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नेता जी जयंती : द ग्रेट इस्केप
ब्रिटिश सरकार द्वारा नजरबंद किये जाने से बचने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने योजना बनायी और 16 जनवरी 1941 को पुलिस समेत सभी लोगों को चकमा देते हुए देश से पलायन कर गये. उनके इस काम में सहयोग किया उनके भाई शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने. वह कोलकाता से गोमो स्टेशन […]
ब्रिटिश सरकार द्वारा नजरबंद किये जाने से बचने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने योजना बनायी और 16 जनवरी 1941 को पुलिस समेत सभी लोगों को चकमा देते हुए देश से पलायन कर गये. उनके इस काम में सहयोग किया उनके भाई शरद बाबू के बड़े बेटे शिशिर ने.
वह कोलकाता से गोमो स्टेशन (वर्तमान में झारखंड स्थित) कार से पहुंचे और वहां से फ्रंटियर मेल पकड़ कर पेशावर चले गये. सुभाष चंद्र बोस ने योजना के अनुसार देश से बाहर निकलने के लिए मोहम्मद जियाउद्दीन नामक पठान का रूप धारण किया. इस घटना को इतिहास में महानिष्क्रमण या द ग्रेट इस्केप के नाम से जाना जाता है. घटना के प्लैटिनम जुबली वर्ष पर आइए जानें कि कैसे किया था सुभाष चंद्र बोस ने महानिष्क्रमण.
सुगत बोस
टेन का युद्ध जब लंदन के आसमान में 1940 में लड़ा जा रहा था, भारत के उपनिवेश शासकों ने अपने सबसे हठीले प्रतिद्वंद्वी को कलकत्ता के प्रेसीडेंसी जेल में सलाखों के पीछे रख दिया था. 1940 के 29 नवंबर को नेताजी ने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी. सरकार को उनकी चुनौती थी : ‘‘या तो मुझे रिहा करो, या मैं जीवित रहने से इनकार करूंगा’’. 1940 के 26 नवंबर को उन्होंने बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर के लिए 13 पन्नेवाली हस्तलिखित चिट्ठी तैयार की, जिसे उन्होंने अपना ‘राजनीतिक दस्तावेज’ करार दिया था. देशवासियों के लिए उनका संदेश स्पष्ट था : ‘‘कोई व्यक्ति विशेष किसी सोच के लिए मर सकता है, लेकिन वह सोच उसकी मौत के बाद हजारों बार पुनर्जन्म लेगा.’’
नेताजी के आमरण अनशन के ठीक एक हफ्ते पहले यानी 1940 के पांच दिसंबर को बंगाल के गवर्नर, जॉन हरबर्ट ने जेल में उनकी मौत की स्थिति से बचने के लिए उन्हें एंबुलेंस से घर के लिए रवाना कर दिया. गवर्नर की मंशा थी कि नेताजी के स्वास्थ्य लाभ करते ही फिर से उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाये.
वाइसरॉय लिनलिथगो ने भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को लंदन में छह दिसंबर को सूचित किया कि बोस तीन हफ्ते के लिए बेकाम हैं और उन्हें फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है. बंगाल के गवर्नर द्वारा अपनाये गये ‘चूहे-बिल्ली’ के खेल को लागू करने को वह तत्पर थे. 11 दिसंबर को हरबर्ट ने ब्लीथली ने लिनलिथगो को लिखा, ‘‘यदि वह फिर से भूख हड़ताल करते हैं, तो मौजूदा ‘चूहे बिल्ली’ की नीति को लागू किया जायेगा, जो उन्हें हानिरहित बना कर यह अनुभव करायेगी कि लगातार अनशन से कुछ नहीं हासिल हो सकता.’’
पांच दिसंबर को कमजोर और थके हारे सुभाष को स्ट्रेचर पर 38/2 एल्गिन रोड के उनके तीन मंजिला पैतृक आवास में लाया गया. घर के बाहर सादे कपड़े में तैनात पुलिसकर्मियों के अलावा केंद्रीय व प्रांतीय सरकार के कम से कम दर्जन पर खुफिया एजेंटों को तैनात किया गया था, ताकि यह पता लगाया जा सके कि भीतर क्या चल रहा है.
पांच दिसंबर की दोपहर को सुभाष ने अपने भतीजे शिशिर के हाथों को अपेक्षाकृत अधिक समय तक गर्माहट के साथ थामे रखा. शरत चंद्र बोस के तीसरे बेटे शिशिर, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे.
मेहमानों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला जब कुछ दिन बाद कम हुआ, तो दूसरे हफ्ते सुभाष ने शिशिर को अपने पिता के 1 वुडबर्न पार्क स्थित, तीन मंजिली कोठी से बुलावा भेजा. 20वीं सदी की शुरुआत में 1 वुडबर्न पार्क, कलकत्ता में राजनीतिक गतिविधि का एक और विशिष्ट स्थान था. अपने चाचा का निर्देश पाकर शिशिर दोपहर को ही पैदल चलते हुए मिनटों में वहां पहुंच गये.
द वैंडरर
शिशिर हमेशा ही अपने दीप्तिमान चाचा, रंगा काका बाबू, का रोब खाते थे. दिसंबर की उस दोपहरी को जब शिशिर उनके शयनकक्ष में दाखिल हुए वह कमजोर और दुबले लग रहे थे. दाढ़ी थोड़ी बढ़ी हुई थी. अपने तकिये के सहारे वह अधलेटे थे. सुभाष ने अपने भतीजे को अपनी दाहिनी ओर बैठने के लिए कहा. शिशिर को कुछ मिनटों तक तेज नजरों से देखने के बाद सुभाष ने पूछा, ‘‘आमार एकटा काज कोरते पारबे?’’ (क्या तुम मेरा एक काम कर सकते हो?). काम के संबंध में बगैर कुछ जाने शिशिर ने सहमति में सिर हिलाया. काम था, जो बाद में पता चला.
सुभाष की भारत से निकासी की योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना. शिशिर को अपने चाचा को रात के वक्त कलकत्ता से खासे दूर एक रेलवे स्टेशन पर गाड़ी चला कर पहुंचाना था. सुभाष ने जोर दिया कि उन्हें एक, ‘फुल-प्रूफ’ प्लान बनाना होगा. किसी को पता नहीं चलना चाहिए, सिवाय शिशिर की चचेरी बहन इला के, जो उनकी गुप्त निकासी के बाद लोगों को यह विश्वास दिलायेगी कि वह अब भी घर में हैं.
अगले दिन शाम से सुभाष और शिशिर अपनी योजना को सटीक बनाने के लिए रोजाना ही बातचीत में जुट जाते. भतीजे के लिए अपने बीमार चाचा के पास आना सामान्य ही था, फिर भी उनकी लगातार आमद के लिए अतिरिक्त सावधानी के लिए बहाना बनाया गया. शिशिर रेडियो ठीक करने में माहिर थे और दर्शाया गया कि वह सुभाष को विदेशी रेडियो ब्रॉडकास्ट सुनने में मदद कर रहे हैं. 38/2 एल्गिन रोड से निकलने के विभिन्न तरीकों पर चर्चा करने के बाद सुभाष और शिशिर घर के मुख्य वाहनमार्ग और दरवाजे से सामान्य तरीके से निकलने पर सहमत हुए. निकासी के लिए दो कारों में से एक का चयन करना था- अमेरिकी स्टडबेकर प्रेसीडेंट, जो कि शिशिर की माताजी, विभावती के नाम पर रजिस्टर्ड थी और दूसरा जर्मन कार जो वैंडरर के नाम से जानी जाती थी, जो कि शिशिर के नाम से रजिस्टर्ड थी. अमेरिकी गाड़ी बड़ी और अधिक शक्तिशाली थी, लेकिन शरत चंद्र बोस की कार के नाम पर आसानी से पहचान में आनेवाली थी. सुभाष और शिशिर ने अपनी यात्रा के लिए वैंडरर को ही उपयुक्त माना. यह तय किया गया कि सुभाष चंद्र बोस अपना वेश बदलेंगे और निकासी की सटीक तारीख उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में व्यवस्था पर निर्भर करेगी.
16 दिसंबर, 1940 को सरकार के एक एजेंट ने रिपोर्ट दी कि सुभाष चंद्र बोस से मिलने के लिए मियां अकबर शाह आ रहे हैं. बोस ने अकबर शाह को कलकत्ता आने के लिए केबल दिया था. पुलिस एजेंट को सरकार के लिए पहली जरूरी और खतरनाक जानकारी हासिल हो गयी थी. यह बात फैला दी गयी कि बोस चाहते थे कि अकबर शाह एक प्रमुख राजनीतिक सम्मेलन आयोजित करें. सुनिश्चित यह करना था कि खुफिया पुलिस उनके इस छल के भुलावे में आ जाये और अपने अधिकारियों को यही सूचित करे.
शिशिर का परिचय मियां अकबर शाह से कराया गया और दोनों मध्य कोलकाता में वाचेल मोल्ला के डिपार्टमेंट स्टोर में गये, जहां अकबर शाह ने बोस की वेशभूषा के लिए दो बैगी सलवार और काला फेज कैप खरीदा. शिशिर ने फिर उन्हें हावड़ा स्टेशन छोड़ दिया, जहां से वह ट्रेन लेकर वापस फ्रंटियर चले गये. आनेवाले दिनों में शिशिर ने एक सूटकेस, एक अटैची केस, एक बेडरोल, एक जोड़ी ढीला-ढाला शर्ट, नित्यकर्म का सामान, तकिया और रजाई अपने चाचा की यात्रा के लिए खरीदा.
यूरोपीय वेशभूषा और सिर पर फेल्ट हैट के साथ उन्होंने प्रिंटिंग की एक दुकान से कॉलिंग कार्ड्स का ऑर्डर दिया, जिस पर लिखा था: ‘मोहम्मद जियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवेलिंग इंस्पेक्टर, द इम्पायर ऑफ इंडिया लाइफ एश्योरेंस कं लि., स्थायी पता : सिविल लाइंस, जबलपुर.’
अपने दोस्तों, परिजनों और राजनीतिक सहयोगियों के साथ सुभाष हमेशा ही जेल में अपनी जल्द वापसी की बातें करते थे. इस बीच, शिशिर नजर रखनेवाले पुलिस पर नजर रख रहे थे. वे सभी एल्गिन रोड और वुडबर्न रोड के कोने में एक चारपाई पर बैठते थे, जहां से वह दोनों बोस घरों पर नजर रख सकते थे. दिन के समय तो वह इलाके में चहलकदमी करते थे, लेकिन सर्दी की ठंड भरी रातों में वह अपनी चारपाई में रजाई के भीतर ही रहना पसंद करते थे.
सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी के बीच आदान-प्रदान हुए पत्र भी सरकार की खोजी नजरों से बच नहीं पाये थे. 1940 के 23 दिसंबर को बोस ने गांधी को भारत की आजादी के लिए उनके द्वारा चलाये जानेवाले किसी भी अभियान के लिए नि:शर्त समर्थन की पेशकश की. गांधी ने 29 दिसंबर को जवाब दिया कि जब तक दोनों में से कोई एक-दूसरे को लड़ाई के तरीके के सवाल पर समझा न ले, तब तक उन्हें, ‘‘अलग-अलग नावों पर सवारी करनी चाहिए’’. बापू ने अपने क्रांतिकारी बेटे को 1940 के 29 दिसंबर को लिखा, ‘‘तुम गैर जिम्मेदार हो, चाहें बीमार रहो या स्वस्थ. पटाखों को छोड़ने के पहले स्वस्थ हो जाअो’’. 1941 की तीन जनवरी को सरकार ने इस पत्र को खोल कर पढ़ा. उन्हें क्या पता था कि क्रांतिकारी ने पहले ही अपने पटाखों के लिए तैयारी कर ली है और वह केवल आग लगाने के सही वक्त का इंतजार कर रहा है.
सभी धार्मिक संस्कारों के प्रति आदर रखनेवाले सुभाष अपने निजी जीवन में विशेष तौर पर परमात्मा को देवी मां के तौर पर देखते थे. एक शाम को सुभाष के निर्देश पर शिशिर ने इला को दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में गाड़ी से छोड़ा, ताकि देवी मां का आशीर्वाद उन्हें अपने प्रयास के लिए मिल सके. सुभाष ने अपनी निकासी के लिए शिशिर को केवल दो दिनों का नोटिस दिया था. शिशिर ने बेडरोल को एल्गिन रोड में पहुंचाया और पवित्र कुरान के दो संस्करण और कुछ दवाओं को अपने साथ लाया, ताकि उन्हें वुडबर्न पार्क में रखे अटैची केस में पैक कर सकें. जाने के एक रात पहले उन्होंने पाया कि जो सूटकेस उन्होंने लाया था, वह वैंडरर के लिए काफी बड़ा है, उसे छोटे सूटकेस से बदलना होगा. इसमें चीनी स्याही से आद्याक्षर ‘एससीबी’ मिटाकर ‘एमजेड’ भी करना था. 16 जनवरी को उन्होंने कार की सर्विसिंग करायी और मेडिकल कॉलेज से घर जल्दी आ गये.
शाम को अपने पिता के साथ वुडबर्न पार्क के जगमगाते छत पर पिता के साथ बात की. शरत को चिंता थी कि सुभाष और शिशिर को चंदननगर के फ्रांसिसी अंत: क्षेत्र में पुलिस द्वारा रोका जा सकता है.
शिशिर ने रात्रि भोजन जल्द खत्म किया. उनकी माताजी उनके करीब चुपचाप बैठी थी. उन्होंने यात्रा के लिए कुछ पैसे दिये और क्षीण मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘‘भगवान जाने तुम लोग क्या कर रहे हो.’’ सामान को बगैर दृष्टि आकर्षित किये सफलतापूर्वक लादने के बाद शिशिर वुडबर्न पार्क से गाड़ी चलाते हुए रात करीब 8.30 बजे एल्गिन रोड पहुंचे और घर के पीछे की सीढ़ियों के पास कार को पार्क कर दिया. ब्रिटिश को धोखा देने के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से घरवालों को भी भ्रमित करना जरूरी था. जिनमें सुभाष की वृद्धा माता भी थीं. शिशिर ने पाया कि उनके रंगा काका बाबू ने पारंपरिक पारिवारिक रात्रि भोज के लिए सिल्क की धोती और चद्दर पहनी है.
खाना मार्बल प्लेट और कटोरियों में दिया गया था. उनके चारों ओर घर के लोग और माता खड़ी थी. उन्होंने उन लोगों को कह दिया था कि वह धार्मिक ध्यान के लिए कुछ समय के लिए एकांत में रहना चाहते थे और वह नहीं चाहते थे कि कोई उन्हें परेशान करें. भविष्य में परदे के पीछे से भोजन दिया जाये. इस बीच सुभाष ने छोटे-छोटे कागज के टुकड़ों पर कुछ नोट्स लिखे थे, ताकि आनेवाले लोगों को उनके काम की प्रकृति के अनुसार, वह सौंपा जा सके.
उन्होंने भविष्य की तारीखवाले कई पत्र भी लिखे थे, जो अधिकतर जेल में रहनेवाले कॉमरेड के लिए लिखे गये थे, जो उनके जाने के बाद क्रम के मुताबिक डाक में दिये जाने थे. 18 जनवरी, 1941 की तिथिवाली एक चिट्ठी उन्होंने हरि विष्णु कामथ को लिखी थी, जिसमें कहा गया था. ‘‘मैं जल्द ही जेल चला जाऊंगा, क्योंकि दो मामले मेरे खिलाफ हैं’’. उन्हें पता था कि पुलिस उस पत्र को खोल कर पढ़ लेगी. घर से निकासी तब तक विलंबित की गयी, जब तक घर के युवा सदस्य सोने न चले गये.
आखिरकार रात करीब 1.35 बजे रास्ता साफ दिख रहा था. सुभाष, मोहम्मद जियाउद्दीन की वेशभूषा में आ गये थे. क्रॉस्ड कॉलर ब्राउन लॉन्ग कोट, चौड़े सलवार और काले फेज के साथ उन्होंने अंडाकार चश्मा पहना था, जिसका रोल्ड गोल्ड का फ्रेम पतला था. वह चश्मा करीब एक दशक से उन्होंने नहीं पहना था.
शिशिर द्वारा लाये गये काबुली चप्पलों में उन्हें दिक्कत हो रही थी, इसलिए लंबी यात्रा के लिए उन्होंने अपना लेसवाला यूरोपियन जूता पहना था. लंबे कॉरीडोर के दीवार के पीछे सुभाष और शिशिर नजदीक थे. बगैर आवाज किये चुपचाप दबे कदमों से पीछे की सीढ़ियों की ओर बढ़े. सुभाष शांतिपूर्वक कार की पिछली सीट पर बायीं ओर बैठें. शिशिर सामने दायीं ओर चालक की सीट पर बैठे, इंजन को चालू किया और वैंडरर बीएलए-7169 को हमेशा की तरह 38/2 एल्गिन रोड से बाहर ले गये. सुभाष के बेडरूम की लाइटें और एक घंटे तक जलती रहीं.
घर के गेट से घूमने के बाद वैंडरर ने दायां मोड़ काटा और एल्गिन रोड और वुडबर्न रोड के कोने से बचते हुए दक्षिण की ओर ऐलेनबी रोड की ओर बढ़ी. जल्द ही शिशिर ने कार को दायीं ओर मोड़ा और लैंसडाउन रोड पर आ गये, ताकि वहां से वह उत्तर की ओर यात्रा कर सकें. उस वक्त कलकत्ता सोया हुआ था, चाचा और भतीजा लोअर सर्कुलर रोड, सियालदह, हैरिसन रोड, हुगली नदी पर बने हावड़ा ब्रिज से होते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के दूसरे शहर में पहुंच गये. चाचा और भतीजे के बीच बातचीत आयरलैंड के साम्राज्य विरोधी संघर्ष पर होने लगी. इसी संघर्ष से सुभाष ने प्रेरणा ली थी. शिशिर को थर्मस से गर्म कॉफी देते हुए सुभाष ने जानना चाहा कि क्या उनके भतीजे को आइरिश नेता इमोन डे वलेरा के 1919 के लिंकन जेल से फरार होने के संबंध में पता है?
शिशिर को पता था कि कैसे डे वालेरा ने अपनी कोठरी की चाबी के मोम की छाप को मंगाया था और कैसे केक के भीतर छिपी हुई चाभी उन तक पहुंचायी गयी थी. लेकिन, उन्हें माइकल कॉलिन्स के संबंध में भी पता था जो आइरिश संघर्ष का एक अन्य महान नायक था, जिसने अति गंभीर मौके पर सोचा था कि उसने बाहर के दरवाजे की चाबी को तोड़ दिया और उसे खो दिया है.
लेकिन, चाबी को फिर से हासिल कर लिया गया था और कॉलिन अपने दोस्त ‘डेव’ की भागने में मदद कर सका था. डे वलेरा के फरार होने के संबंध में चर्चा करते हुए शिशिर को अचानक गाड़ी का ब्रेक रेलवे क्रॉसिंग पर लगाना पड़ा. पेट्रोल के अधिक फ्लो होने से इंजन थम गया था और वैंडरर के फिर से शुरू होने तक कुछ क्षण चिंतापूर्ण गुजरे. बेहद तेजी से शिशिर गाड़ी चलाते हुए दुर्गापुर के जंगल से होते हुए बर्दवान से आगे निकले, तभी उनके सामने भैंसों का एक झुंड आ गया और वैंडरर को एकाएक रुकना पड़ा.
आसनसोल पहुंचते-पहुंचते पौ फट चुकी थी और कलकत्ता से विलंब से निकलने का मतलब था कि आसनसोल से धनबाद तक का सफर, दिन के पूरे उजाले में करना था. सुबह करीब 8.30 बजे शिशिर ने अपने यात्री को धनबाद के करीब बरारी में अपने भाई अशोक के घर से 400 गज दूर उतारा.
शिशिर ने अभी अशोक को पूरा माजरा समझाया ही था कि मोहम्मद जियाउद्दीन नामक उत्तर भारत का एक मुसलमान बीमा के काम के लिए पहुंच गया. अशोक ने उसे कहा कि वह काम पर निकलनेवाले हैं और शाम को उनसे बात हो जायेगी. घर के नौकरों को कह दिया गया कि मेहमान को घर के एक खाली कमरे में रखा जाये और नौकरों की मौजूदगी में ही शिशिर का परिचय जियाउद्दीन से अंगरेजी में कराया गया. अशोक ने दिन का काम खत्म किया और यात्रियों ने आराम किया. बाद में आगंतुक और अशोक के बीच बातचीत हुई. दिखावे के तौर पर कोलफील्ड में काम करने में होनेवाली मुश्किलों के संबंध में चर्चा हुई.
सुभाष ने अपना फैसला बता दिया था कि बंगाल के आसनसोल की अपेक्षा बिहार के गोमो से ट्रेन पर चढ़ना अधिक बेहतर रहेगा. शिशिर को गोमो के रास्ते के संबंध में ठीक से जानकारी नहीं थी. वह चाहते थे कि उनके भाई दिशा बतानेवाले के तौर पर रहें. लेकिन, अशोक उस इलाके में अपनी पत्नी को रात को अकेले छोड़ने में हिचकिचा रहा था. लिहाजा यह फैसला किया गया कि शिशिर की साली, मीरा भी उनका साथ देगी. रात्रि भोज जल्द खत्म करने के बाद मोहम्मद जियाउद्दीन ने बाकी दोनों बोस से विदा ली. दोनों बोस दोस्तों से मिलने जाने के लिए तैयार हो रहे थे. बरारी के घर से कुछ दूरी पर जियाउद्दीन को वैंडरर में वापस बैठा लिया गया और शिशिर गोमो के रास्ते पर चल पड़े.
देर रात से पहले दिल्ली-कालका मेल गोमो स्टेशन पर नहीं पहुंचनेवाली थी. इसलिए रास्ते में दो बार वैंडरर रुकी. दोनों बोस पेड़ के नीचे बैठ कर वहां से गुजर रहे बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज सुन रहे थे.
गोमो के करीब धान के खेत में वह रुके. वहां से चमचमाते चांद की रोशनी में पारसनाथ पहाड़ी की आकृति दिखाई दे रही थी. गोमो रेलवे स्टेशन के यार्ड में एक कूली आया और उनके सामान को उठा लिया. रंगा काका बाबू ने कहा, ‘‘मैं चला, अब तुम जाओ’’. शिशिर उन्हें देखते रहे, ‘‘उन्होंने ओवरब्रिज को कूली के पीछे धीरे-धीरे चलते हुए क्रॉस किया और अपने हमेशावाली शानदार चाल के साथ प्लेटफॉर्म की विपरीत दिशा के अंधेरे में लुप्त हो गये’’. कलकत्ता की ओर से दिल्ली कालका मेल गड़गड़ाहट के साथ पहुंची. कुछ देर बाद शिशिर ने ‘‘ट्रेन की सीटी सुनी और रोशनियों की माला पहियों की लयबद्ध आवाज के साथ दूर से दूर होती गयी.’’
(लेखक सुगत बोस तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा के सांसद तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के पौत्र हैं. वह एक इतिहासकार भी हैं.
उन्होंने वर्ष 2001 तक टफ्ट्स यूनिवर्सिटी में पढ़ाया था. इसके बाद उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में ओशियानिक हिस्ट्री एंड अफेयर्स में गार्डिनर चेयर को स्वीकार किया. वह नेताजी रिसर्च ब्यूरो में निदेशक तथा प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता के मेंटर ग्रुप के चेयरमैन भी हैं.)
नोट: सभी फोटो, साभार नेताजी रिसर्च ब्यूरो
बड़े परदे पर ‘नेताजी’ ने ताजी सुभाषचंद्र बोस की ख्याति से फिल्म जगत भी अछूता नहीं है. उनकी जीवनी को परदे पर लाने का पहला श्रेय रमेश सहगल को जाता है. उन्होंने वर्ष 1950 में ‘समािध’ नाम से देशभक्ति फिल्म बनायी, जो नेताजी व उनकी आर्मी को समर्पित थी. फिल्म में हीरो थे अशोक कुमार. अन्य कलाकारों में नलिनी जयवंत, कुलदीप कौर, श्याम, एसएल पुरी, बदरी प्रसाद, शशि कपूर, कॉलिन्स आदि शामिल थे. फिल्म को सी रामचंद्र ने संगीतबद्ध किया था. इस फिल्म ने करीब एक करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था.
फिर, 1966 में बांग्ला फिल्म निर्देशक हेमन गुप्ता ने नेताजी के जीवन पर फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ बनायी. इसमें अभि भट्टाचार्य, जयमाला, मैक्स वर्थ, बिपिन गुप्त, उल्हास, पद्मा देवी, कमल कपूर आदि ने भूमिका निभायी. इसमें कवि प्रदीप के गीतों को सलिल चौधरी ने संगीतबद्ध किया था और मोहम्मद रफी, मन्ना डे, सविता बनर्जी व हेमंत कुमार ने आवाज दी थी.
वर्ष 2005 में मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल ने करीब 35 करोड़ की लागत से फिल्म ‘बोस- द फोरगोटन हीरो’ बनायी. इसमें सचिन खेडेकर ने नेताजी का महत्वपूर्ण किरदार निभाया. फिल्म में वर्ष 1941 से लेकर 1945 तक के बीच के नेताजी का जीवन दिखाया गया है. इस फिल्म के अन्य कलाकारों में ईला अरुण, पंकज बैरी, नलिनी चटर्जी, प्रदीप कुमार दास, दिव्या दत्ता, रजत कपूर, अहमद खान, कुलभूषण खरबंदा, कुणाल मित्रा, लालबहादुर बाबू पंडित, सुरेंद्र राजन, राजेश्वरी सचदेव, सुनील सिन्हा, ललित तिवारी, राजपाल यादव, आरिफ जकारिया शामिल थे.
अब फिल्म निर्माता तिग्मांशु धूलिया ने सुभाष चंद्र बोस पर फिल्म निर्माण का फैसला किया है. यह फिल्म वर्ष 1945 में आजाद हिंद फौज के ऐतिहासिक मुकदमे लाल किला ट्रायल पर आधारित होगा.
नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका. साहित्य जगत भी सुभाष चंद्र बोस से प्रेरित रहा. उनके चरित्र व कृतित्व पर कई किताबें लिखी गयीं. इनमें अंगरेजी भाषा के लेखकों का अधिक योगदान रहा. दूसरी ओर, िफल्म जगत ने भी रूपहले परदे पर सुभाष बाबू को अपनी श्रद्धांजलि दी है. आम लोगों की तरह लेखकों और फिल्मकारों को भी नेताजी का चरित्र हमेशा अपनी ओर आकर्षित करता रहा है. उन पर लिखी गयीं किताबों व फिल्मों पर एक नजर…
अंगरेजी में
1. द एसेंशियल राइटिंग्स ऑफ नेताजी सुभाषचंद्र बोस, संपादन: शिशिर कुमार बोस एवं सुगत बोस, ऑक्सफोेर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस
2. हिज मैजेस्टीज अपोेनेंट: सुभाष चंद्र बोस एंड इंडियाज स्ट्रगल एगेंस्ट एंपायर, सुगत बोस, एलेन लेन
3. ए बीकन एक्रॉस एशिया: ए बायोग्राफी ऑफ सुभाष चंद्र बोस, शिशिर कुमार बोस, ए वर्द, एसए अय्यर, रैंडम हाउस इंडिया
4. एन आउटसाइडर इन पॉलिटिक्स, कृष्णा बोस, पेंगुइन बुक्स इंडिया
5. ब्रदर्स एगेंस्ट द राज ए बायोग्राफी ऑफ इंडियन नेशनलिस्ट्स: शरत एंड सुभाष चंद्र बोस
चंद्रा बोस, रैंडम हाउस इंडिया
6. नेताजी सुभाष चंद्र बोस: ए कन्साइज बायोग्राफी, शिशिर कुमार बोस, नेशनल बुक ट्रस्ट
7. इंडियाज बिगेस्ट कवर अप, अनुज धर, वितस्ता
8. द लॉस्ट हीरो: ए बायोग्राफी ऑफ सुभाष बोस, मिहिर बोस, विकास पब्लिशिंग
9. सुभाष चंद्र बोस: द मैन एंड हिज टाइम्स, लेफ्टिनेंट जेनरल एरिक ए वास, लांसर पब्लिशर्स
10. सुभाष चंद्र बोस, संपादन: सउद अख्तर, मित्तल पब्लिकेशंस.
11. सुभाष चंद्र बोस, ह्यू टॉई, जैको पब्लिशिंग हाउस.
12. सुभाष चंद्र बोस: द इंडियन लेफ्टिस्ट्स एंड कम्युनिस्ट्स, गौतम चट्टोपाध्याय, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस
9. सुभाष चंद्र बोस: द मैन एंड हिज विजन, मुचकुंद दुबे, हर-आनंद पब्लिकेशंस
10. सुभाष चंद्र बोस: ए बायोग्राफी, गौतम चट्टोपाध्याय, एनसीइआरटी
11. सुभाष चंद्र बोस: ए बायोग्राफी, मार्शल जे गेट्ज, मैकफारलैंड
12. सुभाष चंद्र बोस: ए साइकोएनालिटिकल स्टडी, स्वागत घोष, मिनर्वा एसोसिएट्स
13. सुभाष चंद्र बोस: एक्सीलेरेटर ऑफ इंडियाज इंडिपेंडेंस, दया मुखर्जी, ज्ञान बुक्स
14. सुभाष चंद्र बोस: एंड मिड्ल क्लाास रैडिकलिज्म, बिद्युत चक्रवर्ती, आइबी टॉरिस
15. सुभाष चंद्र बोस: एंड द इंडियन नेशनल मूवमेंट, हरिहर दास, स्टर्लिंग पब्लिशर्स
16. सुभाष चंद्र बोस: द ब्रिटिश प्रेस, इंटेलीजेंस एंड पार्लियामेंट, नंदा मुखर्जी, जयश्री प्रकाशन
17. सुभाष चंद्र बोस: पॉलिटिकल फिलॉसफी, श्रीधर चरण साहू, एपीएच
18. नेताजी सुभाष चंद्र बोस: हिज ग्रेट स्ट्रगल एंड मार्टिरडम, तातसुओ हायाशिदा और बिश्वनाथ चट्टोपाध्याय, एलाइड पब्लिशर्स
19. नेताजी सुभाष चंद्र बोस एंड इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल (दो खंड में), रत्ना घोष, दीप एंड दीप
20. नेताजी सुभाष चंद्र बोस, फ्रॉम काबुल टू बैट्ल ऑफ इंफाल, एचएन पंडित, स्टर्लिंग पब्लिशर्स
हिंदी में
1. महानायक, विश्वास पाटील, भारतीय ज्ञानपीठ
2. सुभाष: एक खोज, राजेंद्रमोहन भटनागर, किताबघर प्रकाशन
3. सुभाष चंद्र बोस, आशा गुप्त, आत्माराम एंड संस
4. नेताजी सुभाष चंद्र बोस, परवीन भल्ला, प्रभात प्रकाशन
5. क्रांतिवीर सुभाष, डॉ गिरिराज शरण अग्रवाल, डायमंड पॉकेट बुक्स
6. अमर चित्रकथा: सुभाष चंद्र बोस, इंडिया बुक हाउस
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