अगर किसी सूबे में रोज़ 700 से ज़्यादा लोग आवारा कुत्तों के शिकार बनें, तो यह ख़बर तो है ही.
बिहार में राज्य स्वास्थ्य समिति के आंकड़ों के मुताबिक़ पिछले साल क़रीब दो लाख 63 हज़ार लोग कुत्तों का शिकार बने.
यह आंकड़ा पहली नज़र में भले चौंकाने वाला लगे पर 2012 से 2014 के बीच के आंकड़ों के मुक़ाबले यह राहत भरा है. इन तीन साल में हर साल चार लाख से अधिक लोगों को कुत्तों ने काटा.
इसकी वजह है कई साल से कुत्तों की आबादी पर नियंत्रण न कर पाना.
2012 की पशु जनगणना के मुताबिक़ पूरे देश में क़रीब 1.72 करोड़ और बिहार में क़रीब साढ़े 10 लाख आवारा कुत्ते हैं. इसमें बिहार का स्थान ऊपर से सातवां है.
बिहार में इन आवारा कुत्तों की आबादी पर नियंत्रण और देखभाल की ज़िम्मेवारी नगर विकास विभाग की है. मगर विभाग से संपर्क करने पर कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिली कि इस बारे में क्या ठोस किया जा रहा है.
हालांकि पटना नगर निगम के मेयर अफ़ज़ल इमाम कहते हैं कि उन्हें समस्या की गंभीरता का पता है. वे मानते हैं कि कई ऐसे मोहल्ले हैं, जहां ख़ासकर रात को लोग पैदल अपने घरों तक नहीं पहुँच सकते.
वह बताते हैं, ”मैंने कई बार इस सिलसिले में फ़ैसले भी किए हैं, पर ये ज़मीन पर नहीं उतर पा रहे हैं. मिसाल के लिए मैंने साल 2010-11 में कुत्तों की नसबंदी के लिए टेंडर निकाला पर इसमें किसी ने रुचि नहीं दिखाई.”
अब वह चाहते हैं कि भारत सरकार ही कोई रास्ता निकाले.
बिहार के हर ज़िले के लिए यह बड़ी समस्या है. 2015 में वैशाली, पटना और मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले सबसे ज़्यादा प्रभावित रहे. 2014 में पटना, मुज़फ़्फ़रपुर और सारण ज़िलों में कुत्तों के काटने के सबसे ज़्यादा मामले सामने आए थे.
इस दौरान इन टॉप थ्री ज़िलों में हरेक में कम-से-कम 20 हज़ार लोग कुत्तों के शिकार बने. कुत्तों की विशाल आबादी को क़ाबू में लाने और उनके टीकाकरण के लिए कोई गंभीर उपाय नहीं किए जाने को एक्सपर्ट इन घटनाओं की सबसे बड़ी वजह मानते हैं. साथ ही इसकी कुछ दूसरी रोचक वजहें भी हैं.
पटना स्थित बिहार वेटनरी कॉलेज के सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. रणवीर कुमार सिन्हा बताते हैं, ”प्रजनन के दौरान बड़ी संख्या में लोग कुत्तों को परेशान करते हैं. ऐसे में कुत्ते अपनी रक्षा के लिए काटते हैं. बूढ़े और बीमार कुत्ते चिड़चिड़े हो जाते हैं. ऐसे कुत्तों के साथ छेड़छाड़ भी इन घटनाओं का बड़ा कारण है.”
समस्याएं और भी हैं. बिहार सरकार मुफ़्त में एंटी रेबीज़ वैक्सीन उपलब्ध कराती है, पर वह अक्सर नहीं मिल पाती. हालांकि क़रीब आठ महीने से यह दवा सरकारी अस्पतालों में मिल रही है.
पटना के अबुलास लेन में रहने वाले छात्र धनु कुमार को बीते साल अगस्त में कुत्ते ने काटा था. तब उन्हें राजधानी के किसी भी सरकारी अस्पताल में वैक्सीन नहीं मिली थी.
धनु बताते हैं, ”तीन बड़े सरकारी अस्पतालों के चक्कर काटने के बावजूद मुझे दवा नहीं मिली. फिर मुझे बाज़ार से दवा खरीदनी पड़ी, जिसमें दो हज़ार से अधिक रुपए खर्च हो गए.”
रात को कुत्तों के खदेड़ने से पैदल या दोपहिए सवार भी घायल हो जाते हैं. इनमें से कई को गंभीर चोट आती है.
पटना में एक पत्रकार क़रीब दो साल पहले एक रात कुत्तों के हमले के बाद चलती बाइक से गिरकर गंभीर रूप से घायल हो गए थे. उनकी कोहनी में चोट कई ऑपरेशनों के बाद भी ठीक नहीं हुई है. चोट का असर उनकी पेशेवर ज़िंदगी पर भी पड़ा है.
तो ऐसे में उपाय क्या है? बिहार के राज्य स्वास्थ्य समिति का इंटीग्रेटेड डिज़ीज़ सर्वेलांस प्रोजेक्ट कुत्तों के काटने के आंकड़े इकट्ठे करता है.
प्रोजेक्ट की स्टेट एपिडेमिओलॉजिस्ट डॉ. रागिनी मिश्रा के मुताबिक़, ”कुत्तों के ज़्यादा शिकार बच्चे बनते हैं. ऐसे में बच्चों को स्कूल और समुदाय स्तर पर जागरूक बनाकर ये घटनाएं कम की जा सकती हैं.”
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