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बोले मो सईद-हां, मैंने ”गांधीजी” से बात की थी

आरा : लंबी कद काठी, दुबला-पतला शरीर, चेहरे पर झूर्रियां, सफेद बाल और रंग गोरा. वह दृश्य आज भी मेरे आंखों के सामने है. वे मेरे मन-मस्तिष्क में रचे-बसे हैं. मरने के बाद ही मैं उस वाक्या को भूल पाउंगा़ यह कहना है आरा के दूध कटोरा मुहल्ला निवासी 82 वर्षीय मो़ सइद का़ वे […]

आरा : लंबी कद काठी, दुबला-पतला शरीर, चेहरे पर झूर्रियां, सफेद बाल और रंग गोरा. वह दृश्य आज भी मेरे आंखों के सामने है. वे मेरे मन-मस्तिष्क में रचे-बसे हैं. मरने के बाद ही मैं उस वाक्या को भूल पाउंगा़ यह कहना है
आरा के दूध कटोरा मुहल्ला निवासी 82 वर्षीय मो़ सइद का़ वे आज भी पश्चिम बंगाल के सियालदह रूट में राना घाट स्टेशन की उस शाम के वक्त को भूल नहीं पाये हैं और कहते हैं कि वह कोई और नहीं, बल्कि महात्मा गांधी थे़ यह मुझे समझते देर नही लगी. तभी रेल के डिब्बे से आवाज आयी- क्या है बालक?
तब मैंने पूछा- आप गांधीजी हैं ? तब उन्होंने कहा- हां, मैं गांधी ही हूं. इसके बाद मैं बता ही रहा था कि मैं इधर से अपने क्वार्टर जा रहा हूं. तभी नेपाली पुलिस का एक जवान मेरे पास आ धमका और मेरी बांह पकड़कर स्टेशन से बाहर ले जाने लगा, यह कहते हुए कि तुम इधर कैसे आ गये ?
मो़ सइद अत्यंंत भावुक होकर बताते हैं. यह वाक्या 1948 की लगभग दिसंबर माह की है़ मेरे मरहुम पिताजी अब्दुल रसीद रेलवे में नौकरी करते थे और राना घाट स्टेशन पर कैरेज विभाग में हेड मिस्त्री थे़ तब मेरी उम्र लगभग 12-13 साल की थी़ पिताजी का रेलवे क्वार्टर स्टेशन परिसर में ऐसे जगह पर था कि बाजार या स्कूल आने जाने के लिये स्टेशन से होकर ही जाना पडता था और जब भी बाजार आदि जाते तो स्टेशन पर लगी रेल गाडियों के डिब्बे पर खली या ईंट के टुकडे से रेखा खिंचते हुये एक छोर से दूसरे छोर जाते थे़ वह बचपना थी़ हम अच्छा कर रहे थे या गलत, यह समझ नहीं थी़
उस दिन भी मैं ऐसा ही करते जा रहा था़ उस समय राना घाट स्टेशन पर ज्यादा भीड नही रहती थी़ एक रेलगाडी लगी थी और रोज की तरह रेल डिब्बे पर रेखा खिंचते हुए जा रहा था़ तभी एक खिडकी के पास पहुंचा, तो मैं अंदर में सफेद चादर में लिपटे बैठे व्यक्ति की आभा देखकर वहीं ठिठक गया़क कुछ देर यूं हीं निहारता रहा, तभी अंदर से आवाज आयी-क्या है बालक ? तब तक मै समझ चुका था कि ये कोई और नहीं महात्मा गांधी ही हैं और मैं बालपन के भाव वश पूछ भी दिया कि आप महात्मा गांधी है़ तब उन्होंने बडी ही सहज व धीमी आवाज में कहा- हां, मैं महात्मा गांधी हूं
तब मैं बता ही रहा था कि मैं अपने क्वार्टर जा रहा हूं. तभी नेपाली पुलिस जवान मेरे नजदीक जोर से लपका और मुझे वहां से खिंचकर स्टेशन के निकास द्वार तक ले गया तथा वहां जाकर पूछा कि तुम वहां कैसे पहुंच गये़ इसके बाद मैं उसे बताया कि मेरे पिताजी यही रेलवे में कार्य करते हैं और इसी रास्ते से आता-जाता हूं. इसके बाद उसने मुझे छोड दिया था़ मो़ सईद बताते हैं कि यह वाक्या गांधी जी की मौत से मात्र लगभग एक माह पहले की है़ वे कोलकाता जा रहे थे़ वहीं रेलगाडी रूकी थी़ लेकिन पुलिस के जवान मेन गेट से किसी भी यात्री को स्टेशन में आने नहीं दे रहे थे़ इसलिए स्टेशन परिसर पूरी तरह खाली था़
जबकि मैं रोज की तरह इंजन की ओर से रेल डिब्बे पर रेखा खिंचते हुए गार्ड डिब्बा तक जाता था और वहां से बाजार चला जाता था़ यह तो उस दिन अकस्मात सबकुछ हो गया़ पुलिस वाले भी परेशान थे कि आखिर यह लड़का गांधी जी के पास कैसे पहुंच गया़ मो़ सईद आज भावुक होकर बताते हैं कि वह दृश्य आज भी नहीं भुला हूं और मरते दम तक नहीं भूल सकेंगे. उन्होंने उनकी चमकती ललाट, लंबी काया, सफेद चादर से निकलती आभा आज भी दिलों में समाये हुये है़

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