ये सर्वविदित है कि राजनीति में एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ लाने के लिए लोगों को कई बार प्रलोभन दिए जाते हैं.
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने से ये लगता है कि भारतीय जनता पार्टी को ये आशंका रही कि हरीश रावत आख़िरी पलों में कहीं अपना बहुमत साबित न कर दें.
ये भी साफ़ है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बीजेपी ने एक ही पैटर्न अपनाया है.
पैटर्न यह है कि कांग्रेस के लोगों में से कुछ को तोड़ना और उनको ये आश्वस्त करना की इससे उनका भला ज़रूर होगा. फिर उनकी मदद से सरकार बनाना.
बीजेपी की अपनी ताक़त उतनी न होने के कारण यह एक तरह से आजमाया हुआ तरीका बनता जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट में कांग्रेस राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसले को चुनौती दे सकती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का जो फ़ैसला अरुणाचल प्रदेश में आया था, संभव है वही उत्तराखंड पर भी लागू हो.
सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार ये जानने की कोशिश की कि राज्यपाल ने किस तरह से अपने विवेक का इस्तेमाल किया था.
राज्यपाल ने अरुणाचल के मामले में भी कहा था और कोई संदेह नहीं है कि राज्यपाल अब भी यही कहें कि पूरे मामले में पैसा आ गया था और ये साफ़ हो गया कि सरकार अपना बजट पास कराने में सफल नहीं रही है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट कुछ ख़ास नहीं कर सकता है.
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के फ़ैसले का किसी स्थिति पर कोई सीधा असर नहीं होगा. लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस कुछ हिल गई है.
2014 में जब मोदी सरकार बनी थी, तब कांग्रेस को थोड़ा आत्मविश्वास था कि भले 44 सांसद हों लेकिन आठ राज्यों में हमारी सरकारें हैं.
इनमें से दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार चली गई है. मुझे नहीं लगता है कि आने वाले महीने में जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां मोदी सरकार को इस फ़ैसले के कारण कोई नुकसान होगा.
मेरे ख्याल से उन्हें जो नुकसान होगा वो उत्तराखंड में ही होगा.
(बीबीसी संवाददाता संदीप सोनी से बातचीत पर आधारित)
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