सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में हरीश रावत की सरकार ने भले ही विश्वास मत हासिल कर लिया हो लेकिन उत्तराखंड की राजनीतिक रस्सा-कशी अभी ख़त्म नहीं हुई है.
जानकारों को लगता है कि जो कुछ हुआ वो उत्तराखंड की राजनीति में सिर्फ़ एक मोड़ ही था जबकि आने वाले दिनों में बहुत कुछ और होना बाक़ी है.
सवाल उठता है कि विश्वास मत जीतने के बाद अब कांग्रेस का अगला क़दम क्या हो सकता है?
हरीश रावत के खेमे में कुछ ज़्यादा ज़ोरशोर से इस लिए भी जश्न मनाया जा रहा है क्योंकि उन्होंने ने एक तीर से दो निशाने साधे हैं.
उन्होंने बहुमत साबित कर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को तो शिकस्त दी ही, साथ ही उन्होंने अपनी ही पार्टी के अंदर अपने विरोधियों को भी धराशायी कर दिया है.
जानकारों का कहना है कि अब अगले 6 महीनों तक उन्हें विधानसभा में दोबारा विश्वास मत हासिल करने की वैधानिक ज़रूरत नहीं होगी. इसका मतलब यह है कि अगले 6 महीनों तक हरीश रावत की सरकार पर कोई संकट नहीं है.
उत्तराखंड में अगले साल विधासभा के चुनाव होंगे और मौजूदा घटनाक्रम पर नज़र रखने वाले विश्लेषक कयास लगा रहे है कि हरीश रावत राज्यसभा के चुनाव के बाद विधानसभा को भंग करने की सिफारिश भी कर सकते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं कि ‘चूंकि बाज़ी कांग्रेस के पक्ष में पलट गई है इसलिए पार्टी इसको पूरी तरह से भुनाने की कोशिश करेगी.’
वह कहते हैं, "राज्य सभा के लिए अपने उम्मीदवार को जितवाने के बाद हरीश रावत विधानसभा को भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर सकते हैं. सारी परिस्थितियां उनके पक्ष में दिख रही हैं. अपने विरोधियों पर जीत तो वो हासिल कर ही चुके हैं."
रशीद किदवई का मानना है- "पार्टी के अंदर उनके (रावत के) विरोधी भी अब किनारे लग चुके हैं. उत्तराखंड में अब ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं है जो हरीश रावत को आने वाले दिनों में चुनौती दे सकता हो."
बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने जब विश्वास मत के आंकड़ों की घोषणा की थी, तो हरीश रावत ने पत्रकारों से बात करते हुए केंद्र के साथ मिलकर चलने की बात कही थी.
रशीद किदवई कहते हैं कि हरीश रावत एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं और वो जानते हैं कि कब किस तरह के बयान देने की ज़रूरत है.
अब सवाल उठता है कि कांग्रेस के उन नौ बाग़ी विधायकों का भविष्य आखिर क्या होगा भाजपा का साथ दिया?
संघ परिवार से जुड़े संदीप महापात्र का कहना है कि अब उनका भविष्य सुप्रीम कोर्ट ही तय करेगा.
हालांकि संदीप महापात्र का कहना था कि ‘राज्य की सर्वोच्च पंचायत यानी विधानसभा में विश्वासमत सुप्रीम कोर्ट के प्रतिनिधि की देखरख में होना भी संवैधानिक रूप से ग़लत है.’
संदीप महापात्र कहते हैं- ‘यह पहली बार हुआ है जब अदालत के प्रतिनिधि ने किसी विधानसभा का विश्वासमत अपनी देखरख में कराया हो और विधानसभा के अध्यक्ष को इससे दूर रखा गया हो. वैसे यही मौक़ा है जब विधानसभा के अध्यक्षों के आचरण और उनके अधिकारों पर भी बहस होनी चाहिए और उनकी सीमाएं निर्धारित की जानी चाहिए."
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