हमें शरीर को स्वस्थ रखना है, मगर औषधियों, पोषक तत्वों या भोजन के ही बल पर नहीं,बल्कि हमें उचित विचार, दर्शन, सिद्धांत और विश्वास की पूर्ति भी करनी है. इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि हम ‘ध्यान योग’ को अपनाएं, क्योंकि इसी से मन विकसित होता है और नाम-रूप की सीमा से निकल कर मनुष्य अनंत में विचरण करता है.
जब योगाभ्यासी कुंडलिनी जागरण द्वारा शक्ति को सहस्नर में पहुंचाने में समर्थ होता है,तो वह शरीर, मन व आत्मा का स्वामी बन जाता है. स्वास्थ्य का रहस्य है-प्राण, मनस् व आत्म-शक्तियों का उचित एवं संतुलित वितरण. योग शास्त्र में हठ योग के अभ्यास द्वारा शरीर-शुद्धि, प्राणायाम के द्वारा नाड़ी-शुद्धि और ध्यान द्वारा आध्यात्मिक शक्ति का विकास कर मन, प्राण व आत्मशक्तियों को संतुलित किया जा सकता है. इसलिए हठयोग, राजयोग, क्रियायोग आदि जैसे योग के विभिन्न अंग और अभ्यास न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत शक्तिशाली उपकरण है. संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए हमारे जीवन का आधार आध्यात्मिक होना जरूरी है. लेकिन इस युग में हमने घोड़ों के आगे रथ को बांध दिया है. हम सोचते हैं कि शारीरिक जीवन मूल है और आध्यात्मिक जीवन सहयोगी. किंतु उसे उल्टा ही होना चाहिए था. मनुष्य का आधारभूत जीवन आध्यात्मिक है. स्थूल जीवन तो उसका एक अंग मात्र है. इसी प्रकार हम मानसिक स्तर पर कई गलतियां करते आ रहे हैं. सर्वप्रथम तो हमने मन की उपेक्षा की है. यही कारण है कि हम दु:खी और अस्वस्थ हो गये हैं. जब हम योगमय जीवन अपनाते हैं, तो सर्वप्रथम आत्मा हमारे लिए प्रमुख तत्व हो जाती है और उसके बाद आते हैं मन तथा शरीर. भौतिक दर्शन में शरीर ही सर्वेसर्वा हो गया है, मगर योग दर्शन के अनुसार शरीर ही अंतिम नहीं है. यह शरीर हमारे अस्तित्व का एक अंग मात्र है.
ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं
ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता. एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है. आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है, जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है. बहुत से लोग क्रि याओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रि या, भावातीत ध्यान और सहज योग ध्यान दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है. बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्र ांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है. क्रि या और ध्यान में फर्क है. क्रि या तो साधन है साध्य नहीं. क्रि या तो ओजार है. क्रि या तो झाड़ू की तरह है. आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है. किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है. माला जपना भी ध्यान नहीं है. अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है. ध्यान है क्रि याओं से मुक्ति. विचारों से मुक्ति. हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं. इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है. हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है. आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं. ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है.
स्वामी सत्यानंद सरस्वती