एक अध्ययन से पता चला है कि भारत की राजधानी में बिकने वाले ब्रेड और बेकरी उत्पादों में से 84 फ़ीसद में पोटाशियम ब्रोमेट और पोटाशियम आयोडेट रसायन है जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही नहीं, कैंसर का कारण भी बन सकते हैं.
ये अध्ययन पर्यावरण पर काम करने वाली सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) ने किया है.
दरअसल ब्रेड में केमिकल होना ही नहीं चाहिए. सुबह ब्रेड लाओ और शाम तक ख़त्म हो जाए. ताज़ा ब्रेड खाएं तो केमिकल की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.
लेकिन अगर महीनों रखा जाए और हज़ारों मील दूर से वह आए, तो केमिकल की जरूरत पड़ेगी.
जब से विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) और ग्लोबलाइज़ेशन आया है तब से भारत में फ़ूड सेफ्टी स्टैंडर्ड ऑथॉरिटी (एफएसएसए) काम करने लगी है.
ये मानक तीन वजहों से भारत के लिए बहुत ग़लत हैं. पहला यह कि ये हमारे फ़ूड सिस्टम और फ़ूड कल्चर के ख़िलाफ़ है.
मैं अगर लोकल बेकरी में बढ़िया से बढ़िया ब्रेड बनाऊं, लेकिन मेरे पास लैब न हो और मेरी बेकरी छोटी हो तो क्या होगा?
ये लोग यह कहकर मेरी छोटी बेकरी को बंद करा देंगे कि मेरे पास लेबोरेटरी नहीं है.
देश में जब तक डब्लूटीओ का प्रभाव नहीं था, तब तक फ़ूड प्रोसेसिंग लघु उद्योगों तक सीमित थी. यानी उस पर स्थानीय समुदाय और समाज का नियमन था.
सरकार प्रिवेंशन ऑफ फ़ूड एडलटरेशन एक्ट की मदद से भी खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट रोक सकती है. लेकिन अब इन्होंने मिलावट को ही मानक बना दिया है.
खाने-पीने की चीज़ों के औद्योगिकरण की वजह से इनमें खुले तौर पर केमिकल्स की मिलावट हो रही है.
नियमों में विविधता लाने की बहुत ज़रूरत है. कुछ चीज़ें जो स्थानीय स्तर पर सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक हैं, उसका एक केंद्रीय ऑथिरीटी के जरिए नियमन करना ग़लत है.
सरकारी नियमन लाकर लाइसेंस राज, जो भ्रष्टाचार की जड़ है, उसे वापस लाया जा रहा है.
कुछ चीज़ें हम जानते हैं कि स्वास्थ्य ले लिए अच्छी नहीं हैं. पश्चिम के ज़हर को लाकर उसके फिर से नियमन की ज़रूरत नहीं है.
जैसे ही हम पश्चिम की दवाइयों को अपने यहां लेकर आएंगे, वे वहां की प्रतिबंधित और हानिकारक दवाइयों को यहां डंप करेंगे.
जब आप कीटनाशक के लिए अपने देश के दरवाजें खोल देंगे तो ऐसे कीटनाशक जिन्हें कहीं भी अनुमति नहीं मिली है, वो भी यहीं आकर डंप होगा.
वो जानते हैं कि भारत में जब तक बड़े पैमाने पर लैब खुलेंगे और परीक्षण होंगे, तब तक हम करोड़ों कमा कर निकल जाएंगे.
इसीलिए मैं कहती हूं कि खाने में औद्योगिकरण की कोई भूमिका नहीं है.
(पर्यावरणविद वंदना शिवा से बीबीसी संवाददाता नितिन श्रीवास्तव की बातचीत पर आधारित. ये वंदना शिवा के निजी विचार हैं.)
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