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‘जेएनयू में सनातन परंपरा बहुत मज़बूत है’

सुशील झा बीबीसी संवाददाता जो ठीक से नहीं देख सकते, उन्हें जेएनयू सिर्फ़ लाल और हरा दिखता है, लाल ईंटों वाली इमारतें और हरियाली के अलावा जेएनयू के कई रंग हैं. एक छोटे से शहर से, एक अरसा पहले जेएनयू पहुँचने पर मैं भौंचक था, मैं जिस कमरे में ठहरा था वहां किताबों की भरमार […]

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जो ठीक से नहीं देख सकते, उन्हें जेएनयू सिर्फ़ लाल और हरा दिखता है, लाल ईंटों वाली इमारतें और हरियाली के अलावा जेएनयू के कई रंग हैं.

एक छोटे से शहर से, एक अरसा पहले जेएनयू पहुँचने पर मैं भौंचक था, मैं जिस कमरे में ठहरा था वहां किताबों की भरमार थी.

सामने बैठे छात्र तीन अख़बार पलट रहे थे और पहली ही मुलाकात में उन्होंने मेरी पत्रकारिता के कोर्स में एडमिशन टेस्ट की तैयारी करा दी थी.

आईआईएमसी जो जेएनयू कैम्पस से जुड़ा हुआ है, वहाँ से पढ़ाई करने के बाद जेएनयू का छात्र भी बना, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एमए करने के लिए, तमन्ना यही थी कि जितना सीख सकूँ, सीखूँ.

उड़ीसा के एक छोटे से शहर से ग्रैजुएशन करके आने वाले मेरे जैसे छात्र के लिए ये देखना हैरतअंगेज़ था कि कैसे क्लास-रुम में लोग अरस्तू और प्लेटो पर लंबी-लंबी बहसें करते हैं.

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ओपी बख्शी सर जो पॉलिटिकल थॉट पढ़ाते थे, उनके साथ अजित जोगी के बेटे अमित जोगी ने लंबी बहस की. करीब घंटे भर की बहस के बाद बख्शी सर ने कहा, ‘अमित अभी चुप हो जाइए, क्लास के बाद आगे की बात करेंगे’.

मैं जहाँ से आया था, वहाँ मास्टर सवाल पूछते थे, हम हाथ खड़े करके जवाब देते थे, क्लास में बहस करना परम पूजनीय गुरूजी का अपमान ही समझा जाता, जेएनयू में सवाल पूछने के लिए हिम्मत जुटाने में मुझे ख़ासा वक़्त लगा.

एक पुष्पेश पंत सर होते थे. उन्होंने परीक्षा ली और कहा कि जो कॉपी-किताब खोलकर लिखना चाहें, लिख सकते हैं. इतना कहकर उन्होंने स्टूडेंट्स के लिए चाय मंगवा दी.

कई लोग किताब खोलकर लिखने लगे. मैंने पर्चा जमा करते हुए पूछा, ‘ऐसे में तो सब लोग एक जैसा लिखेंगे’.

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पंत सर का जवाब था – ‘किताबों में सब कुछ कहां लिखा होता है?. आप लोगों से उम्मीद थी आप किताब नहीं खोलेंगे. कुछ लोगों ने बिना किताब खोले जवाब लिखा, जैसे तुम’.

रात में डिनर के बाद बहसें आम थीं, जिसमें छात्र जमकर शिक्षकों से या भाषण देने आए मेहमानों से सवाल-जवाब करते.

हर पार्टी का अपना छात्र संगठन सक्रिय था. वामपंथी दल ज्यादा सक्रिय ज़रूर थे और सबसे ज्यादा पर्चे वो ही छापते थे.

बीजेपी से जुड़े संगठनों के कार्यक्रम कम ही होते थे लेकिन सक्रियता रहती थी. एक दिन बहस के लिए बिपिन चंद्रा साबरमती हॉस्टल आए.

विकास पाठक नाम के एक छात्र ने खूब सवाल पूछे, बहस गरम हो गई और बिपिन चंद्र जी ग़ुस्से में आ गए. हॉस्टल के छात्रों ने बीच-बचाव किया.

कई बार इन बहसों के बाद सब एक साथ उठकर गंगा ढाबे पर चाय पीने चले जाते, मैं करीब चार साल जेएनयू का छात्र रहा और कभी किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं रहा.

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सबसे दोस्ती रही. सबसे सीखता रहा. मेरे जैसे हज़ारों स्टूडेंट्स थे कैंपस में जो किसी पार्टी के सदस्य नहीं थे लेकिन राजनीतिक रूप से भरपूर जागरुक थे.

कई बार ऐसी बहसें भी होती जो पहली नज़र में आपत्तिजनक लगतीं. माओवाद, कश्मीर के मुद्दे पर कई बहसें होती जिसमें डर लगता कि मारपीट न हो जाए लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ.

कई गुट ऐसे थे जो अँग्रेज़ी में लिखे लंबे-लंबे पर्चे लगाते, मसलन, नील आर्मस्ट्रांग का चांद पर पैर रखना झूठ है. ख़ूब तर्क होते उनमें भी. अगले दिन कोई और पर्चा आ जाता उसकी पोल खोलता हुआ.

गंगा ढाबे पर कई बार चार-पांच लोग मिलकर कई बार फ़ालतू लगने वाले मुद्दों पर प्रदर्शन करते. कोई कुछ नहीं कहता. बात बढ़ती तो ढाबे पर बैठे छात्र ही जाकर बीच-बचाव कर देते. बात ख़त्म हो जाती.

सेलेक्शन में एक्सट्रा प्वाइंट मिलने की वजह से जेएनयू में हमेशा आधे से अधिक ऐसे बच्चे होते हैं जो बहुत ग़रीब होते हैं, अंग्रेज़ी बोल नहीं पाते लेकिन वक़्त के साथ संस्थान उनमें आत्मविश्वास भर देता है.

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मुझे याद है, एमए में जब मैंने पहली बार अंग्रेज़ी में अपना पर्चा लिखा तो वरूण साहनी सर ने मुझे बुला कर कहा कि ‘तुमने सब अच्छा लिखा है, थोड़ी सी अंग्रेज़ी पर मेहनत करो तो और अच्छे नंबर आएंगे. उन्होंने कहा कि कोई मदद चाहिए तो बताना’.

मैंने अंग्रेज़ी अच्छी तरह बोलना-समझना कैंपस में ही सीखा.

बहस की संस्कृति को दरकिनार कर दें तो जेएनयू में बहुत कुछ है जो उसे बाक़ी जगहों से अलग करता है.

इस कैम्पस में दूसरे किसी रिहायशी कैम्पस के मुक़ाबले लड़कियों की तादाद भी अधिक है, अपने गाँव-क़स्बे में सकुचाए रहने वाले लड़के और सहमी हुई लड़कियाँ यहाँ खुल कर मिलते हैं और कोई उन्हें बुरी नज़र से नहीं देखता.

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देर रात तक लोग घूमते, टहलते, बैठते-बतियाते हैं, कोई रोक-टोक नहीं करता.

बाहर के लोगों को ये अटपटा लग सकता है लेकिन कैम्पस के लिए ये सामान्य बात है. कौन किससे बात करेगा, किसके साथ बैठेगा ये तय करने की ज़िम्मेदारी उनकी होती है, समाज की नहीं.

ऐसा नहीं है कि जेएनयू के छात्र बहस करने और इश्क़-मोहब्बत में ही आगे हों, पढ़ने-लिखने में भी उनका मुक़ाबला आसान नहीं है.

हर साल बीसियों आईएएस यहां से भी निकलते हैं. सरकार में उच्च पदों पर जेएनयू के लोग हैं ही, ये किसी से छुपी नहीं है.

जेएनयू वो जगह है जहाँ हर रोज़ एक नया विचार पनपता है, विचार में दम हो तो वो आगे बढ़ जाता है, तर्क से टूट जाए तो वहीं दम तोड़ देता है.

जेएनयू मेरी जानकारी में अकेली जगह रही है जहां हर मुद्दे पर बहस संभव है. दूसरों की असहमति से सहमत होने का विचार मैंने यहीं सीखा.

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एक आखिरी बात जेएनयू के चुनाव जिसे लिंगदोह कमिटी ने आदर्श बताया था. इन चुनावों में प्रशासन की कोई भागीदारी नहीं होती.

ये चुनाव छात्र ही कराते हैं. चुनाव की कमिटी बनती है जो छात्र ही चलाते हैं और पूरी चुनाव प्रक्रिया की निगरानी और देख-रेख भी वही करते हैं.

मुझे नहीं लगता कि जेएनयू जैसी कोई और जगह है जहाँ शास्त्रार्थ की पुरातन-सनातन परंपरा इतनी मज़बूत हो.

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