//दक्षा वैदकर//
पिछले दिनों मैं एक आंटी से मिली. उनकी बेटी 12वीं में है. बातचीत में आंटी ने कहा, ‘मुङो भी अपनी बेटी को पत्रकार ही बनाना है. आप लोगों की लाइफ बहुत मजेदार होती है न.’ बेटी ने कहा, ‘मम्मी, मुङो डॉक्टर बनना है.’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, ‘चुप रहो, तुम्हें कुछ नहीं पता. पत्रकारों से तो डॉक्टर-इंजीनियर सब डरते हैं. तुमको पत्रकार ही बनना चाहिए.’ आंटी को मैंने बहुत देर समझाया, तब जा कर उन्होंने अपनी जिद छोड़ी. मैंने उनकी बेटी को भी समझाया कि कभी भी दोस्तों की देखा-देखी कोई कैरियर मत चुनना. हो सकता है कि तुम्हारे सारे दोस्त मेडिकल में जा रहे हैं, तो तुम भी भेड़ चाल अपना कर मेडिकल चुन रही हो. एक बार अपनी कमियों-खूबियों को खुद आकलन करना, फिर चुनना.
वर्तमान समय में कई लोग दूसरों की देखा-देखी काम कर रहे हैं, चीजें खरीद रहे हैं, कैरियर चुन रहे हैं. वे समझ नहीं पाते कि उनके लिए कौन-सी चीज सही है और कौन-सी गलत. कई बार हम बड़े भी बच्चों से जबरदस्ती कोई काम करवाते हैं. हमें लगता है कि हमारे जमाने में हमारे लिए इस निर्णय ने सकारात्मक रिजल्ट दिया है, तो बच्चे के लिए भी देगा ही. लेकिन ऐसा होता नहीं है. अगर अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, सुदेश ओबेरॉय बड़े एक्टर साबित हुए, तो इसका मतलब यह नहीं है कि अभिषेक बच्चन, तुषार कपूर और विवेक ओबेरॉय भी इतने ही पॉपुलर हों.
मान लें, आपकी आंखों में कोई परेशानी है. आप डॉक्टर के पास जाते हैं. डॉक्टर अपना चश्मा उतार कर आपको दे देते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं यह चश्मा 10 साल से पहन रहा हूं और मुङो इससे बहुत फायदा पहुंचा है. आप इसे पहन लें.’ आप उस चश्मे को पहन लेते हैं, लेकिन इससे समस्या और बढ़ जाती है. आपको कुछ दिखाई नहीं देता. आप डॉक्टर पर चिल्लाते हैं. डॉक्टर आपको ङिाड़क के कहते हैं, ‘आप अहसानफरामोश हो. एक तो मैंने आपको अपना चश्मा दिया, ऊपर से आप मुङो चिल्ला रहे हो.’ वर्तमान में कई पैरेंट्स ऐसा ही कर रहे हैं.
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