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‘जेएनयू में हिन्दुत्ववादी विचारों पर बैन रहा है’

एम राजीव लोचन बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए जेएनयू के नाम से विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय से कम से कम भारतवासियों को यही अपेक्षा रहती है कि वह लोक क्रांति में सबसे आगे रहेगा, देश और दुनिया में लोक सम्मत वाम विचारधारा को फैलने में मदद करेगा और इसमें हो रहे शोध ज्ञान की […]

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जेएनयू के नाम से विख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय से कम से कम भारतवासियों को यही अपेक्षा रहती है कि वह लोक क्रांति में सबसे आगे रहेगा, देश और दुनिया में लोक सम्मत वाम विचारधारा को फैलने में मदद करेगा और इसमें हो रहे शोध ज्ञान की रोशनी से देश और दुनिया उजागर होगी.

यह उम्मीद कुछ इतनी प्रबल रही है कि लोग यह समझ ही नहीं पाते हैं कि जेएनयू मुख्यत: देश के ‘इस्टैब्लिशमेंट’ के लिए काम करता है, उसके विरोध में नहीं.

वहां से निकलने वाले विद्यार्थी ‘इस्टैब्लिशमेंट’ के बड़े-बड़े पदों पर विराजमान हैं.

हाल के दिनों की ही एक छोटी सी लिस्ट पर निगाह दौड़ाये लें तो हम पाते हैं कि मोदी सरकार के सबसे महत्वपूर्ण पदों पर जेएनयू से पढ़े लोग ही बैठे हैं.

सीबीआई चीफ़, चीन में सबसे लम्बे समय तक रहने वाले भारत के राजदूत जो आजकल भारत के विदेश सचिव हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया प्रोग्राम के प्रमुख कार्यकर्ता, ये सब जेएनयू के पढ़े हैं.

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देश के वाणिज्य और उद्योगों को बढ़ाने का बीड़ा उठाने वाली मंत्री निर्मला सीतारमन के अलावा राजनीति के अनेक बड़े नेता यहीं से हैं.

मीडिया और शिक्षण के क्षेत्र में तो जेएनयू में पढ़े लोगों की भरमार है. यदि कहीं जेएनयू के लोगों की कमी है तो वह है क्रांतिकारियों की जमात में. यह हालत सदा से रही है!

फिर यह कैसे हुआ कि लोगों में यह ग़लतफ़हमी फैली हुई है कि जेएनयू ‘क्रांति’ का गढ़ है? सरकार से जुड़े लोग कहते फिरते हैं कि जेएनयू राष्ट्र विरोधी है, देश और समाज को तोड़ने में लगा है?

लोग मुग़ालते में रहें, सो रहें जेएनयू वाले भी अपने क्रांतिकारी होने का दम भरते नहीं थकते.

मुझे लगता है कि इसका प्रमुख कारण यह रहा कि इस विश्वविद्यालय में विचारों से खिलवाड़ करने की परम्परा रही है.

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अजीब तरह के विचार और चालचलन जो साधारणत: समाज में छुपा लिए जाते हैं, यहां आसानी से अभिव्यक्ति पाते रहे हैं.

जब पूरे देश में समलैंगिकता को लेकर हाहाकार मचा हुआ था तो यह उन बिरले परिसरों में था जहां समलैंगिकता की स्वतंत्रता के बारे में लोगों को बहस नहीं करनी पड़ी.

जब देश में सिगरेट पीने पर प्रतिबंध लगा तो यहां ही सिगरेट पीने की परम्परा निर्बाध चलती रही.

जब देश महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय की बहस में निरर्थक बहस कर रहा था तब महिलाओं को जेएनयू परिसर में स्वछंद रहने और काम करने की आज़ादी रही.

जब दिल्ली भर में कांग्रेस सरकार की आड़ में सिखों का क़त्ल हो रहा था तब जेएनयू ने ही सिखों को शरण दी.

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जब देशभर में छात्र राजनीति के नाम पर केवल गुंडागर्दी होती थी, जेएनयू छात्र राजनीति विचारों को भांजने का अखाड़ा बना, पर राजनैतिक लड़ाइयां वैचारिक रहीं, मार-पीट, हाथापाई तक नहीं पहुँची. यहां तक कि छात्र राजनीति का संचालन और प्रबंधन भी छात्रगण ही करते रहे.

इसकी आड़ लेकर देश के ख़िलाफ़ विचार तैयार करने के लिए यहां के वैचारिक खुलेपन का इस्तेमाल किया गया. यहां तक कि जेएनयू परिसर में अनेकानेक भगोड़ों ने शरण ली. कई उग्रवादी भी यहां से पकड़े जा चुके हैं.

समस्या यह है कि विचारों का खुलापन भ्रामक विचारों के फैलने के लिए, देश विरोधी विचारों और गतिविधियों के लिए भी अच्छा माहौल तैयार करता है.

यह सच है कि सर्वहारा के प्रति संवेदना यहां की आबोहवा में समाहित रही है. नतीजतन यहां चर्चा का एक बड़ा हिस्सा यह रहा है कि किस तरह ‘इस्टैब्लिशमेंट’ लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेवरियों ठीक से नहीं निभा रहा.

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‘इस्टैब्लिशमेंट’ की भर्त्सना करना, उसे पक्षपाती साबित करना और उसमें बदलाव लाने की ज़रूरत पर विचार करना जेएनयू की परिपाटी रही है.

परंतु साधारण जन के प्रति सहानुभूति होने के बावज़ूद जेएनयू में रहने वाले लोगों में एक अजीब तरह का इलीटिज़्म रहा है.

अपने 50 साल के इतिहास में जेएनयू ने कभी भी साधारण लोगों तक पहुंच कर कुछ भी करने की कोशिश नहीं की. यहां तक कि यहां होने वाले शोध भी कुछ इस तरह से प्रबंधित किए जाते रहे हैं कि लोगों से कम से कम संबंध रहे.

सो हालांकि लोगों के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें यहां की हवा में तैरती मिलेंगी, लोगों से सीधा संबंध नदारद रहता है.

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नर्मदा बांध योजना, परमाणु ऊर्जा, किसान आत्महत्या, टाटा का नैनो प्रोजेक्ट, भूमि अधिग्रहण, देश का औद्योगिकरण, शिक्षा के विस्तार आदि पर यहां के लोगों का प्रतिवाद लगभग फार्मूलाबद्ध और मूलत: साधारणजन को सीख देने तक ही सीमित रहा है.

इसमें सच की खोज करने का विकल्पों का आकलन करने का कभी कोई प्रयास होता नहीं दिखता.

इसका नतीजा यह रहा कि जेएनयू कभी भी बाहर के लोगों को यह समझा नहीं पाया कि इस विश्वविद्यालय से देश को क्या फ़ायदा होता है. लोग क्योंकर इस विश्वविद्यालय को मज़बूत बनने में मदद करें.

पर सबसे बड़ी बात यह है कि यहां वैचारिक अभिव्यक्ति की आड़ में हिन्दुत्ववादी विचारों पर लगभग बैन लगा रहा है.

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हिंदुत्ववादी विचारों के खंडन को ही उनसे विवाद और विमर्श करने के तुल्य मान लिया गया. उन्हें साम्प्रदायिक और जातिवादी क़रार देकर उन्हें दबाने की कोशिश की गई.

यह भी ठीक रहता यदि कांग्रेस और वामपंथी सरकारों की साम्प्रदायिकता का भी उस ही तत्परता से खंडन किया जाता, पर ऐसा न हुआ.

हुआ यह कि जेएनयू ने अपने आप को इन सरकारों के समर्थन में खड़ा कर लिया. इससे यह सम्भावना बन गई और लोग मानने लगे कि जेएनयू को मिलने वाली सभी सुविधाएं, सत्ता के साथ जेएनयू की निकटता, इसी समर्थन के कारण ही आती रही हैं.

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अब जब सरकार बदल गई है, वे सब जिन्हें अब तक बोलने नहीं दिया जा रहा था, वे बोलने लगे हैं, तो थोड़ा वैचारिक हाहाकर तो होगा ही.


(लेखक वर्तमान में पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं और जेएनयू के पूर्व छात्र हैं .)

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