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एक आदमी ने 16000 लोगों का जीवन बदल दिया

-अजय- डॉ एचआर सुदर्शन, छह भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं. इस कारण जब वह हिमालय की ओर गये तो उनकी मां का चिंतित होना स्वभाविक था. मां विधवा थीं. सुदर्शन जब 12 वर्ष के थे, तब उनकी गोद में ही उनके पिता ने दम तोड़ा. दवा-चिकित्सा के अभाव में. उसी क्षण डॉ सुदर्शन ने डॉक्टर […]

-अजय-

डॉ एचआर सुदर्शन, छह भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं. इस कारण जब वह हिमालय की ओर गये तो उनकी मां का चिंतित होना स्वभाविक था. मां विधवा थीं. सुदर्शन जब 12 वर्ष के थे, तब उनकी गोद में ही उनके पिता ने दम तोड़ा. दवा-चिकित्सा के अभाव में. उसी क्षण डॉ सुदर्शन ने डॉक्टर बनने का संकल्प लिया. विद्यार्थी जीवन में विवेकानंद ने उन्हें आकर्षित किया. इस कारण वह आध्यात्म की ओर मुड़े, तो मां विचलित हुईं. बाकी भाई-बहनों का परवरिश कौन करेगा?
ठीक दो दशकों बाद डॉ सुदर्शन की मांग अब अपने बेटे पर फख्र करती हैं. धूम-धाम कर डॉ सुदर्शन कर्नाटक की बिलगारी रंगा पहाडि़यों में जा बसे. गरीब सोलिगा आदिवासियों के बीच. शताब्दियों से अलग-थलग रहनेवाली पहाड़ी आबादी के जीवन में डॉ सुदर्शन के प्रयास से अदभुत गुणात्मक परिवर्तन हुए हैं. स्वीडेन की मशहूर संस्था ‘राइट लिवडीहुड फाउंडेशन’ ने इस वर्ष उन्हें पुरस्कृत करने के लिए चुना है. जो उन्हें जानते हैं, उन्हें इससे आश्चर्य नहीं हुआ.

दुनिया स्तर पर तीन लोग इस पुरस्कार के लिए चुने गये, उनमें से एक हैं डॉ सुदर्शन. इस पुरस्कार को ‘वैकल्पिक नोबुल प्राइज’ भी कहा जाता है. 1980 में स्वीडेन के लेखक जैकॉब वान उक्सेकुल ने स्थापित किया. इस पुरस्कार का मकसद तय किया गया कि पश्चिमी विज्ञान, तकनीक और सामाजिक मूल्यों पर आधारित धरती की प्राकृतिक संपदा को अंधाधुंध विनष्ट करने के प्रयास के विपरीत, तात्कालिक भौतिक उपलब्धियों को नकार कर जो काम करें, उन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाये.

डॉ सुदर्शन को विवेकानंद ने प्रेरित किया. पहले उन्होंने मायावली स्थित रामकृष्ण मिशन हेल्थ प्रोजेक्ट में काम किया. फिर बेलूर मठ, कलकत्ता में. फिर कर्नाटक के कुर्ग जिले के पोतांपेट में. 1979 में वह बिलगारी रंगा पहाडि़यों में गये, जहां बस गये. वह याद करते हैं, ‘विवेकानंद द्वारा दिखाये रास्ते पर चलने की प्रेरणा के कारण मैं बहुत घूमा. कई जगहों पर गया. लेकिन बिलगारी पहाड़ियों पर पहुंच कर लगा कि जिन लोगों के बीच मैं सेवा करना चाहता था, वह यही हैं’
कर्नाटक की सबसे पिछड़ी जातियों में से सोलिगा आदिवासी हैं. वह घने जंगलों में रहते हैं. सड़क और यातायत की पहुंच से बाहर, डॉ सुदर्शन कहते हैं कि इन आदिवासियों से आत्मीय रिश्ता बनाने में बड़ा समय लगा. यह सबसे कठिन और चुनौती भरा काम था. धीरे-धीरे उनसे तालमेल बढ़ा. सांप काटने और चर्म रोग से इनके बच्चे सबसे अधिक मरते हैं. वहीं येलेंदुर में उन्होंने एक झोपड़ी डाली और उसे अस्पताल में तब्दील कर दिया. धीरे-धीरे वह चिकित्सा केंद्र मशहूर हो गया.
पर डॉ सुदर्शन को लगा कि सिर्फ चिकित्सा सुविधा अपर्याप्त है. सोलिगा आदिवासियों के बच्चे स्कूल नहीं जाते थे. जंगल के ठेकेदार लोगों का शोषण करते थे. 1971 के जंगल अधिनियम ने इन आदिवासियों की स्थिति को और बदतर बना दिया. उन्हें जंगल उत्पादों के नैसर्गिक हक से वंचित कर दिया गया. तब आहत होकर डॉ सुदर्शन ने कुछ मित्रों की सहायता से विवेकानंद गिरिजन कल्याण केंद्र स्थापित किया. कुछ ही समय में 10 बिस्तरों वाला एक अस्पताल तैयार किया गया. दो चलंत एंबुलेंस काम करने लगे.
1987 में इन आदिवासियों के बीच से कुष्ठ उन्मूलन का काम भी डॉ सुदर्शन ने आरंभ किया. राज्य सरकार ने इस काम में भरपूर सहयोग किया. डॉ सुदर्शन द्वारा स्थापित ‘करुणा’ ट्रस्ट को येलेंदुर ताल्लुका से संपूर्ण कुष्ठ उन्मूलन का कार्य मिला. डॉ एमएस नीलकंठ राश जैसे लोगों का सहयोग मिला. फलस्वरूप कुष्ठ रोग 21 फीसदी से घट कर इस इलाके में .39 फीसदी हो गया. तपेदिक व अन्य गंभीर बीमारियां भी इन आदिवासियों के बीच थीं. अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त डॉक्टर केएस मणि का भी डॉ सुदर्शन को इन कार्यों में सहयोग मिला.
तब उन्हें लगा कि स्वास्थ्य के अलावा शिक्षा जरूरी है. परंपरागत शिक्षा व्यवस्था का कोई असर नहीं था. डॉ सुदर्शन ने आरंभ में अनौपचारिक पाठशाला आरंभ किया. वहां स्वास्थ्य, जंगल, पेड़-पौधों के बारे में पढ़ाई होने लगी. डॉ सुदर्शन कहते हैं कि यह देख कर विशेषज्ञ भी हतप्रभ थे कि साधारण बच्चे भी 200-300 पेड़-पौधों के नाम जानते थे. सोलिंगा लिपि में किताबें तैयार करवायी गयीं. आज वह स्कूल काफी सफल हो चुका है. सेकेंड्री स्तर की पढ़ाई होती है. 500 विद्यार्थी हैं. काफी विद्यार्थी पढ़ कर बाहर जा चुके हैं. डॉ सुदर्शन ने रोजगारोन्मुख प्रशिक्षण की व्यवस्था करायी है.

बुनाई, नारियल रस्सा बनाने का काम, सिलाई, कुटीर उद्याग, बढ़ईगीरी, प्रेस में छपाई, मधुमक्खी पालन वगैरह के प्रशिक्षण दिये जाते हैं. उन चीजों की बिक्री के लिए एक को-ऑपरेटिव बनायी गयी है. 16000 आदिवासी इस संस्था के तहत कार्यरत हैं. जड़ी-बूटियों के पार्क खुले हैं. रोजाना पांच रुपये कमानेवाला आदिवासी अब प्रतिदिन 200 रुपये तक कमा रहे हैं.

डॉ सुदर्शन कहते हैं कि जंगल का नाश तो ठेकेदार-स्मगलर कर रहे हैं. आदिवासी नहीं. पर सरकार की अब तक नीति रही है. आदिवासियों को ही दोषी ठहराने की. इस कारण उन्हें उनके परंपरागत प्राकृतिक परिवेशन से हटाया जा रहा है. इस कारण जंगल असुरक्षित हो रहे हैं.

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