लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जिस `कांग्रेस मुक्त भारत` का आह्वान किया था, 2016 के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उसे और मजबूती दे दी है. कम-से-कम इस मामले में जरूर, कि असम और केरल की सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस का शासन अब सिर्फ एक बड़े राज्य कर्नाटक के अलावा पांच छोटे राज्यों-उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम-में सिमट गया है, जहां देश की सिर्फ सात फीसदी आबादी रहती है.
लेकिन, इन नतीजों के बाद मुखर होते असंतोष के स्वरों में संकट की गहराई और समाधान की दिशाहीनता साफ पढ़ी जा सकती है. राज्यों में पार्टी के सिमटने का सिलसिला उसके केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद से और तेज हो गया है.
2014 में कांग्रेस ने न सिर्फ महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे बड़े राज्यों में सत्ता गंवायी, बल्कि क्रमशः शिवसेना और इंडियन नेशनल लोकदल ने उसे इन राज्यों में दूसरे नंबर की पार्टी भी नहीं रहने दिया. ऐसे मुश्किल हालात से कांग्रेस को पहले भी गुजरना पड़ा है, लेकिन इस समय बड़ा संकट यह है कि पार्टी पहले कभी इतनी दिशाहीन नजर नहीं आयी थी. 2014 के आम चुनाव में सबसे बड़ी पराजय के बाद उम्मीद की गयी थी कि पार्टी में आत्ममंथन होगा और अस्तित्व पर गहराते संकट से उबरने की कोई कारगर राह तलाशी जायेगी, लेकिन एके एंटनी के नेतृत्व में बनी कमेटी ने सिर्फ राहुल और सोनिया गांधी के नेतृत्व को कवच मुहैया कराने का ही काम किया.
सबसे बड़ी हार के बाद देशवासियों को लुभानेवाला कोई नया एजेंडा या कार्यक्रम पेश करने की बजाय, पार्टी ने आगे बढ़ने के लिए मोदी सरकार के विरोध का आसान और नकारात्मक रास्ता चुना, इस उम्मीद में कि केंद्रीय सत्ता से मोह भंग होने पर मतदाताओं के जवाबी ध्रुवीकरण से उसकी राजनीतिक चमक लौट आयेगी. बतौर विपक्षी दल, सत्ता की खामियों की आलोचना करना उसका दायित्व है, लेकिन उसने यह बताना कतई जरूरी नहीं समझा कि उसके पास वैकल्पिक रास्ता क्या है?
नतीजा सामने है. 2016 के जनादेश में एनडीए विरोधी मतों पर कांग्रेस की बजाय क्षेत्रीय दलों का दबदबा और बढ़ गया है. अब देश के दस राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं, जहां देश की कुल 41.16 फीसदी आबादी रहती है. गौर करें तो देश की सबसे पुरानी पार्टी पर अस्तित्व का यह संकट खुद उसके भीतर से ही उभरा है. सोनिया के बाद कौन, इस यक्ष प्रश्न को जितना टाला जा रहा है, संकट उतना गहरा हो रहा है.
स्थिति यह है कि एक सक्षम नेतृत्व के अभाव में, उदार और समावेशी होने का पार्टी का दावा प्रभावहीन हो गया है. देश-दुनिया के तमाम विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी इस संकट से तभी उबर सकती है, जब वह एक सक्षम नेतृत्व के साथ लोगों के सामने विकास और सामाजिक समावेशन का कोई नया एजेंडा और सपना पेश करे. ऐसे में हैरानी होती है कि यह बात पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को क्यों नहीं समझ आ रही?
हालांकि अभी यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भारत से कांग्रेस का अस्तित्व मिटने के कगार पर है. पार्टी की राजनीतिक शक्ति आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और ओड़िशा सहित कई राज्यों में बरकरार है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि अपनी इस शक्ति को एकजुट कर राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए पार्टी कौन सी राह चुनती है.
आज के ‘संडे इश्यू’ में कांग्रेस के हाशिये पर पहुंचने के कारकों और आगे की राह में उसके लिए मौजूद संभावनाओं एवं चुनौतियों पर नजर डाल रहे हैं कुछ जानेमाने विश्लेषक…
जिम्मेवारी लेने के लिए कोई नेता तैयार नहीं
अंजनी कुमार सिंह
वर्ष 2014 के आम चुनाव में ऐतिहासिक हार के बाद, विभिन्न विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस लगातार हाशिये पर जा रही है. अभी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने केरल और असम जैसे बड़े राज्यों में अपनी सत्ता गंवा दी और पुद्दुचेरी जैसे केंद्रशासित प्रदेश से उसे संतोष करना पड़ा है. लेकिन, इस हार की जिम्मेवारी लेने के लिए कोई नेता तैयार नहीं है. ज्यादातर वरिष्ठ नेता चुप हैं. हालांिक, महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि अब कांग्रेस को आत्ममंथन की नहीं, बल्कि सर्जरी की जरूरत है, लेकिन इस सर्जरी की जिम्मेवारी भी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर ही छोड़ दी है. इससे साफ है कि हार के लिए जिम्मवार नेताओं का नाम लेने में वरिष्ठ नेता हिचक रहे हैं.
2014 के बाद कांग्रेस महाराष्ट्र, हरियाणा, केरल, असम में अपनी सत्ता गंवा चुकी है. बिहार में कांग्रेस को अपने सहयोगी दलों- राजद और जदयू- के सहयोग से कुछ सीटें मिली हैं, जिसे कांग्रेस की उपलब्धि या उसकी मजबूती नहीं माना जा सकता है. जिस तरह से कांग्रेस राज्यों की सत्ता से बाहर होती जा रही है और अलग-अलग क्षेत्रीय दल भाजपा को चुनौती दे रहे हैं, उससे साफ है कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए गैर भाजपा दलों की अगुवाई करना भी मुश्किल होगा.
कांग्रेस के समक्ष नेतृत्व का संकट भी है. पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी राहुल गांधी को सौंपने की बात हो रही है, लेकिन इसे लेकर वरिष्ठ नेताओं की राय अलग-अलग है. कई नेता सोनिया गांधी के ही अध्यक्ष पद पर बने रहने की वकालत कर रहे हैं, तो कुछ तत्काल राहुल गांधी को यह पद देने की मांग कर रहे हैं.
इस बीच समय-समय पर प्रियंका गांधी को भी लाने की बात होती रहती है. हालांकि, पिछले तीन साल से सोनिया और राहुल के नेतृत्व में पार्टी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा है. ऐसे में पार्टी को अभी एक करिश्माई नेता की जरूरत है. पार्टी में पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच की दरार को पाटने की कोशिशों का कोई उत्साहजनक परिणाम भी नहीं मिला है.
कांग्रेस में अब क्षेत्रीय स्तर पर भी मजबूत नेताओं की कमी है. कांग्रेस के पुराने सहयोगी या कांग्रेस से निकले नेता कई राज्यों में सत्ता में हैं, तो कई राज्यों में विपक्ष में. जानकार बताते हैं कि अगर कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर एकबार फिर अपनी पहचान बनानी है, तो क्षेत्रीय स्तर के मजबूत नेताओं को आगे बढ़ाना होगा. उन नेताओं से भी संपर्क करना चाहिए, जो नेता किसी अन्य कारणों से कांग्रेस से दूर चले गये है.
कांग्रेस के कई नेता स्वीकार करते हैं कि यदि असम में कांग्रेस गंठबंधन के तहत चुनाव मैदान में उतरती, तो परिणाम बेहतर होता. जाहिर है, पार्टी को सहयोगी दलों पर भरोसा करते हुए उदारता का परिचय देना होगा, तभी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस खुद को स्थापित करने में सफल हो पायेगी.
एक सशक्त नेतृत्व है जरूरी
परंजॉय गुहा ठाकुरता
संपादक, इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (इपीडब्ल्यू)
इस हकीकत से कोई इनकार नहीं कर सकता कि कांग्रेस अब बहुत ही कमजोर हो चुकी है. ज्यादातर बड़े राज्यों में पार्टी सिमट चुकी है. बड़े राज्यों में से केवल कर्नाटक ही उसके पास बचा है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चे के साथ गंठबंधन के चलते कांग्रेस को थोड़ा-बहुत फायदा मिला. बाकी राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा.
असम में 15 साल से तरुण गोगोई के नेतृत्व में सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है, फिर भी राज्य में उसका वोट शेयर भाजपा से ज्यादा है. यहां कांग्रेस की कमजोरी यह थी कि वह किसी दल के साथ मजबूत गंठबंधन नहीं बना सकी. तालमेल की कमी कांग्रेस के लिए असफलता का कारण बनी. बदरुद्दीन अजमल की एआइयूडीएफ के साथ कांग्रेस तालमेल बना सकती थी. यहां कांग्रेस का वोट बिखर गया, उसका फायदा भाजपा और अन्य पार्टियों को मिला. इस बार असम में कांग्रेस को मुसलिम वोट नहीं मिल पाया. इसका फायदा क्षेत्रीय पार्टियों और भाजपा को मिला.
पश्चिम बंगाल के नतीजों को देखें तो यहां वाममोर्चे के साथ गंठबंधन का फायदा कांग्रेस को मिला, लेकिन वाममोर्चे को काफी नुकसान उठाना पड़ा. बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी ने अपना अच्छा प्रदर्शन बरकरार रखा.
कांग्रेस और वाममोर्चा गंठबंधन टीएमसी के वोटरों तक अपनी बात पहुंचा पाने में कामयाब नहीं हो सके. केरल में वाममोर्चा मजबूत होकर उभरा. यहां ओमान चांडी के नेतृत्व में कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा. एलडीएफ कांग्रेस की कमजोरियों का फायदा उठा कर सत्ता तक पहुंचने में कामयाब रही. तमिलनाडु में कांग्रेस पहले से ही कमजोर है.
इन चार राज्यों के अलावा पूरे देश में कांग्रेस की स्थिति पर फिर से विचार करने की जरूरत है. क्षेत्रीय पार्टियों का रुख भी कांग्रेस के प्रति निराशाजनक है, उनका मानना है कि यदि हम कांग्रेस के साथ जायेंगे भी, तो हमें फायदा नहीं होगा.
नतीजों के बाद कांग्रेस में किस तरह की निराशा व्याप्त है, उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने कह दिया है कि यह समय आत्ममंथन करने का नहीं, बल्कि बड़े स्तर पर बदलाव करने का है.
कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने की है. पहले तो यह जानना होगा कि राहुल गांधी आगे बढ़ कर पार्टी नेतृत्व की जिम्मेवारियां लेने के लिए तैयार हैं या नहीं. जब तक नेतृत्व को लेकर असंमजस बना रहेगा, कांग्रेस का भला नहीं हो सकता है. इससे असफलता का यह क्रम लगातार बना ही रहेगा. कांग्रेस नेतृत्व को तय करना है कि आगे रणनीति किस प्रकार तय करनी है.
आगे पार्टी का भविष्य एक मजबूत नेतृत्व के निर्णय पर तय होना है. एक सशक्त नेतृत्व ही बचा सकता है पार्टी को और सिमटने से बचा सकता है. अनिश्चितता में रहना पार्टी के लिए घातक है. एक समय कांग्रेस का संगठन स्थानीय स्तर पर काफी मजबूत था. आज वह कहीं नहीं दिखता. असम में स्थानीय स्तर पर कमजोर होते जाना ही हार का कारण बना. कांग्रेस को पूरे देश में फिर से अपनी ऊर्जावान टीम तैयार करनी होगी, पार्टी तभी फिर से खड़ी हो पायेगी.
(बातचीत पर आधारित)
नेतृत्व परिवर्तन काफी नहीं
विनोद शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
कांग्रेस की मौजूदा स्थिति पर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ‘बड़ी सर्जरी’ की बात कही है. लेकिन, उनका इशारा जिस तरह की सर्जरी की तरफ है, उसका अब जमाना नहीं रहा. यदि पार्टी को सही ढंग से चलाना है, तो कांग्रेस को प्रांतों में नये सिरे से योग्य सिपहसालार खड़े करने पड़ेंगे.
इन सिपहसालारों को मेरिट के आधार पर, काम के आधार पर और सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर चुनना होगा. इस समय कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह अपनी सोशल इंजीनियरिंग भूल गयी है. आज कांग्रेस के पास कोई सामाजिक गंठबंधन नहीं हैं. जिस पार्टी के पास सोशल एलायंस नहीं है, यदि वह शीर्ष स्तर पर किसी दूसरी पार्टी के साथ गंठबंधन कर भी ले, तो भी उसका लाभ पार्टी को नहीं मिल पाता है. इसकी मिसाल आपने पश्चिम बंगाल देखी. वहां कांग्रेस का लेफ्ट के साथ गंंठबंधन था. ऐसा ही गंठबंधन डीएमके साथ भी था, हालांकि डीएमके साथ इनका पहले भी गंठबंधन होता रहा है.
कांग्रेस के जो आधार वोटर रहे हैं, उन पर पार्टी को पकड़ बनाने की जरूरत है. पार्टी का जो सोशल बेस- दलित, ब्राह्मण और मुसलमान- था, उसमें से किसी के भी वोट को वह हालिया चुनावों में अपनी तरफ नहीं कर पायी है.
अपने खोये सामाजिक आधार को फिर से हासिल करने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर जद्दोजहद करना होता है, लेकिन वह हौसला मुझे अब आम कांग्रेसियों में नजर नहीं आता. आम कांग्रेसी बहुत ही सुस्त हो चुका है. दूसरी ओर, कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों के कार्यकर्ता इस मामले में काफी मेहनत करते हैं. जाहिर है, कांग्रेस पार्टी जब तक जमीन पर आधार मजबूत करने के लिए मेहनत नहीं करेगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी. शीर्ष पर चेहरा बदल देने भर से कुछ नहीं होनेवाला.
अंगरेजी में कहावत है ‘देयर कैन नॉट बी ए जनरल बिदाउट फुट सोल्जर’ यानी जिस जनरल के पास सैनिक ही नहीं हैं, वह किस बात का जनरल है? कांग्रेस आज ऐसी पार्टी है, जिसके पास मजबूत युवा सिपाही नहीं रह गये हैं. जबकि, कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में ऐसे सिपाही मौजूद हैं. मिसाल के तौर भाजपा है, जिसके पास आरएसएस की फोर्स है और उसका पार्टी को फायदा मिलता है.
असम में आरएसएस ने जमीनी स्तर पर जो काम किया है, उसका फायदा भाजपा ने उठाया है. अब जीत के बाद सारी शोहरत अमित शाह को दी जा रही है, लेकिन अमित शाह ने वहां जाकर कोई बड़ा काम नहीं किया था.
मेरा मानना है कि यहां से आगे कांग्रेस के लिए राह यही है कि युवा पीढ़ी को साथ लेकर, एक सक्षम नेतृत्व के साथ उसे जनता के असली मुद्दे चुनने होंगे और उन पर जमीनी स्तर पर यानी लोगों के बीच जाकर काम करना होगा.
(बातचीत पर आधारित)