पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले के गांव रणखंडी के निवासी हैं सूरज राणा और मुदस्सिर राणा. इनके सरनेम एक ही हैं. दोनों पुंडीर गोत्र के राजपूत हैं. लेकिन एक हिंदू राजपूत है तो दूसरा मुसलमान राजपूत.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश पिछले तीन साल से सांप्रदायिक तनाव में जी रहा है. इससे हिंदू-मुसलमान के बीच की दीवार थोड़ी और ऊंची हुई है.
लेकिन यहाँ के नौजवानों की सोच सियासी माहौल से जरा हटकर है. अब सूरज और मुदस्सिर को ही ले लीजिए.
सूरज के बहुत से दोस्त मुसलमान हैं. वो जब अपने दोस्तों के नाम गिनवाते हैं तो साजिद, रफ़ीक़, आसिफ़, शहज़ाद…जैसे नाम सामने आते हैं.
रणखंडी से कुछ ही दूर पर है मुदस्सिर राणा का घर. उनके हिन्दू दोस्तों की फिहरिस्त भी काफ़ी लंबी है, जिसमें अजय, राजेश, प्रशांत…जैस नाम शामिल हैं."
सूरज का बचपन से ही मुसलमान परिवारों में आना-जाना है. स्कूल और कॉलेज जाने के बाद उनकी दोस्ती का दायरा भी बढ़ता गया.
वो जैसे-जैसे बड़े होते चले गए, ईद-बकरीद जैसे पर्व-त्योहारों पर अपने मुसलमान दोस्तों के यहां उनका आना जाना बढ़ता गया.
लेकिन मीडिया में जिस तरह की ख़बरें आती हैं और राजनीतिक दलों के मंचों से जैसा ज़हर उगला जाता है, उसके ठीक उलट सूरज की ज़िंदगी में अदावत की कोई जगह नहीं है.
सूरज कहते हैं, "सच कहें तो कभी पता ही नहीं चल पाया."
मुदस्सिर का भी हिंदुओं के बीच ही उठना-बैठना है. वो कहते हैं कि उन्हें भी पूजा और त्योहारों में अपने दोस्तों के यहां से न्योता मिलता है. वो एक ही थाली में साथ खाते हैं.
वो कहते हैं, "उनके घर आते-जाते रहते हैं. चाहे त्योहार हों या न हो. वो भी मेरे घर आते रहते हैं. पता ही नहीं चलता क्या हिन्दू और क्या मुसलमान."
मगर माहौल ख़राब करने की सियासतदानों की कोशिश से दोनों समुदाय के नौजवान दुखी हैं, क्योंकि इससे उन्हें मिलने-जुलने में परेशानी पेश आती है.
कभी कुछ लोग सूरज को समझाते हैं कि मुसलमानों से दोस्ती मत रखो तो कभी मुदस्सिर को स्थानीय नेता हिन्दू लड़कों से दोस्ती न रखने की सलाह देते हैं. लेकिन दोनों इन फरमानों और नसीहतों से बेअसर हैं. उनकी दोस्ती पहले जैसी ही गाढ़ी है.
ये नौजवान तो बस खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं.
पिछले कुछ दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लव जिहाद के मुद्दे ने काफी तूल पकड़ा था. इसको लेकर यहां काफी तनाव भी देखा गया.
लेकिन सूरज और मुदस्सिर की पीढ़ी धर्मयुद्ध और लव जिहाद की शोशेबाजी से ऊब चुकी है. उनका कहना है कि यह सबकुछ पिछले दो-तीन साल से ज़्यादा हो रहा है.
वैसे सहारनपुर ज़िले के देवबंद के रणखंडी के रहने वालों का कहना है कि शहरों और क़स्बों की बात अलग है. लेकिन गावों में आज भी लोग एक ही गोत्र में शादी नहीं करना चाहते हैं. चाहे वो हिन्दू हों या मुसलमान.
हिन्दुओं में इसका सख्ती के साथ पालन होता है. लेकिन मुसलामानों में तो गोत्र नाम की चीज़ ही नहीं होती है.
बावजूद इसके गांवों के कई मुसलमान भी चाहते हैं कि एक गोत्र में शादियां न हों.
ऐसा क्यों? मैंने यह सवाल जमीयत-ए-उलेमा-हिन्द के हकीमुद्दीन से पूछा तो उनका कहना था कि मुसलमानों में यह चलन वहीं ज़्यादा है, जहां ‘अज्ञानता’ ज़्यादा है.
वो कहते हैं कि भारत के विभिन्न प्रांतों में, ख़ासतौर पर ग्रामीण इलाक़ों में कई ऐसी परंपराएं हैं जिसकी धार्मिक मान्यता नहीं है. लेकिन समाज उनका पालन करता है.
उन्होंने पश्चिम बंगाल और दक्षिण भारत का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां की महिलाएं बिंदी लगाती हैं और बालों में फूल भी लगाती हैं. इससे इस बात का पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान.
ना सूरज चाहते हैं कि समाज में विद्वेष फैले और ना ही मुदस्सिर. लेकिन सियासतदानों के लिए यह ही सत्ता का मुफ़ीद रास्ता है.
किसी शायर ने शायद सही कहा है, "अजब जूनून है इस दौर के ख़ुदाओं का… तू मर गया तो तुझे फिर जला कर मारेंगे…"
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