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जिन्हें वो दफ़नाता था, वो सपनों में आते थे

माजिद जहांगीर श्रीनगर से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए आज की भागमभाग वाली दुनिया में कोई शख्स सालों तक अनजानी और नामालूम लाशों को सुपुर्द-ए-ख़ाक करता रहा. शायद आप इस बात पर यक़ीन न करें. लेकिन भारत प्रशासित जम्मू कश्मीर में यह बात किसी से पूछें, तो हर कोई आपको अता मोहम्मद ख़ान के […]

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आज की भागमभाग वाली दुनिया में कोई शख्स सालों तक अनजानी और नामालूम लाशों को सुपुर्द-ए-ख़ाक करता रहा. शायद आप इस बात पर यक़ीन न करें.

लेकिन भारत प्रशासित जम्मू कश्मीर में यह बात किसी से पूछें, तो हर कोई आपको अता मोहम्मद ख़ान के बारे में कुछ न कुछ ज़रूर बताएगा. जितने मुँह उतनी बातें.

यही वजह है कि 75 साल की उम्र में अता मोहम्मद ख़ान का जब निधन हुआ, तो श्रीनगर से 90 किलोमीटर दूर चाहाल बेनियर उरी गांव में उनके घर लोगों का तांता लग गया.

अता मोहम्मद बीते तीन साल से गुर्दे की बीमारी से जूझ रहे थे. उन्होंने बीते कई साल से नामालूम लाशों को सुपुर्द-ए-ख़ाक करने के लिए क़ब्रें खोदने का काम किया.

इस वजह से उनका नाम देश-दुनिया में चर्चित हो गया था.

आठवीं तक पढ़े अता मोहम्मद ने 11 साल तक सूबे के बिजली विभाग में काम किया था. बाद में उनकी नौकरी जाती रही. लेकिन क़ब्रें खोदने का सिलसिला थमा नहीं.

घर के पास ही क़ब्रिस्तान था, जहां वह यह काम करने लगे. साथ में खेती-बाड़ी भी थी.

उन्होंने 2002 से 2007 के बीच चाहाल बेनियर उरी गांव में 235 ऐसी क़ब्रें उन लोगों के लिए खोदीं, जिनके बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं था.

अता मोहमद के बड़े बेटे मंज़ूर अहमद ख़ान बताते हैं, "उस ज़माने में यहाँ एनकाउंटर बहुत ज़्यादा होते थे. पिताजी को भारतीय सेना और पुलिस के लोग हर दिन क़ब्रें खोदने को कहते थे."

मंज़ूर ने बताया कि जब भी उनके पिता किसी अनजान शख्स की क़ब्र खोदते और उसे दफ़नाते, उसके बाद वह बहुत परेशान रहते थे.

वह बताते हैं, "वह अक्सर कहते कि जिन बेनाम लोगों को मैं दफ़नाता हूँ, वे मेरे सपनों में आते हैं. जो लाशें उनके पास लाई जाती थीं, उनमें से कोई जली होती थी तो किसी का चेहरा नहीं होता था. इन हालात में पिताजी के दिल और दिमाग़ पर काफ़ी दबाव रहता था."

मंज़ूर अहमद कहते हैं कि वह अपने पिता की विरासत आगे बढ़ाएंगे.

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मंज़ूर ने बताया कि सेना और पुलिस ने कभी क़ब्रें खोदने का मेहनताना नहीं दिया, बल्कि उल्टे वो उनको धमकाते थे.

अता मोहम्मद के रिश्तेदार और गांव के नंबरदार मुफ़्ती क़य्यूम ख़ान कई बार अता मोहम्मद के साथ क़ब्रिस्तान जाते और लाशें दफ़नाए जाने तक उनके साथ रहते थे.

वह कहते हैं, "मेरा उनके साथ गहरा लगाव था. कभी-कभी वह मुझे उस समय बुलाते जब उनको किसी बेनाम लाश को दफ़नाना होता था. उन्होंने मुझसे कह रखा था कि मेरे लिए अपने हाथों से क़ब्र खोदना."

क़य्यूम ख़ान एक वाकया बताते हैं जब अता मोहम्मद को एक दिन में नौ शव दफ़नाने पड़े थे. वह कहते हैं, "उस दिन नौ बेनाम लाशें सेना और पुलिस लेकर आई थी. अता मोहम्मद को सबके लिए क़ब्रें खोदनी पड़ी थीं. वह उसके बाद बहुत परेशान हो गए थे."

साल 2008 में अता मोहमद कश्मीर में उस समय बहुत मशहूर हुए जब एसोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसएपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी) ने बेनामी लाशों और उनकी क़ब्रों को लेकर एक रिपोर्ट जारी की.

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