‘प्रभात खबर’ अखबार को न बंटने देने का ठेका जिन दो हॉकर नेताओं ने माफिया गिरोहों से पैसे लेकर किया था, उनके मंसूबे हॉकरों ने ही ध्वस्त कर दिये. किनसे पैसे लिये गये. किनके इशारे पर यह षड्यंत्र रचा गया और यह कैसे संपूर्ण विफल हो गया, इसका पूरा ब्योरा आप अलग से पढ़ेंगे. यह पुन: दोहराने की जरूरत है कि ये दोनों नेता खुद हॉकर नहीं हैं. पर जान लीजिए, जिन दो कथित हॉकर नेताओं ने यह ठेका लिया था. उनमें से एक सज्जन ने कुछ ही दिनों पूर्व तीन लाख रुपये में हरमू में मकान खरीदा है. दूसरे नेता द्वारा जबरन कब्जा की गयी और फरेब से हथियाई संपत्ति की लंबी सूची है. वह अलग से और बाद में.
जिस कथित हॉकर नेता ने तीन लाख रुपये में मकान खरीदा है, वह कहीं नौकरी नहीं करते, ट्रेड यूनियन रंगदारी ही उनकी आय का एकमात्र स्रोत है. जो आदमी खुद हॉकर नहीं है, जो कहीं नौकरी नहीं करता, जो कोई भी उत्पादक श्रम नहीं करता, वह ठाट से रहता है. तीन लाख का घर खरीदता है और खुलेआम रंगदारी कर रहा है. प्रभात खबर के प्रसार विभाग में कार्यरत लोगों से महीने भर पूर्व संपर्क कर इन दोनों नेताओं ने अलग-अलग कहा था कि हमें कुछ पैसे दिला दें, तो हम सब ठीक कर देंगे.
अखबार, जो उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्ध हैं, वे भी घूस-रंगदारी देने लगें, तो उनके निकलने न निकलने का कोई औचित्य नहीं है. प्रभात खबर को यह बताने की जरूरत नहीं कि उसे इन मूल्य बोधों और प्रतिबद्धता की क्या कीमत पहले चुकानी पड़ी है या भविष्य में पड़ेगी. धमकी, मुकदमा, नाजायज ढंग से फंसाने की कोशिश, बदनाम करने के षड्यंत्र के अनेक दृष्टांत होते हुए भी वह हर संघर्ष-कुचक्र से तप कर निकला है, निकलेगा व निखरेगा. ये दो नेता भी ‘प्रभात खबर’ को बदनाम करने का अभियान चला रहे हैं.
लेकिन ऐसे ट्रेड यूनियन नेताओं के खिलाफ सामाजिक बहिष्कार चलाना होगा. जैसे बंगाल में हो रहा है. जूट मिलों के मजदूर ऐसे ट्रेड यूनियन नेताओं को खोज-खोज कर भगा रहे हैं. नारे लगा रहे हैं, ‘नेता भगाओ, उद्योग बचाओ’ कलकत्ता के अखबारों में रोजाना ऐसे दलाल नेताओं के खिलाफ सामग्री छप रही है. रांची के हॉकर भी इन्हें खदेड़ ही चुके हैं. इस कारण कई सौ हॉकरों में से अब पांच भी इनके साथ नहीं रहे. आज बिहार में क्यों कोई उद्योग नहीं खुला रहा?
क्यों यहां से लोग कारोबार समेट कर बाहर जा रहे हैं? क्यों बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है? क्यों कोकर इंडस्ट्रीयल एरिया और तुपुदाना की हजारों इकाइयों के दरवाजे पर ताले लटक रहे हैं? अगर यहां उद्योग-धंधे चलते, तो हजारों लोगों को रोजगार मिला होता. पर ऐसे ही ट्रेड यूनियन नेताओं की कारगुजारियों का यह परिणाम है. पिछड़ों-हरिजनों-आदिवासियों, मुसलमानों व गरीबों के खिलाफ षड्यंत्र करनेवाले ये नेता कुछ दिनों तक जातिवाद का अर्थ परिवारवाद है. अपने भाई-भतीजों को नौकरी’रोजगार दिलाना. ये लोग ‘प्रभात खबर’ की एजेंसी भी चाहते थे. इन दोनों का परिवार फले-फूले, यही इनका मकसद था.
अगर ऐसा नहीं था, अगर माफिया एजेंसियों से इन्होंने पैसे नहीं लिये, तो फिर ‘प्रभात खबर’ से ही कमीशन बढ़ाने की मांग क्यों हुई? उल्लेखनीय है कि ‘प्रभात खबर’ उतना ही कमीशन देता है, जितना दूसरे अखबार देते हैं. दरअसल यह एक-एक कर रांची के सारे अखबारों को कमजोर करने की साजिश का हिस्सा है. पर इस साजिश को हॉकरों ने लगभग नाकाम कर दिया है. रांची और बिहार को समृद्ध-बेहतर बनाने के लिए ऐसी ताकतों के खिलाफ सामाजिक अभियान चलाने की जरूरत है.
जैसे बंगाल के जूट मजदूर चला रहे हैं. जब भारी पैमाने पर विश्व स्तर पर बेरोजगारी बढ़ रही हो, तो भारत की स्थिति आप आंक सकते हैं, उसमें भी बिहार की स्थिति देखिए, जहां कमाने के अवसर सिकुड़ रहे हैं. ऐसी स्थिति में रंगदार ट्रेड यूनियन नेता कब तक बिहार के भविष्य पर ताला लगा कर बैठे रहेंगे? जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए था, वह लोगों के भविष्य के द्वार बंद कर बैठे रहेंगे?