17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

मीडिया कवरेज से महरूम केरल की खामोश हत्याएं

केरल अब राजनीतिक हिंसा और हत्या के लिए भी जाना जाने लगा है. सीपीएम और आरएसएस के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें बढ़ती जा रही हैं. केरल में मानवाधिकारों के इस लगातार हनन पर खामोशी छाई हुई है. पढ़िए, विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगे केरल की राजनीतिक हिंसा पर एक रिपोर्ट. अद्वैता काला शायद […]

केरल अब राजनीतिक हिंसा और हत्या के लिए भी जाना जाने लगा है. सीपीएम और आरएसएस के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़पें बढ़ती जा रही हैं. केरल में मानवाधिकारों के इस लगातार हनन पर खामोशी छाई हुई है. पढ़िए, विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगे केरल की राजनीतिक हिंसा पर एक रिपोर्ट.

अद्वैता काला

शायद आपने सदानंद मास्टर के बारे में न सुना हो. 1994 की एक काली रात जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने केरल के इस स्कूल मास्टर को एक बस से खींच कर अत्यंत क्रूर और अमानवीय ढंग से उनकी हत्या कर दी, तब कुछ ही दिनों बाद उनकी बहन के हाथ पीले होनेवाले थे.

संभवतः आपने सुजीत अथवा उनकी मौत के विषय में भी न सुना हो. पिछले महीने जिस हफ्ते कन्हैया कुमार बोलने की आजादी के प्रतीक बन कर उभरे, उसी हफ्ते आरएसएस के युवा कार्यकर्ता सुजीत को उनके घर से खींच कर माता-पिता तथा मानसिक रूप से विकलांग भाई के सामने ही मार डाला गया. रात के सन्नाटे में जब उनकी करुण चीखें गूंज रही थीं, दिल्ली से कन्हैया के भाषण का प्रसारण हो रहा था और संसद में सीपीएम आजादी से बोलने के उनके अधिकारों की दुहाई दे रही थी.

सुजीत की हत्या के कुछ ही दिनों बाद आरएसएस के ही बीजू नामक एक युवा ऑटोचालक पर उस वक्त हमला किया गया, जब वह स्कूली बच्चों को ले जा रहा था.

बीजू को मौत का इंतजार और बच्चों को आतंक का सामना करते हुए छोड़ हमलावर वहां से चलते बने. 1999 में इसी तरह जब कक्षा में ही 40 बच्चों के सामने जयकृष्णन मास्टर की हत्या कर दी गयी, तो आतंकित होने के बाद भी उनमें से एक छोटे बच्चे ने एक प्रमुख हत्यारे की पहचान बतायी, जो सीपीएम का ही कार्यकर्ता निकला.

ये हत्याएं कुछ छिटपुट घटनाएं या भीड़ के वैसे क्रोध की अभिव्यक्ति नहीं थीं, जिसे कन्हैया ने 1984 के सिख दंगों की वजह बताया. ये उद्देश्यपरक हमले थे और इनका एक इतिहास भी है, हालांकि वह ज्यादातर जुबानी ही है. इसके लिए 28 अप्रैल, 1969 तक पीछे लौटना होगा, जब इस तरह की पहली घटना के तहत घर लौटने के रास्ते में आरएसएस के कार्यकर्ता वदिक्कल रामकृष्णन की हत्या कर दी गयी. उनका अपराध? उन्होंने पार्टी से पाला बदल लिया था और यही इन घटनाओं की सतत पृष्ठभूमि है. जिन्होंने पार्टी से ‘विश्वासघात’ किया, वे ‘हिटलिस्ट’ में सबसे ऊपर रहे.

केरल में पार्टी के दबदबे वाले गांवों में थोपे गये सिद्धांतों का निजाम चलता है, जहां मार्क्सवाद से विचलित होनेवाले लोगों को न्यूनतम सजा उनके घरों के कुओं में मैला और कचरा फेंक कर दी जाती है. यहां हर गुजरते दशक के लिए एक कब्र ही मील का पत्थर है. 1970 के दशक के लिए यह नाम पंनुंदा चंद्रन नामक एक छात्र का है, आरएसएस की एक शाखा के दौरान ही जिसकी हत्या कर दी गयी थी और इसकी वजह इमरजेंसी के दौर में आरएसएस द्वारा किये गये उसके विरोध के चलते उसके समर्थन में आयी उछाल थी. दरअसल, इमरजेंसी का प्रतिरोध करते हुए जब सीपीएम और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को केरल की जेलों में

डाला गया, तो कई मार्क्सवादी कार्यकर्ताओं ने संघ से प्रभावित हो उसकी सदस्यता स्वीकार कर ली और वहीं से यह प्रतिद्वंद्विता परवान चढ़ी.

तब से ऐसी घटनाएं बढ़ती ही चली गयीं. जब सरकार ने इनमें हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, तो फिर ये एकतरफा नहीं रहीं और बदले की कार्रवाई भी होने लगी. उसके बाद लगातार होनेवाले घात-प्रतिघातों ने केरल के कन्नूर नामक जिले की भूमि को रक्तरंजित कर इसे ‘भारत का सिसली’ बना डाला, जहां बदले का कानून चला करता है और जिसमें आज तक सीपीएम का हाथ ऊपर रहा है.

इस साल फरवरी के बाद भी एक आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या और दो पर जानलेवा हमले की घटनाएं हो चुकी हैं, जिन पर कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती, क्योंकि ‘प्राइमटाइम’ पर तो कन्हैया तथा उनके चिंतन का कब्जा है. इसी मौन के बीच सुजीत का मामला दबा दिया जाता है, जिसमें एक बड़ी ‘धर्मनिरपेक्ष’ जमात हिस्सा लेती है. नागरिक अधिकारों के लिए दिल्ली से उठी पुकार की अनुगूंज चहुंओर व्याप्त है, जबकि केरल में मानवाधिकारों के इस लगातार हनन पर खामोशी छायी हुई है. इन हत्याओं को हाशिये पर डालते जाना ही इसकी वजह हो सकती है, क्योंकि जन-विमर्श की कमान जिन ताकतों के हाथ में है, उन्हें हत्याओं के इस युद्ध में मार खाते पक्ष के सिद्धांतों से जाहिर नफरत है.

इस हिंसा के ताजातरीन शिकार अमल की बोलने की क्षमता अभी-अभी वापस लौटी है और अब वे अपना नाम याद कर पा रहे हैं. मगर यह एक महत्वहीन घटना ही बनी रहेगी, क्योंकि प्रसारण मीडिया का माइक्रोफोन उनके हाथों तक कभी नहीं पहुंचेगा, क्योंकि एकतरफा विमर्श के इस दौर में असहनशीलता के विरोधियों और पीड़ितों के अलमबरदारों के लबों से फूटती अभिव्यक्ति की आजादी की बातें ही गौर से सुनी जायेंगी.
(अनुवाद : विजय नंदन)

(साभार: आउटलुक)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें