पंजाब की राजनीति में आम आदमी पार्टी (आप) की दावेदारी से राजनीतिक मुक़ाबला त्रिकोणीय हो गया है, जिसमें एक ओर कांग्रेस पार्टी है तो दूसरी ओर भाजपा और अकाली दल गठबंधन है.
बीते 14 जनवरी को पंजाब के मुक्तसर में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सभा में उमड़ी भीड़ को ना तो कांग्रेस ही नज़रअंदाज़ कर सकती है और न ही अकाली दल.
आप पंजाब में सशक्त राजनीतिक दल के तौर पर दिखाई तो दे रही है लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या आप मनप्रीत बादल की पार्टी से बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी?
मनप्रीत बादल की पीपल्स पार्टी ऑफ़ पंजाब (पीपीपी) ने 2012 के चुनाव के दौरान पांच फ़ीसदी वोट हासिल किए थे.
हालांकि उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में बीते शुक्रवार को कर लिया जो कांग्रेस के लिए राहत की बात है.
इसके बावजूद भी मनप्रीत फ़ैक्टर और आम आदमी पार्टी की स्थिति के बीच तुलना ज़रूरी है.
इससे ये पता लगाया जा सकता है कि आम आदमी पार्टी पंजाब में भी अपना कितना प्रभाव क़ायम रख सकेगी.
क्या होगी समस्या?
आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी समस्या ये हो सकती है कि कांग्रेस ने बिहार में बेहतर प्रदर्शन कर पूरे देश में अपनी वापसी के संकेत दिए हैं.
गुजरात और मध्य प्रदेश के चुनाव में भी कांग्रेस को मिली सफलता इसकी तस्दीक़ करती है.
कांग्रेस पार्टी के बारे में ऐसी अटकलें भी हैं कि पार्टी राज्य में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) से तालमेल करने की कोशिश कर रही है, जिसे पंजाब के दो विधानसभा के चुनावों में पार्टी को चार से छह प्रतिशत वोट मिले थे.
वैसे मनप्रीत बादल ने अपनी पार्टी का गठन, अकाली दल का विरोध करते हुए किया था.
2012 के चुनाव में हार के बाद पार्टी के प्रमुख चेहरों में एक भगवंत मान आम आदमी पार्टी में चले गए और लोकसभा का चुनाव जीतने में कामयाब रहे.
मनप्रीत की पार्टी की मुश्किल ये रही कि बूथ स्तर तक उनके पास काडर नहीं थे.
वहीं दूसरी तरफ़ भगवंत मान की अगुवाई में आम आदमी पार्टी पीपीपी की ग़लतियों से सबक़ लेकर आगे बढ़ती दिख रही है.
हालांकि संसदीय पार्टी में बिखराव हुआ है और पार्टी ने अपने दो सांसदों को निलंबित किया है.
मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कौन
ये दोनों पार्टी से निकाले गए नेता योगेंद्र यादव के समर्थक बताए जा रहे हैं. इसके बावजूद पार्टी बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं को खड़ा करने में कामयाब रही है.
लोकसभा चुनाव में राज्य में पार्टी को 24 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे.
पंजाब के लोगों को बताने के लिए पार्टी के पास दिल्ली में कामयाबी का रिकॉर्ड भी है.
इन सबके बावजूद, एक कमी है जो पार्टी को जीत तक पहुंचने से रोक सकती है, पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद के लिए उपयुक्त चेहरे का अभाव है.
लेकिन कई बार ऐसी स्थिति में फ़ायदा भी होता है, जैसा कि हरियाणा चुनाव के दौरान भाजपा को हुआ.
तब हर समुदाय यही सोचता है कि उसके उम्मीदवार के मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा है. एक साल पहले ही भाजपा ने हरियाणा में ज़ोरदार जीत हासिल की है. यह पंजाब में भी हो सकता है.
आम आदमी पार्टी को मालूम है कि मुख्यमंत्री पद के लिए किसी उम्मीदवार की घोषणा या विभिन्न जगहों से खड़े होने वाले उम्मीदवारों की घोषणा से पार्टी में नए आने वाले सदस्यों का उत्साह कम हो सकता है.
पार्टी की कोशिश यही है कि सभी लोगों को साथ में लेकर पार्टी के प्रति एक माहौल बनाया जाए. माहौल बन जाने पर, उम्मीदवार के चयन से फ़ायदा होगा.
तब अगर कोई टिकट पाने से रह जाता है और विद्रोह भी करता है तब भी कोई असर नहीं होगा क्योंकि उनकी अपनी कोई राजनीतिक छवि नहीं होगी.
आम आदमी पार्टी ये भी कोशिश कर रही है कि कोई क़द्दावर राजनेता पार्टी में प्रवेश नहीं करे इससे सभी कार्यकर्ता पार्टी से टिकट पाने की उम्मीद तो कर ही सकते हैं.
दलितों पर नज़र
राजनीतिक गलियारे में ये भी चर्चा थी कि मनप्रीत बादल पहले आम आदमी पार्टी में शामिल होना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने उनके सामने मुश्किल शर्तें रख दीं.
आम आदमी पार्टी राज्य में दलितों की मौजूदगी को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है. राज्य की क़रीब एक तिहाई आबादी दलित है.
यह देश के किसी भी राज्य में दलितों की सबसे ज़्यादा संख्या है. दलित भी आम आदमी पार्टी के पक्ष में नज़र आने लगे हैं.
दलित या फिर परंपरागत तौर पर वामपंथी पार्टियां, असंतुष्ट अकाली या नाख़ुश कांग्रेसी, सब आम आदमी पार्टी को उम्मीद से देख रहे हैं.
पंजाब में राजनीतिक विचारधारा के चलते अगर कोई कांग्रेसी अपनी पार्टी से नाराज़ भी हो तो वह सांप्रदायिक अकाली दल को अपना वोट नहीं दे सकता.
यही स्थिति अकाली दल से असंतुष्टों की है. वे अपना वोट कथित सिख विरोधी कांग्रेस को नहीं दे सकते. ऐसे लोगों के लिए आम आदमी पार्टी पहली पसंद हो सकती है.
इन सबसे बढ़कर केजरीवाल का विद्रोही स्वभाव, उन पंजाबियों को आकर्षित कर सकता है क्योंकि वे किसी भी अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को तैयार रहते हैं.
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