फ़िल्मः नीरजा
निर्देशकः राम मधवानी
अभिनेताः सोनम कपूर, शबाना आज़मी
रेटिंगः ***
जिस घटना के बारे में आप लगभग शुरू से अंत तक सारी जानकारी विकिपीडिया पर या किसी डॉक्युमेंट्री या न्यूज़ फ़ीचर से एक मिनट में पा सकते हैं, उसके बारे में फ़िल्म बनाने या उस घटना को फिर से रचने की क्या ज़रूरत? क्या उस पीड़ा से एक बार फिर गुज़रने की कोई ठोस वजह है? हां, मेरे ख़्याल से बिल्कुल. हालांकि अगर आप इससे ठीक उलट सोच रहे हैं, तो इसमें आपका कोई दोष नहीं.
आम तौर पर फ़िल्म को कहानी सुनाने का माध्यम समझा जाता है. जो कि सिर्फ़ आंशिक रूप से ही सही है. इसे हम सहानुभूति पैदा करने का सबसे अच्छा माध्यम कह सकते हैं. और यही इस माध्यम की सबसे बड़ी चुनौती है.
इस फ़िल्म में एक क्षण आता है जब बेटी के पिता उनकी मां को फ़ोन करके बताते हैं कि उनकी बेटी के विमान का अपहरण कर लिया गया है. उस क्षण मेरी आंखें भर आईं. और उस वक़्त ये एहसास हो गया कि फ़िल्म के निर्माता इस चुनौती पर खरे उतरे हैं.
कहने का मतलब ये क़त्तई नहीं है कि एक युवा फ़्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोट की कहानी सभी जानते हैं जिनके विमान का कराची एयरपोर्ट पर चरमपंथी संगठन अबू-निदाल के चार चरमपंथियों द्वारा अपहरण कर लिया गया था. वो साल था 1986, जब इस्लाम के नाम पर अंतरराष्ट्रीय चरमपंथ अपना सर उठा ही रहा था.. ये वो साल भी है जब हमारी मौजूदा युवा पीढ़ी के ज़्यादातर लोग जन्में भी नहीं होंगे.
इस फ़िल्म को करने से पहले सोनम कपूर ने भी नीरजा का नाम नहीं सुना होगा. ये बेशक हैरानी की बात नहीं है. हाल ही में उन्होंने इंटरनेट पर वायरल हुए एक वीडियो में सियाचिन के सैनिक लांस नायक हनुमंथप्पा को ‘लांस’ नाम से बुलाया, ये समझते हुए कि ‘लांस’ उनका नाम है.
लेकिन कुछ अभिनेताओं के बारे में ये बात तो है कि वो वैसे तो अपने चारों तरफ़ की असल ज़िंदगी से पूरी तरह अनजान नज़र आते हैं. लेकिन जब वो उस ज़िंदगी को पर्दे पर उतारते हैं तो उनकी ये अनभिज्ञता बिल्कुल मालूम नहीं पड़ती. जो कि बहुत अच्छी बात है.
सोनम फ़िल्म में उस ज़माने की एयरहोस्टेस का किरदार निभा रही हैं जब ख़ूबसूरत महिलाएं इस काम को ग्लैमर और हाई लाइफ़ का टिकट समझती थीं. उस ज़माने में, एयर इंडिया की एयर होस्टेस( घरेलू उड़ानों की भी) को आम तौर पर "हवाई सुंदरियां" कहा जाता था( मॉरीन वाडिया और परमेश्वर गोदरेज जैसी महिलाएं).
नीरजा अमरीकी एयरलाइन पैन एम के लिए काम करती थीं. सितंबर के उस दिन जब चरमपंथियों ने उनके विमान का अपहरण किया, उन पर महानता जैसे लाद दी गई. वो इस दबाब में टूट सकती थीं. लेकिन उन्होंने सही काम किया, आख़िरकार उन्होंने 359 लोगों की जान बचाने में मदद की.
साफ़ है कि फ़िल्म सोनम के इर्द गिर्द ही घूमती है. ये कहना मुश्किल है कि कोई और इस किरदार को और अच्छी तरह से निभा सकता था. यहां ये कहना काफ़ी होगा कि उनकी पिछली फ़िल्मों में उनके अभिनय से (ख़ूबसूरत जैसी फ़िल्मों में ) उनके अभिनय को लेकर जो शक पैदा हुआ था, वो बेबुनियाद निकला.
शबाना आज़मी इस 23 वर्षीय लड़की की मां की भूमिका में हैं, जो एक चट्टान की तरह मज़बूती से खड़ी रहती हैं. महौल में तनाव है. आप लगभग ये उम्मीद करने लगते हैं कि सब कुछ ठीक हो जाएगा, जबकि आप ये जानते हैं कि ऐसा नहीं होगा.
लेकिन मुख्य किरदारों के अलावा, ये फ़िल्म एक विमान के भीतर उस घुटन भरे माहौल को बनाने में सफल हुई है जिसमें इस तरह की दुखद घटना घटित होती है.
क्रू और चालक समेत सभी 379 यात्री इस विमान में बंधक हैं. ये कहना मुश्किल है कि अपहरण की स्थिति में लोग सामूहिक तौर पर कैसी प्रतिक्रिया करते हैं. शुक्र है कि इस पूरी स्थिति में किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं किया गया है.
ख़ासतौर पर वो चार अपहरणकर्ता. वे बॉलीवुड के चरमपंथी विलेन जैसा बर्ताव क़त्तई नहीं करते. उनमें से एक अपना क़ाबू खो बैठता है, जिससे सिर्फ़ इसी बात की पुष्टि होती है कि चरमपंथ किसी भी बात से पहले, एक दिमाग़ी समस्या है.
कैमरा कॉकपिट, फ्लाइट के उपकरण, सीटों के बीच के गलियारे को बहुत नज़दीक से दिखाता है, जिससे उस घुटन भरे माहौल का एहसास और भी गहरा हो जाता है. एक घटनाप्रधान फ़िल्म के निर्देशन के लिए राम मधवानी बिल्कुल फ़िट बैठते हैं.
साल 2002 में उनकी पहली फ़िल्म ‘लेट्स टॉक’ से मैं बहुत प्रभावित हुआ था. ये फ़िल्म एक कमरे में दो किरदारों के बीच शूट की गई थी. फ़िल्म से बाहर निकलते हुए मैंने सोचा था, ‘वाह! आज एक स्टार का जन्म हुआ है!’ वो बोमन ईरानी की भी पहली फ़िल्म थी. वो अब अपनी भूमिकाओं में एक स्टार ही हैं. लेकिन इस फ़िल्म से विज्ञापन फ़िल्मनिर्माता राम मधवानी को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ था. ये उनकी दूसरी ही फ़िल्म है.
‘लेट्स टॉक’ की सबसे बड़ी ख़ासियत ये थी कि इस फ़िल्म ने पति-पत्नी के रिश्ते को हर संभव नज़रिए से समझने और दिखाने की सफल कोशिश की थी. उसकी तुलना में ‘नीरजा’ का अपने पूर्व पति से बर्ताव बहुत ही ढीलेढाले तौर पर फ़िल्माया नज़र आता है. फ़िल्म में परिवार की बात और अपहरण की स्थिति के बीच एक गीत कुछ ज़्यादा खींचा हुआ लगता है.
लेकिन हर बार जब ऐसा लगता है कि अब निर्देशक की पकड़ फ़िल्म पर कमज़ोर हुई, वो तभी दर्शकों से एक कनेक्ट फिर बना लेता है. हां, आप कहानी तो जानते हैं. लेकिन फिर भी जब आप नीरजा को जाते हुए देखते हैं, तो आपकी आंखें भर आती हैं.
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