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सेवा ही मानवता का मूलमंत्र

बल्देव भाई शर्मा कई साल पहले एक फिल्म आयी थी ‘सुर संगम’. एक संगीत साधक की बड़ी मार्मिक कथा का उसमें चित्रण है. गिरीश कर्नाड और जयाप्रदा इस फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे. फिल्म के सभी गानों का संगीत तो कर्णप्रिय है ही, शब्द संयोजन भी बड़ा ही हृदयस्पर्शी है. ऐसा ही एक गाना […]

बल्देव भाई शर्मा
कई साल पहले एक फिल्म आयी थी ‘सुर संगम’. एक संगीत साधक की बड़ी मार्मिक कथा का उसमें चित्रण है. गिरीश कर्नाड और जयाप्रदा इस फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे.
फिल्म के सभी गानों का संगीत तो कर्णप्रिय है ही, शब्द संयोजन भी बड़ा ही हृदयस्पर्शी है. ऐसा ही एक गाना है- ‘धन्य भाग सेवा का अवसर पाया, चरण कमल की धूल बना मैं मोक्ष द्वार तक आया’. इस गाने में सेवा का ऐसा अद्भुत महात्म्य दर्शाया गया है जो शायद ही अन्य कहीं वर्णित हो. सेवा के दो महत्वपूर्ण पहलुओं पर इसमें जोर दिया गया है.
एक सेवा वही सच्ची और सार्थक है जिसमें अहंकार और कर्ताभाव का विलीनीकरण होकर सेवा करते हुए पैरों की धूल बन जाने जैसा अति विनम्र और कृतज्ञ भाव उत्पन्न हो जाय और दूसरा जब सेवक भाव इस स्तर तक पहुंच जाता है तो न चाहते हुए भी सेवा करने वाला व्यक्ति मोक्ष के द्वार तक पहुंच जाता है. चरणों की धूल बनने से मोक्ष के द्वार तक पहुंचने की प्रक्रिया भारत की मानवीय संवेदनाओं से युक्त जीवन दृष्टि का उत्स है. यह दृष्टि ही हमारे विचार और व्यवहार को ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसी उदात्त भावना तक ले जाती है.
इसलिए हमारे शास्त्रकारों ने कहा ‘सेवा ही परमोधर्म:’. यह विडंबना ही है कि जिस देश में सेवा की ऐसी उच्च भावना रही हो, वहां सेवा निस्पृहभाव के बजाय कभी धोखे का रूप लेकर प्रकट होती है या कभी बदले में नाम-दाम सम्मान की चाह बन कर. ऐसी सेवा का कोई अर्थ नहीं है जो किसी भी तरह की लालसा, यहां तक कि किसी पर उपकार की भावना से भी की जाये.
शायद इसलिए पिछले अनेक वर्षों में सेवा के नाम पर उग आये देसी-विदेशी स्वयंसेवी संगठनों पर भी सवालिया निशान लगने लगे. देखा जाय तो इन अर्थों में सेवा मानो एक खूब फलता-फूलता व्यवसाय ही बन गया है. यहां तक कि सेवा ‘करोगे तो मेवा मिलेगी’ जैसी उक्ति भी नकारात्मक अर्थ में प्रयोग की जाने लगी है.
सेवा की भावना भारतीय संस्कृति और जीवन दर्शन का आधारभूत तत्व है. इसलिए हमारे पुराणों-उपनिषदों आदि ग्रंथों में कितनी ही कथाएं, कितने ही आख्यान मिलते हैं जो सेवा की प्रेरणा देते हैं. ऐसा ही एक कथानक है राजा रंतिदेव के जीवन को जो बड़े प्रजावत्सल और सेवाव्रती सम्राट हुए. आज की राजनीति जिस तरह सत्तालोलुप होती जा रही है, जहां सेवा अपना घर भरने की ही प्रक्रिया जैसी बन गयी है वहां प्रजाजनों के लिए भूख-प्यास से तड़पते हुए अपने प्राण देने तक को तत्पर रंतिदेव सेवा का मूर्तिमंत आदर्श है.
विष्णु भक्त रंतिदेव का राज्य शांति और समृद्धि के साथ खूब फल-फूल रहा था. एक बार देवताओं ने विष्णु से पूछा आप अपना सर्वश्रेष्ठ भक्त किसको मानते हैं. विष्णु ने तपाक से उत्तर दिया रंतिदेव को. इसे सुन कर इंद्र आदि देवों का देवत्व आहत हो गया कि विष्णु की भक्ति में एक मनुष्य देवों से श्रेष्ठ कैसे हो सकता है.
उन्होंने रंतिदेव की परीक्षा लेने का मायाजाल रचा और राज्य में आंधी-बारिश का भीषण प्रकोप हो गया. सारी फसल धन-धान्य नष्ट हो गया. यह देख राजा ने अपने खजाने और भंडार प्रजा के लिए खोल दिये लेकिन वह भी नाकाफी रहे. आखिरकार प्रजा भूख से व्याकुल हो मृत्यु के कगार पर पहुंचने लगी.
रंतिदेव से प्रजा का यह दु:ख देखा नहीं गया. वह बड़े विह्वल हो गये. अपने आराध्य विष्णु से लगातार प्रार्थना करने लगे कि प्रभु यह कैसा संकट है जो खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. मैं राजा होकर भी प्रजा को खुशहाल रखने की अपनी जिम्मेदारी निभाने में खुद को बेबस पा रहा हूं. राजा ने विष्णु को प्रसन्न करने के लिए उपवास शुरू कर दिया. अन्न-जल त्याग दिया.
दिन-रात ‘विष्णु-विष्णु’ का जाप करते हुए बिना कुछ खाये-पीये 48 दिन बीत गये. तब राजा को मरणासन्न देख कर मंत्रिपरिषद चिंतित होने लगी. सबने मिल कर राजा से अनुरोध किया कि जीवन चला गया तो सेवा का व्रत भी टूट जायेगा. तब प्रजा का क्या होगा.
इसलिए थोड़ा कुछ खा-पी लीजिए. राजा ने भी कुछ विचार कर खाने की अनुमति दे दी. जैसे ही थाली सामने लायी गयी किसी का आर्तनाद सुनाई पड़ा. देखा तो भूख से व्याकुल एक भिक्षु था. राजा ने थाली में एक भाग अन्न निकाल कर उसे दिया, वह तृप्त होकर धन्यवाद देकर चला गया. उसी तरह दो और भूख से पीड़ित लोग आ गये और रंतिदेव की थाली का सारा भोजन बंट गया.
अंत में बचा हुआ पानी पीने के लिए राजा ने जैसे ही पात्र उठाया, सामने एक चांडाल आ गया. प्यास से तड़पता हुआ राजा ने वह पात्र उसे देना चाहा जबकि भूख-प्यास से स्वयं राजा के प्राण गले में अटके थे. राजा बमुश्किल मंत्रियों का सहारा लेकर चांडाल को पानी पिलाने के लिए उठा तो देखता है कि सामने चांडाल की जगह तो भगवान विष्णु खड़े है और आसपास इंद्र आदि देवगण.
रंतिदेव विह्वल होकर भगवान के चरणों में गिर पड़े. विष्णु ने उसे उठा कर गले से लगा लिया और कहा कि यह सब तुम्हारी सेवा भावना और भक्ति की परीक्षा थी. चांडाल मैं था और भूख से व्याकुल जिन लोगों को तुमने अपना भोजन देकर अपना जीवन दांव पर लगा दिया वे इंद्र व अन्य देवता थे. तुम धन्य हो और मानव जीवन के आदर्श हो. तुम्हारा राज्य और फले-फूलेगा, प्रजा को कोई कष्ट नहीं होगा. देवता भी लज्जित हुए और उन्होंने रंतिदेव व विष्णु भगवान से माया रचने के लिए क्षमा मांगी. रंतिदेव परीक्षा में सफल हुए.
विष्णु ने प्रसन्न होकर कहा कि मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करता हूं. लेकिन रंतिदेव ने जो कहा वह मानव जाति के लिए बेमिसाल संदेश था. रंतिदेव ने बड़े विनम्र भाव से विष्णु के वरदान को स्वीकार करने के बजाय कहा ‘न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं न पुनर्भवम/कामये दुखतप्तानां प्राणिनाभार्तनाशनम्’. है प्रभु न तो मुझे राज्य चाहिए, न स्वर्ग और न मोक्ष. मैं तो बस इतना चाहता हूं कि जहां कहीं भी किसी प्राणी को दु:ख हो, क्लेश हो तो दौड़ कर वहां जाऊं और सेवा भाव से उसकी पीड़ा दूर कर सकूं. मेरी यह कामना आप पूर्ण करो.
विष्णु तथास्तु कह कर अंत:ध्यान हो गये और देवगण धन्य-धन्य कह कर रंतिदेव की स्तुति करने लगे. यह है राजा और सेवा का आदर्श. रंतिदेव की कथा यदि भारत की शासन-व्यवस्था व सरकारों को जरा सी भी प्रेरणा दे पाती तो करीब 70 वर्षों की स्वाधीनता के बाद भी देश के लाखों किसान भूख से नहीं मरते और बड़ी आबादी पानी के लिए त्राहि-त्राहि न कर रही होती.
भारतीय वाङ्गमय के ये आख्यान सिर्फ कहानियां भर नहीं हैं, बल्कि जीवन के प्रेरणा बिंदु हैं जहां खड़े होकर हम मनुष्यता को अभिषिक्त कर सकते हैं और एक स्वर्ग से भी सुंदर, सुखदायी संसार रच सकते हैं. बस शर्त यह हैं कि सेवा ढोंग न रहे और न सेवा के नाम पर मेवा बटोरने की लालसा.

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