बात 11 साल पहले की है. भारत प्रशासित कश्मीर के ग़ुलाम हसन कई दिन बाद जब घर लौटे, तो उनके घर का कहीं नामोनिशान तक नहीं था और न उनके घर का कोई शख़्स नज़र आ रहा था.
उन्होंने कुछ देखा तो सिर्फ़ बर्फ़ के पहाड़ और लाशें. एक तरफ़ लाशों को बर्फ़ से निकाला जा रहा था तो दूसरी तरफ़ दफ़न किया जा रहा था. हर तरफ अफ़रातफ़री थी.
बात साल 2005 की है, जब पीर पंजाल पहाड़ी के दामन में आबाद उनके गांव वलटेंगु नार में हिमस्खलन हुआ था. ग़ुलाम हसन ख़ान के परिवार के 11 लोग बर्फ़ में दबकर मारे गए थे.
पिछले दिनों भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में हिमस्खलन के कारण नौ भारतीय सैनिकों की मौत हो गई थी. इसलिए ऐसा नहीं कि कश्मीर में हिमस्खलन के शिकार सिर्फ़ बर्फ़ीली पहाड़ियों की ऊंचाई पर ड्यूटी देने वाले सैनिक ही हैं बल्कि आम लोग भी इसके आगे बेबस हैं.
भारत प्रशासित कश्मीर घाटी के गुरेज़, केरन, कुपवाड़ा, कुलगाम, बारमुला, अनंतनाग, शोपियाँ और लद्दाख क्षेत्र में करगिल और द्रास में हिमस्खलन की आशंका रहती है और ज़िंदगी वहां दूभर होती है.
ग़ुलाम हिमस्खलन वाले दिन को याद करते हैं, "मैं सिर्फ़ अपनी माँ का चेहरा देख पाया था. वह भी एक महीने के बाद जब बर्फ़ से उनका शव निकाला गया. उस हादसे ने तो हम सबको तोड़कर रख दिया."
वलटेंगु नार समंदर की सतह से क़रीब 7,500 फ़ीट की ऊंचाई पर है. इस इलाक़े में न्यूनतम तापमान शून्य से 12 डिग्री नीचे रहता है.
वलटेंगु पीड़ित एसोसिएशन के मुखिया बशीर अहमद के परिवार के 19 लोगों की मौत हुई थी, जिनमें उनके छह बच्चे भी थे.
बशीर अहमद के मुताबिक़ उन्हें खाने-पीने की चीज़ें लाने के लिए अपने घर क़रीब छह किलोमीटर का सफ़र तय करना पड़ता है.
वे कहते हैं, "अगर हमको 10 रुपए का साबुन लाना होता है तो हमें मीलों दूर जाकर ख़रीदना पड़ता है और 10 रुपये गाड़ी का किराया देना पड़ता है. पूरे गांवों में दो-तीन घरों के अलावा किसी के पास गैस चूल्हा नहीं है. किसी को आज तक कनेक्शन मिला नहीं."
ऐसे इलाक़ों में ज़िंदगी काफ़ी मुश्किल रहती है. गुरेज़ घाटी श्रीनगर से 123 किलोमीटर दूर है और भारी बर्फ़बारी की वजह से यहां के लोगों का दुनिया से सड़क संपर्क महीनों तक कटा रहता है.
गुरेज़ घाटी समंदरी सतह से 8,000 फ़ीट ऊपर है. सख़्त मौसमी हालात से बचने के लिए यहां के लोगों को कई महीने श्रीनगर रहना पड़ता है.
यहां का तापमान सर्दियों में -15 तक चला जाता है और कई इलाक़ों में 10-15 फ़ीट तक बर्फ़ पड़ती है.
नवाज़ अहमद चटक का परिवार भी पांच महीने से श्रीनगर में है. वह बताते हैं, "हमारे इलाक़े के छह महीने की ज़िंदगी जेल की तरह होती है. इनमें हम अपने इलाक़े से बाहर नहीं जा पाते.”
”बिजली सिर्फ़ चार-पांच घंटे होती है. हिमस्खलन का डर हर वक़्त रहता है. ऐसे भी लोग हैं जो हमसे भी ज़्यादा ऊंचाई पर रहते हैं. अगर उनके यहां कोई बीमार होता है, तो उसे अस्पताल लाने में कई दिन लग जाते हैं. बर्फ़ इतनी होती है कि उसमें चलना आसान नहीं होता."
श्रीनगर में रहने वाले डॉक्टर निसार उल हसन बताते हैं, "आज 21वीं सदी में भी इन पहाड़ी इलाक़ों में टीबी के मामले सामने आ जाते हैं, जबकि यह बीमारी विकसित देशों में लगभग ख़त्म हो चुकी है. दूसरी बीमारी इन लोगों को सीने की होती है जिसे क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव लंग डिज़ीज़ कहते हैं. सख़्त मौसम में इनको ऑक्सीजन की कमी रहती है. जब प्राकृतिक आपदा आती है तो इनको उठाने वाला भी कोई नहीं होता. ऐसे इलाके में न अस्पताल होता है और न डॉक्टर."
कश्मीर की 25 साल की सफ़ीना तब सिर्फ़ 13 साल की थीं जब उनके गाँव में हिमस्खलन हुआ था. वह आज भी ज़हनी तौर पर दहशत में जीती हैं और इस इलाक़े में नहीं रहना चाहतीं क्योंकि अब उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं.
उनका कहना है, "मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं, मैं इनको कैसे बचाऊँगी?"
कश्मीर घाटी और लद्दाख में नवंबर से मार्च तक बर्फ़बारी होती है और इस दौरान कश्मीर के इन लोगों को हिमस्खलन के खौफ़ के साए में रहना पड़ता है.
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