पश्चिम बंगाल में सबसे चर्चा में रहने वाला लेफ़्ट और कांग्रेस का गठबंधन, दोनों पार्टियों के लिए ही घातक बन गया और लोगों ने सीधे-सीधे उन्हें अस्वीकार कर अगले कार्यकाल के लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पूर्ण बहुमत दे दिया.
2016 के विधानसभा चुनावों के नतीजों का साफ़ संदेश है कि गठबंधन ज़मीनी स्तर पर बिल्कुल भी काम नहीं कर पाया.
हालांकि चुनाव प्रचार अभियान में दोनों पार्टियों के नेताओं ने दावा किया था कि यह ऊपर से नहीं लादा गया है, बल्कि निचले स्तर पर लोगों की ओर से बने दबाव का नतीजा है.
लेकिन चुनावी नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस समर्थकों ने इस फैसले को दिल से नहीं लिया. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने स्वीकार किया है कि एक तरफ कांग्रेस उम्मीदवारों को लेफ़्ट के मतदाताओं की ओर से मिले समर्थन से फायदा हुआ है, वहीं कांग्रेस के मतदाताओं का वोट अपने-अपने इलाक़ों में लेफ़्ट के उम्मीदवारों को नहीं मिल पाया.
कांग्रेसी नेता की यह स्वीकारोक्ति नतीजों में भी दिखाई देती है, क्योंकि उत्तरी बंगाल में कांग्रेस और लेफ़्ट गठबंधन ने अच्छी ख़ासी सीटें गंवाईं, जबकि उम्मीद की जा रही थी कि वो यहां से बड़ी संख्या में सीटें जीतेंगे.
सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के दबदबे वाले दक्षिणी बंगाल में कांग्रेस और लेफ़्ट दोनों को उम्मीद थी कि वो गठबंधन पर सवार होकर सेंध लगा लेंगे. लेकिन दक्षिण बंगाल के अधिकांश ज़िलों में दोनों साफ़ हो गए.
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि नतीजे दिखाते हैं कि एक तरफ़ कांग्रेस को लेफ़्ट की मदद से फायदा पहुंचा, भले ही थोड़ा ही सही, लेकिन लेफ़्ट को कुछ भी लाभ नहीं मिला.
अगर 2014 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर नज़र दौड़ाएं, तो लेफ़्ट और कांग्रेस 28 सीटों पर आगे थे. लेकिन, अब, 2016 में लेफ़्ट उतनी ही सीटों पर ठहर गया.
कांग्रेस को थोड़ी बहुत बढ़त के साथ 44 सीटें मिली हैं और लेफ़्ट को पीछे छोड़ते हुए विधानसभा में उसके मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की संभावना अधिक है.
इसके अलावा लेफ़्ट का मत प्रतिशत भी कम होकर 30 प्रतिशत से 26 प्रतिशत पर आ गया.
कांग्रेस का वोट प्रतिशत थोड़ा बढ़कर 9.9 प्रतिशत से 12.3 प्रतिशत हो गया है.
केरल में कांग्रेस लेफ़्ट के हाथों हार गई है और अब सत्ता से बाहर है. बंगाल में दोनों ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन बहुत बुरा प्रदर्शन किया.
लेकिन भाजपा की असम में जीत ने कांग्रेस के लिए थोड़ी शर्मिंदगी पैदा की है, जो कि कांग्रेस हाईकमान को ये सोचने पर मजबूर करेगा कि वो बीजेपी के ख़िलाफ़ संभावित सभी बड़े क्षेत्रीय नेताओं को एक बड़े फ़्रंट में शामिल करे.
बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश के साथ किया गया प्रयोग पहले ही सफल रहा है. उम्मीद की जा रही थी कि बंगाल में गठबंधन की सफलता इस फ़्रंट में लेफ़्ट को शामिल किए जाने में मदद करेगी.
लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस और लेफ़्ट के बहुत ही बुरे प्रदर्शन ने इस गठबंधन के बारे में गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
एक सोच ये भी है कि बंगाल में कांग्रेस, टीएमसी के साथ वापस जा सकती है और ममता के सामने बिना शर्त झुकते हुए नया गठबंधन बना सकती है.
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