होंने मोदी सरकार से एक बार भी लोकपाल की नियुक्ति के बारे में क्यों नहीं पूछा.

कई लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार हमारे समाज में इतनी गहराई से रचा-बसा है कि वो कभी नहीं जाएगा.

लगता है कि भ्रष्टाचार को लेकर कोई फ़िक्रमंद नहीं रह गया है. व्यापम्, ललितगेट, विजय माल्या के भाग जाने और गुजरात की मुख्यमंत्री की बेटी के ऊपर ज़मीन हड़पने के आरोप पर एक तरह की चुप्पी बनी हुई है.

2011 से 2013 के बीच भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लोगों की राय भी काम किया करती थी.

अब सवाल उठता है कि कब, किस मामले में कितना गंभीर होना था इसे कैसे तय किया गया?

ऐसा ही एक और कौतूहल वाला सवाल स्वच्छ भारत योजना को लेकर भी है.

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‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के एक ओपिनियन पोल में पता चला है कि स्वच्छ भारत योजना मोदी द्वारा चलाए गए योजनाओं में सबसे लोकप्रिय है.

किसी का भी यह नहीं कहना है कि भारत स्वच्छ भारत योजना के साथ पहले से अधिक साफ़ और स्वच्छ बन चुका है.

वाक़ई में किसी को इस योजना के बारे में ठीक से पता नहीं है सिवाए इसके कि यह भारत को साफ़-सुथरा बनाने की योजना है.

जब राहुल गांधी ने बेंगलुरू में यह सवाल उठाया तो छात्रों ने उनका विरोध किया.

नगरपालिकाओं को केंद्र सरकार नहीं चलाती है. इसे राज्य सरकार पर छोड़ दिया गया है और इसके भरोसे भारत को साफ़-सुथरा नहीं बनाया जा सकता है.

लोग यह जानते हैं तो भी वे स्वच्छ भारत योजना को पसंद करते हैं. आख़िर क्यों?

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली में ऑड-इवन योजना चलाई. इसकी वजह से दिल्ली के प्रदूषण पर बेहद मामूली सा फ़र्क़ पड़ा.

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ऑड-इवन को अप्रैल में जब दूसरी बार शुरू किया गया तो वो जनवरी में लागू हुए पहले दौर की तरह सफल भी नहीं हो पाया.

दूसरे दौर में जनवरी की तरह ट्रैफिक पर कोई असर नहीं पड़ा. इसके बावजूद आड-इवन इतना लोकप्रिय क्यों है.

सबसे विचित्र बात तो यह है कि यह कार वालों के बीच भी लोकप्रिय है जिन्हें इससे सबसे ज़्यादा असुविधा हुई.

इन तीनों उदाहरणों से यह साबित होता है कि लोग अपने नेताओं से उपदेश सुनना पसंद करते हैं.

जब नेता भ्रष्टाचार मिटा देने, इसके ख़िलाफ़ नए क़ानून बनाने, प्रदूषण घटाने और सड़कों को साफ़-सुथरा बना देने की बात करते है तो लोग पसंद करते हैं.

यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसा लोग मौलिक अधिकारों की बजाए मौलिक कर्तव्य की बात करना पसंद करते हैं.

वे जॉन एफ़ केनेडी की तरह यह बात करते हैं कि अपने देश से मत पूछो कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है. यह बताओ कि आप देश के लिए क्या कर सकते हैं.

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही जनता के इस व्यवहार को समझते हैं.

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नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में यह नहीं बतलाते कि सरकार क्या कर रही है बल्कि लोगों को क्या करना चाहिए, इसकी बात करते रहते हैं.

वो अक्सर लोगों से ग़रीबों की मदद करने के लिए खादी ख़रीदने की बात करते हैं. ड्रग से दूर रहने और परीक्षा के तनाव से बचने की बात करते हैं.

पानी बचाने और एलपीजी सब्सिडी छोड़ने की बात करते हैं. डायबिटीज़ से बचने के लिए जीवन शैली में बदलाव लाने की बात करते हैं और इस तरह की तमाम अच्छी-अच्छी उपदेशात्मक बातें करते हैं.

उनकी सरकार की यह शैली मनमोहन सिंह के दस सालों की सरकार से अलग है. मनमोहन सिंह की सरकार अधिकार के बात पर ज़ोर देती थी.

शिक्षा, रोज़गार, खाद्य सुरक्षा और सूचना इन सभी को लेकर यूपीए सरकार का रवैया इन्हें क़ानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने का था.

एक नेता का काम सिर्फ़ सरकार चलाना नहीं बल्कि जनता को रास्ता दिखाना भी होता है.

चीज़ों को सही ढंग से पूरा करने के लिए लोगों के सहयोग की ज़रूरत पड़ती है. यह सिर्फ़ अकेले सरकार के भरोसे संभंव नहीं है.

हालांकि सरकार की ओर से दादा जी की तरह ज़्यादा उपदेश देना ज़िम्मेदारियों से दूर होना और भावनात्मक तौर पर हमें ब्लैकमेल करने जैसा है.

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