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ईमानदार विकल्प चुनने को जनता तैयार

।। पुण्य प्रसून बाजपेयी।। ( वरिष्ठ टीवी पत्रकार) चार राज्यों का जनादेश पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ है. इस जनादेश ने पहली बार यह संकेत भी दे दिया है कि कांग्रेस या भाजपा से इतर कोई ठोस राजनीतिक विकल्प अगर ईमानदारी से खड़ा होता है तो जनता उसके साथ खड़े होने के लिए तैयार […]

।। पुण्य प्रसून बाजपेयी।।

( वरिष्ठ टीवी पत्रकार)

चार राज्यों का जनादेश पूरी तरह से कांग्रेस के खिलाफ है. इस जनादेश ने पहली बार यह संकेत भी दे दिया है कि कांग्रेस या भाजपा से इतर कोई ठोस राजनीतिक विकल्प अगर ईमानदारी से खड़ा होता है तो जनता उसके साथ खड़े होने के लिए तैयार है. इन चुनावों में जिन जगहों पर कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने थीं, वहां कांग्रेस के खिलाफ जनादेश बहुत साफ नजर आया, लेकिन गौर करनेवाली बात यह है कि दिल्ली में भी वही कांग्रेस थी, जो हारी है राजस्थान में, जो हारी है छत्तीसगढ़ में, जो हारी है मध्यप्रदेश में, लेकिन दिल्ली में भाजपा के हक में चुनाव परिणाम नहीं गया, बल्कि आम आदमी पार्टी के हक में गया, जो अभी डेढ़ बरस पहले ही खड़ी हुई है. दो बड़े संकेत यहीं से उभरते हैं. पहला, इन चुनाव परिणामों ने बता दिया है कि 2014 का आम चुनाव कांग्रेस के खिलाफ जा रहा है. दूसरी बड़ी बात यह उभर रही है कि जिस तरह से नरेंद्र मोदी को सामने लेकर भाजपा आयी और कहीं भी किसी भी रैली में राहुल गांधी उनके सामने टिक नहीं रहे थे, ऐसे में यह माना जाने लगा कि मोदी एक ऐसे नेता के तौर पर उभर रहे हैं, जिनका कद भाजपा से बड़ा है.

आम आदमी पार्टी की जीत ने यह संकेत दे दिया है कि अगर कोई ईमानदार विकल्प 2014 तक सामने आता है तो जनता उसे स्वीकार करेगी. जंतर-मंतर या रामलीला मैदान से यह सवाल खड़े हुए थे कि राजनीतिक तौर पर भाजपा और कांग्रेस एक सरीखे हो गये हैं, इस देश के तमाम राजनीतिक दल आपस में जोड़-तोड़ करके सत्ता पाने के खेल में जुटे हैं और उनके सरोकार जनता से नहीं हैं, ऐसे में एक आंदोलन से निकली हुई पार्टी को सत्ता मिलेगी या नहीं? इसका जवाब मिल गया है. दिल्ली इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि दिल्ली में देश के कमोबेश हर जगह के लोग रहते हैं. दिल्ली में विषमता भी ज्यादा है. दक्षिणी दिल्ली और पूर्वी दिल्ली दोनों क्षेत्र अलग-अलग दो जीवन को जीते हैं. ठीक ऐसे ही पुरानी दिल्ली का इलाका अलग है, लेकिन दिल्ली के नक्शे पर जिन ढाई दर्जन सीटों पर आम आदमी पार्टी जीती है, वे सभी इलाकों में फैले हैं. ऐसा नहीं है कि वे सीटें सिर्फ बस्तियों या पॉश इलाकों में जीती गयी हैं. सब जगह पर आम आदमी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया है.

सबसे बड़ी बात है अरविंद केजरीवाल की जीत, वह भी शीला दीक्षित को हरा कर. सिर्फ शीला दीक्षित ही नहीं, बल्कि दिल्ली के पांच मंत्री, जो कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं, को हरा कर आम आदमी पार्टी ने जीत दर्ज की है. इसका अर्थ यह है कि भाजपा के उम्मीदवारों में भी यह ताकत नहीं थी कि वे उन्हें हरा सकें, लेकिन आम आदमी पार्टी ने यह कर दिखाया. इससे जाहिर है कि 2014 में एक राजनीतिक विकल्प किसी ईमानदार नेता के साथ उभर सकता है. वह नेता कोई भी हो सकता है. एक संकेत तो यह है.

यह चर्चा बार-बार उठती रही है कि क्या वाकई नरेंद्र मोदी 2014 तक बढ़ेंगे? 2014 को लेकर कांग्रेस कहती रही है कि लोकसभा चुनाव को विधानसभा चुनावों से इतर देखना होगा. इससे हट कर सोचना होगा. फिलहाल जिन जगहों पर राहुल गांधी की रैलियां हुईं, वहां कांग्रेस को करीब 60 फीसदी वोटों का घाटा हुआ है और जिन जगहों पर मोदी की रैलियां हुईं, वहां भाजपा को 60 से 80 फीसदी तक का फायदा हुआ है. इसमें मध्य प्रदेश खास तौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि वहां की 16 सीटें मुसलिम बहुल हैं. पिछली बार इन 16 सीटों में से दो पर कांग्रेस जीती थी, लेकिन इस बार उसके हिस्से में वह भी नहीं आयी. यानी शिवराज सिंह चौहान राजनीतिक तौर पर एक नयी पहचान लेकर उभरे हैं. शिवराज के शासन में दंगे नहीं हुए, वे टोपी पहनने को भी तैयार रहते थे, नीतियों में भी सुधार लाते हैं, जो सीधे तौर पर भाजपा की उस मूलभूत संस्कृति को पकड़ते हैं, जिससे आरएसएस को लगता है कि उसका फैलाव हो रहा है और दूसरी तरफ वे सरोकार करते हुए भी दिखते हैं. इस तरह कहीं न कहीं मध्य प्रदेश में वे भाजपा से बड़े कद के नेता हो गये हैं. इससे आने वाले वक्त का दूसरा संकेत यह है कि अगर नरेंद्र मोदी नहीं तो क्या शिवराज सिंह चौहान? क्योंकि दिल्ली में बैठे नेताओं से इतर देखने का प्रयास आरएसएस बार-बार करता रहा है. वह इन चीजों को समझ रहा है कि अगर यह संकेत आगे बढ़ते हैं, और अपने बूते भाजपा 2014 में सरकार नहीं बना पाती है तो उसे समर्थन की जरूरत पड़ेगी. भाजपा के कई केंद्रीय नेता और मोदी से हारे हुए नेता, जैसे सुषमा स्वराज, आडवाणी आदि मोदी की अपेक्षा शिवराज सिंह को ही पसंद करते हैं. शिवराज का कद आगे बढ़ेगा, यह संकेत है.

इस दौर में दो-तीन चीजें और भी स्पष्ट हो गयीं. राजस्थान में हमेशा से औरा रहा है गांधी परिवार का. लेकिन यह पहली बार नजर आया कि जो नौ रैलियां राहुल गांधी ने कीं और दो रैलियां सोनिया गांधी ने कीं, इन रैलियों का कोई असर नहीं हुआ. जबकि नरेंद्र मोदी का औरा इस रूप में काम किया कि मोदी ने 22 रैलियां कीं और कुछ जगहों पर तो राजस्थान में इतनी छोटी जगह पर कीं, जहां पर रास्ता नहीं था, ऊंट से जाना पड़ता था. असर यह है कि भाजपा के भीतर के समीकरण भी इससे निकल रहे हैं और गांधी परिवार और कांग्रेस का संकट भी यहीं से निकल रहा है. यही कारण है कि हार के बाद अशोक गहलोत को बोलना पड़ा कि महंगाई और यूपीए का भ्रष्टाचार एक वजह रही हार के लिए. मोदी तो हमेशा गांधी परिवार और कांग्रेस पर ही हमला बोलते नजर आये. अपनी 42 रैलियों में नरेंद्र मोदी गांधी परिवार और मनमोहन सिंह सरकार को ही कोसते नजर आये. इसका अर्थ यह भी है कि 2014 के आम चुनाव के लिए संकेत इन विधानसभा चुनावों से निकल कर आ रहे हैं.

इस बार यह मिथ टूट गया कि मुसलिम वोट एकजुटता के साथ कांग्रेस को जाता था. यह इस बार उसे नहीं गया. इस बार जातीय राजनीति नहीं हुई, यह भी राजस्थान में नजर आ गया, क्योंकि मीणा वोट को पकड़ने के लिए गहलोत ने तुरुप का पत्ता फेंका था, और समझौता कर लिया था. वह भ्रम भी टूट गया. पहली बार एक और चीज नजर आ रही है कि विकास का जो नारा है, अगर इस नारे को गहलोत लगाते हैं तो वह नहीं चलता है, लेकिन शिवराज सिंह चौहान लगाते हैं तो वह चल जाता है. इसका अर्थ यह है कि केंद्र में बैठ कर जो राष्ट्रीय नीति बनायी जा रही है, वो इस दौर में इतना हावी है कि वह विकास भी मुद्दा खोजने लगा है. शायद इसीलिए हमको बार-बार एक विकल्प की ओर देखना पड़ता है. आम आदमी पार्टी ने जो छोटे-छोटे मुद्दे उठाये, महंगाई को भ्रष्टाचार से जोड़ा, यह ऐसी परिस्थिति है जिसमें यह समझ में आया है कि विकास सिर्फ आधारभूत संरचना, इंफ्रास्ट्रर आदि नहीं है. विकास सिर्फ बिजली, पानी, सड़क में सुधार का मसला नहीं है, बल्कि इसके पीछे के भ्रष्टाचार का मसला बड़ा है. इस तरह पारंपरिक राजनीति के खिलाफ दिया गया यह एक ऐसा जनादेश है जो आने वाले वक्त में तमाम राजनीतिक दलों को चेतायेगा कि या तो आप तरीके बदल लीजिये, दागियों को छोड़िये, भ्रष्ट लोगों को छोड़िये, अपराधियों को छोड़िये, जनता से जोड़ कर नीति बनाइये, नहीं तो आपकी मात होगी. कोई भी ईमानदार विकल्प अगर नये तौर पर खड़ा होगा तो वह आपको धराशायी कर देगा. यह बेहद महत्वपूर्ण संकेत है.

युवाओं की नयी राजनीति

यूथ फैक्टर इस चुनाव का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है, क्योंकि पहली बार नजर आ रहा है दिल्ली में आम आदमी पार्टी के दफ्तर के सामने झाड़ू और तिरंगा लेकर खड़ा हुआ युवा तबका गिटार भी बजा रहा है और हाथ में झाड़ू भी लिये हुए है. वह गीत भी गा रहा है और नारे भी लगा रहा है. अपने सुरीले वक्तव्यों से बधाई भी दे रहा है और अपने आक्रोश को भी जता रहा है. यानी अगर यह तबका समाज के भीतर इतना प्रभावी हो चला है, जो वालंटियर भी है और नेता नहीं है लेकिन नेता की कैटगरी में आ भी सकता है, तो ये संकेत देश भर में उन युवाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, जिनको काम देने की स्थिति में न तो भाजपा रही और न कांग्रेस रही. कहीं न कहीं पहली बार एक राजनीतिक लकीर ऐसी खिंच रही है, जिसमें वह युवा तबका अपने आपको जोड़ने का प्रयास करेगा, जिस तबके लिए जगह कांग्रेस और भाजपा में इसलिए नहीं बन रही थी कि वहां विरासत और परिवारवाद की राजनीति थी. यहां पर युवा तबका स्वतंत्र है, स्वच्छंद है और शायद युवाओं की यही स्वतंत्रता-स्वच्छंदता इस बार राजनीति में दस्तक दे रही है और युवाओं के जरिये एक नये भारत को बनाने की दिशा में आगे बढ़ रह है.

सोशल मीडिया युवाओं से अपने आप में अलग बिल्कुल भी नहीं है. इसलिए इसका भी खासा असर हुआ है. युवाओं की बातों को सोशल मीडिया के जरिये ही मुख्यधारा की मीडिया ने भी पकड़ा. जिन विषयों को सोशल मीडिया उठाता था, उन विषयों को अखबार वाले और टीवी वाले छापने और दिखाने से जरा भी कतराते नहीं थे. दूसरी बात यह है कि जितने बड़े पैमाने पर और जितनी तेजी से सोशल मीडिया में प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, वह असंपादित प्रतिक्रियाएं होती हैं, जिन पर किसी कॉरपोरेट का दबाव नहीं होता है, उनके ऊपर किसी संपादक का दबाव नहीं होता है. तो वे विचार जो पहली बार आये हैं सोशल मीडिया के जरिये उसने एक ऐसी जगह बनायी है जो बता रही है कि आने वाले समय में राजनीति करनेवाले लोग अगर अपने हिसाब से छानेंगे, अपने हिसाब से लोगों को जोड़ेंगे, सुविधाओं को देखेंगे तो सोशल मीडिया का प्रभाव कहीं न कहीं उन सीमाओं को तोड़ देगा, जो सीमाएं नेताओं के विधानसभा या संसद तक है. यही वजह रही कि तमाम शख्सीयतों ने केजरीवाल को पसंद किया और तमाम लोग आम आदमी पार्टी से जुड़ते चले गये. इन सबसे के बीच अब युवा तबका वोट देने के लिए बाहर निकल रहा है और राजनीतिक रूप से सक्रिय हो रहा है. यही वजह है कि शायद पहली बार मतदान प्रतिशत भी बढ़ा है.

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