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समय रहते होगी ग्लूकोमा की पहचान, इलाज की ओर बढ़े कदम

भारत में दृष्टिहीनता का दूसरा सबसे बड़ा कारण ग्लूकोमा यानी काला मोतिया है और देशभर में करीब सवा करोड़ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं. समय रहते लक्षणों का पता नहीं चलने के कारण इसे ‘साइलेंट थीफ ऑफ विजन’ यानी चुपचाप आंखों की रोशनी चुरानेवाला भी कहा जाता है. लेकिन समय रहते इसे जानने की […]

भारत में दृष्टिहीनता का दूसरा सबसे बड़ा कारण ग्लूकोमा यानी काला मोतिया है और देशभर में करीब सवा करोड़ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं. समय रहते लक्षणों का पता नहीं चलने के कारण इसे ‘साइलेंट थीफ ऑफ विजन’ यानी चुपचाप आंखों की रोशनी चुरानेवाला भी कहा जाता है.
लेकिन समय रहते इसे जानने की दशा में इसका जोखिम कम किया जा सकता है. हाल में इस क्षेत्र में अनेक शोध कार्यों को अंजाम दिया गया है, जिससे इसके समाधान की दिशा में एक नयी उम्मीद जगी है. इन शोध कार्यों समेत इससे जुड़े विविध पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …
स्टेम सेल से जगी आंख बचाने की उम्मीद
स्टेम सेल्स अविभाजित कोशिकाएं हैं, जिनमें यह क्षमता होती है कि उन्हें विविध प्रकार के खास ऊतकों के रूप में विकसित किया जा सकता है. सामान्य रूप से स्टेम सेल्स को किसी स्वस्थ वयस्क इनसान के स्किन, ब्रेन, बॉन मैरो आदि से हासिल किया जाता है. ‘ग्लूकोमा रिसर्च फाउंडेशन’ की रिपोर्ट के मुताबिक, ग्लूकोमा के संभावित इलाज के लिए स्टेम सेल्स को इस्तेमाल में लाने पर शोध जारी है. विशेषज्ञों को उम्मीद है कि आंखों की ऑप्टिक नर्व को बचाने में यह सक्षम हो सकता है, जिसमें क्षति होने के कारण आंखों की दृष्टि चली जाती है.
इसमें ऑकुलर ऊतकों को भी रिप्लेस करने की क्षमता है, जो ग्लूकोमा के साथ स्वत: पैदा हो जाते हैं. ग्लूकोमा को लाइलाज समझा जाता है और ऐसे में इस शोध से नयी उम्मीद जगी है. स्टेम सेल्स से ग्लूकोमा का इलाज सुनिश्चित होने पर आंख के प्रभावित हिस्से में इसे सुरक्षित तरीके से इंप्लांट किया जा सकेगा. हालांकि इस सिस्टम के माध्यम से प्रयोग जारी है और स्टेम सेल थिरेपी के माध्यम से परीक्षण के क्रम में हासिल हुई उपलब्धियों के मूल्यांकन के बाद ही इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा. विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लूकोमा के इलाज में भविष्य में स्टेम सेल्स की अहम भूमिका होगी और फंडामेंटल बेसिक साइंस रिसर्च के क्षेत्र में यह एक बड़ी उपलब्धि होगी.
स्मार्ट कॉन्टेक्ट लेंस
सेंसर तकनीक से लैस स्मार्ट कॉन्टेक्ट लेंस की मदद से शोधकर्ताओं ने ग्लूकोमा के मरीज में उभरने वाले जाखिम को समय रहते पता लगाने की कोशिश की है. ‘मेडिकल न्यूज टुडे’ की रिपोर्ट के मुताबिक, कोलंबिया यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं ने विकसित किये गये कॉन्टेक्ट लेंस से निकलने वाली इलेक्ट्रिकल सिगनलों के कुछ खास पैटर्न के आधार पर इसकी पहचान की है.
ग्लूकोमा की बीमारी होने का अब तक का प्रमुख सूचक आंखों में प्रेशर का बढ़ना माना जाता है. आंखों की सेहत को जानने के लिए डॉक्टर अक्सर उसके प्रेशर की जांच करते हैं. फिलहाल शोधकर्ताओं ने 40 से 89 साल तक की उम्र के 40 मरीजों पर इसका परीक्षण किया है. इनमें से आधे ऐसे लोग हैं, जिनमें यह बीमारी धीरे-धीरे, जबकि शेष आधे लोगों में तेजी से बढ़ती पायी गयी. इस परीक्षण के तहत मरीजों को आंखों पर पहनने के लिए स्मार्ट कॉन्टेक्ट लेंस दिये गये, जिन्हें वे हमेशा पहनते थे.
यहां तक कि सोने की अवस्था में भी उन्होंने इसे लगाये रखा. यह लेंस सेंसर आंखों में लेंस के कर्वेचर में होनेवाले बदलाव की पहचान करता है. आंखों का प्रेशर कम या ज्यादा होने की दशा में उसका कर्व बदलता है, जिससे इलेक्ट्रिकल सिगनल जेनरेट होता है. ये सिगनल वायरलेस डिवाइस को भेजे जाते हैं, जो इन सिगनलों को रिकॉर्ड करते हैं. ग्लूकोमा के जोखिम को समझने में ये सूचनाएं मददगार साबित हो सकती हैं. इसके अलावा, पिछले दो वर्षों के दौरान वैज्ञानिकों ने कम से कम आठ स्टैंडर्ड विजुअल फील्ड परीक्षणों को अंजाम दिया है.
इंजेक्शन से इलाज मुमकिन
ब्रिटेन के शोधकर्ताओं ने ग्लूकोमा के इलाज की एक नयी पद्धति विकसित की है, जिसमें इंजेक्शन के जरिये इसे अंजाम दिया गया है. ‘डेली मेल’ के मुताबिक, इस विधि के तहत आंखों में चीरा लगा कर ट्यूब के जरिये आंख में जमा पानी निकाला जाता है.
इसके बाद टांके लगाये जाते हैं और करीब दो से तीन महीने में मरीज ठीक हो जाता है़ हालांकि, इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि यदि ग्लूकोमा के मरीज को डायबिटीज भी है, तो इलाज में कुछ मुश्किलें आ सकती है़ जेल स्टेंट तकनीक के माध्यम से एक इंजेक्शन के जरिये महज छह एमएम की एक लचीली ड्रेनेज ट्यूब या स्टेंट को आंखों में डाला जाता है़
फिर आंखों में मौजूद ग्लूकोमा का कारण बननेवाला तरल पदार्थ अपनेआप बाहर आता रहता है़ इसमें इलाज के लिए चीरा देने की जरूरत नहीं होती है़ इस पूरी प्रक्रिया में महज कुछ ही मिनट लगेंगे़ लंदन के रॉयल फ्री हॉस्पिटल के आंखों के सर्जन विक शर्मा के मुताबिक, यह इलाज का बहुत ही सुरक्षित और जल्द राहत देनेवाला तरीका है़ ब्रिटेन में इसके टेस्ट सफल रहे है़ं उन्होंने उम्मीद जतायी कि भारत में भी जल्द ही इसका उपयोग हो सकता है़
साॅफ्टवेयर से हाेगी शुरुआती पहचान
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आइआइएससी) के शोधकर्ताओं ने एक ऐसे साॅफ्टवेयर को विकसित किया है, जिससे ग्लूकोमा को आरंभिक स्टेज में ही पहचाना जा सकेगा. आइआइएससी के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर चंद्रशेखर सीलमंतुला और उनके छात्र ने इस साॅफ्टवेयर टूल काे विकसित किया है. उनका कहना है कि अब तक के प्रयोगों के मुताबिक यह साॅफ्टवेयर ग्लूकोमा की पहचान करने में 90 फीसदी तक सटीक पाया गया है.
इस साॅफ्टवेयर के माध्यम से इसे समझने के लिए आंखों के पिछले हिस्से की इमेज ली जाती है. स्मार्टफोन में स्लीक कैमरा डिवाइस फिट करने पर अब इसे आम आदमी भी इस्तेमाल में ला सकेगा. जावा- आधारित यह साॅफ्टवेयर मिनटभर में अनेक इमेज का विश्लेषण करने में सक्षम होगा और यह तय करेगा कि व्यक्ति ग्लूकोमा से पीड़ित है या नहीं.
डॉ चंद्रशेखर सीलमंतुला का कहना है कि यह साॅफ्टवेयर टूल एक बार में आंख के भीतरी हिस्सों की सौ से ज्यादा तसवीरों का विश्लेषण करने में सक्षम है और इसमें महज कुछ सेकेंड का वक्त लगता है. उन्हें उम्मीद है कि इसे टेबलटॉप या हैंडहेल्ड मेडिकल कैमरों के साथ भी जोड़ा जा सकता है, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे-छोटे हेल्थ सेंटरों में ग्लूकोमा की पहचान और उसके इलाज की मुकम्मल व्यवस्था की जा सके.
शोधकर्ताओं का दल इस साॅफ्टवेयर को एंड्रॉयड एप्प के तौर पर बदलने की कोशिश में जुटा है. विशेषज्ञों ने उम्मीद जतायी है कि डॉ चंद्रशेखर का यह इनोवेशन एक बड़ा बदलाव ला सकता है. उन्हें उम्मीद है कि आने वाले समय में इसे स्मार्टफोन से जोड़ने की दशा में लोग आसानी से ग्लूकोमा की अवस्था को पहचान पायेंगे, जिससे दृष्टिहीनता से बचा जा सकेगा.
कितने प्रकार का ग्लूकोमा
– ओपन एंगल ग्लूकोमा : इसे क्रॉनिक ग्लूकोमा भी कहा जाता है. इसमें आंखों के भीतर का तरल पदार्थ अपने निर्धारित स्थान पर होने की बजाय अन्यत्र चला जाता है. इससे आंखों के अन्य भीतरी हिस्सों में इस तरल पदार्थ का दबाव बढ़ जाता है. ऐसा होने पर आंखों की रोशनी कमजोर होने लगती है.
– नॉर्मल एंगल ग्लूकोमा : इसमें मरीज के आंखों के भीतर की ऑप्टिक नर्व
नष्ट हो जाती है. चूंकि यह बीमारी धीरे-धीरे
बढ़ती है, लिहाजा धीरे-धीरे आंखों की रोशनी कम होती है.
– प्राइमरी एंगल क्लोजर ग्लूकोमा : इसमें आंखों के भीतर तरल पदार्थ का प्रेशर अचानक बढ़ जाता है. इसमें तत्काल इलाज की जरूरत होती है.
– कंजेनिटल ग्लूकोमा : यह नवजात शिशुओं में ज्यादातर होती है, जिसका असर बड़े होने पर दिखता है. बच्चों को रोशनी में जाने पर आंखों में पानी आने लगता है.
क्या है ग्लूकोमा
आंख में कॉर्निया के पीछे उसे पोषण देनेवाला तरल पदार्थ होता है, जिसे ‘एक्वेस ह्यूमर’ कहते हैं. लेंस के चारों ओर स्थित ‘सीलियरी टिश्यू’ इस तरल पदार्थ को लगातार बनाते रहते हैं.
और यह द्रव पुतलियों के द्वारा आंखों के भीतरी हिस्से में जाता है. इस तरह सेआंखों में एक्वेस ह्यूमर का बनना और बहना लगातार जारी रहता है. आंखों की सेहत के लिए यह जरूरी है. आंखों के भीतरी हिस्से में कितना प्रेशर रहे, यह तरल पदार्थ की मात्रा पर निर्भर रहता है. ग्लूकोमा होने पर आंखों में इस तरल पदार्थ का प्रेशर बढ़ जाता है.
कभी-कभी आंखों की बहाव नलिकाओं का रास्ता रुक जाता है, लेकिन सीलियरी ऊतक इसे लगातार बनाते जाते हैं. ऐसे में जब आंखों में ऑप्टिक नर्व के ऊपर पानी का दबाव अचानक बढ़ जाता है, तो ग्लूकोमा हो जाता है. पानी का दबाव लंबे समय तक बने रहने से ऑप्टिक नर्व नष्ट हो सकती है. समय रहते यदि इस बीमारी का इलाज नहीं कराया जाता, तो इससे दृष्टि पूरी तरह जा सकती है.
इसे ज्यादा घातक इसलिए भी माना जाता है, क्योंकि मरीज को इसका पता तब चलता है, जब उसका नुकसान ज्यादा हो चुका होता है. ऐसे में नुकसान की भरपाई नामुमकिन हो जाती है. लेकिन थोड़ी सावधानी बरतने पर समय रहते इसे समझा जा सकता है और बढ़ने से रोका भीजा सकता है.
किसे हो सकता है यह
-परिवार में यदि किसी को ग्लूकोमा रहा है, तो उसे इसका ज्यादा जोखिम रहता है. यह एक प्रकार से आनुवांशिक बीमारी है.
-40 साल की उम्र के बाद इसका जोखिम बढ़ जाता है. हो सकता है इस उम्र के लोगों को लगे कि उनकी नजर कैटेरेक्ट की वजह से कमजोर हो रही है, लेकिन कई बार नजर की कमजोरी ग्लूकोमा की वजह से हो.
-अस्थमा या आॅर्थराइटिस जैसी बीमारियों के लिए लंबे समय तक स्टेरॉयड लेने की दशा में ग्लूकोमा होने की आशंका बढ़ जाती है.
-कभी आंख का कोई जख्म हुआ हो या कोई सर्जरी हुई हो, तो भी ग्लूकोमा होने की आशंका बढ़ती है.
-जिन लोगों को मायोपिया, डायबिटीज है या ब्लडप्रेशर घटता-बढ़ता रहता है, उनमें दूसरे लोगों के मुकाबले ग्लूकोमा से होने वाला नुकसान ज्यादा हो सकता है.
भारत में ग्लूकोमा :
फैक्ट्स एंड फिगर्स
-1.2 करोड़ लाेग प्रभावित हैं इस बीमारी से देशभर में.
-यह बीमारी किसी भी उम्र समूह के व्यक्ति हो सकती है.
-इससे होने वाली दृष्टिहीनता को रोकना मुमकिन नहीं है. समय रहते इसकी पहचान होना ही इसका बचाव है.
-इस बीमारी से पीड़ित मरीज को चमकीले रंगों में इंद्रधनुष के रंग दिखते हैं.
-इनके चश्मे का नंबर तेजी से बदलता है.
(स्रोत : ग्लूकोमा साेसायटी ऑफ इंडिया)

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