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फ्री बेसिक्स : ‘संचार महाक्रांति’ या कमाई का नया फंडा?

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार भारत में इन दिनों ‘फ्री बेसिक्स’ और ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ पर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. यह एक ऐसी बहस है, जिसके नतीजे के आधार पर भारत में इंटरनेट की दुनिया की भविष्य की दशा-दिशा तय होनी है. उस डिजिटल दुनिया की, जिसमें आप भी सदस्य बन चुके हैं, या निकट भविष्य […]

प्रमोद जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

भारत में इन दिनों ‘फ्री बेसिक्स’ और ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ पर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. यह एक ऐसी बहस है, जिसके नतीजे के आधार पर भारत में इंटरनेट की दुनिया की भविष्य की दशा-दिशा तय होनी है.

उस डिजिटल दुनिया की, जिसमें आप भी सदस्य बन चुके हैं, या निकट भविष्य में बनने की इच्छा रखते हैं. इस संबंध में किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राइ) ने रायशुमारी करायी है, जिसमें पक्ष और विपक्ष में लाखों लोगों ने अपनी-अपनी राय भेजी, लेकिन, उनमें से ज्यादातर लोगों को सही अर्थों में इनकी व्यावहारिक पहलुओं के बारे में सटीक जानकारी नहीं है.

यह बहस अभी जारी रहेगी, इसलिए जरूरी है कि आप भी इस संबंध में कुछ पढ़िए-जानिए, सोचिए-समझिए. ‘फ्री बेसिक्स’ और ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ से संबंधित बुनियादी पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का विशेष पेज. इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए हम िफर हाजिर होंगे कुछ विशेषज्ञों के नजरिये के साथ.

इंटरनेट के विस्तार के साथ-साथ कुछ अंतर्विरोधी बातें भी सामने आ रही हैं. इसके साथ दो बातें और जुड़ी हैं. एक है तकनीक और दूसरी पूंजी. इंटरनेट की सार्वजनिक जीवन में भूमिका होने के बावजूद इसका विस्तार निजी पूंजी की मदद से हो रहा है. निजी पूंजी मुनाफे के लिए काम करती है.

जबकि, हमें ध्यान रखना होगा कि सूचना प्रसार केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं है. वह लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कच्चा माल उपलब्ध करानेवाली व्यवस्था है. जानकारी पाना या देना, कनेक्ट करना और जागृत विश्व के संपर्क में रहना समय की सबसे बड़ी जरूरत है.

तकनीक के मौजूदा दौर का सूत्र है- नेट-साक्षरता. आनेवाले वक्त में इंटरनेट पटु होना सामान्य साक्षरता का हिस्सा होगा. जो व्यक्ति इंटरनेट का इस्तेमाल कर पायेगा, वही सजग नागरिक माना जायेगा. वजह साफ है. जीवन से जुड़ा ज्यादातर कार्य-व्यवहार इंटरनेट के मार्फत होगा. इसीलिए इसका व्यावसायिक महत्व बढ़ रहा है. इंटरनेट की भावी पैठ को अभी से पढ़ते हुए नेट-प्रदाता और टेलीकॉम कंपनियां इसमें अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहती हैं. सरकारों की भी यही कोशिश है कि नीतियां ऐसी हों, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को ऑनलाइन किया जा सके.

लेकिन, इंटरनेट के विस्तार के साथ-साथ कुछ अंतर्विरोधी बातें भी सामने आ रही हैं. इसके साथ दो बातें और जुड़ी हैं. एक है तकनीक और दूसरी पूंजी. इंटरनेट की सार्वजनिक जीवन में भूमिका होने के बावजूद इसका विस्तार निजी पूंजी की मदद से हो रहा है. निजी पूंजी मुनाफे के लिए काम करती है.

जबकि हमें ध्यान रखना होगा कि सूचना प्रसार केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं है. वह लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कच्चा माल उपलब्ध करानेवाली व्यवस्था है. जानकारी पाना या देना, कनेक्ट करना और जागृत विश्व के संपर्क में रहना समय की सबसे बड़ी जरूरत है.

एक अरब वेबसाइट, साढ़े तीन अरब प्रयोक्ता

आज इंटरनेट पर तकरीबन एक अरब वेबसाइट हैं. दुनिया में इंटरनेट के तकरीबन 3.5 अरब प्रयोक्ता हैं. यानी औसतन 3.5 प्रयोक्ताओं में से एक अपनी बात इंटरनेट के मार्फत कहता है. यह संख्या अभी काफी तेजी से बढ़ेगी. इसका मतलब है कि इंटरनेट संपर्क का जबरदस्त माध्यम बन कर उभरा है.

ऐसे में जरूरी है कि यह व्यवस्था सबको समान अवसर देनेवाली हो. पर यह पूंजी का खेल है. बेशक बाजार और पूंजी भी अंततः सार्वजनिक हितों की अनदेखी नहीं कर सकते. ऐसे में बाजार के नियामक की जरूरत होगी, जिसे तैनात करना राज्य यानी सरकार की जिम्मेवारी है. उसे देखना है कि इंटरनेट पर इजारेदारी कायम न होने पाये. इंटरनेट सर्विस प्रदाता या टेलीकॉम कंपनियां ऐसे गेटकीपर न बनें, जो दूसरों के प्रवेश को रोकें.

भारत में भी इंटरनेट का तेजी से प्रसार

इंटरनेट के माध्यम से भारत जैसे गरीब देशों में बहुत बड़ी दुनिया खुलने जा रही है. भारत में पिछले 12 महीनों में ही छह करोड़ लोग मोबाइल फोन के जरिये इंटरनेट से जुड़े हैं.

साथ ही 30 करोड़ लोग मोबाइल फोन पर ब्रॉडबैंड का इस्तेमाल कर रहे हैं. स्मार्टफोनों की गिरती कीमत के साथ यह संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. हमारे देश में 60 करोड़ से ज्यादा फोनधारक ऐसे हैं, जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं. स्मार्टफोनों की गिरती कीमत और इंटरनेट की सस्ती दरें सूचना-प्रसार की इस महाक्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगी. यहीं पर एक बड़ा सवाल नेट न्यूट्रैलिटी का खड़ा होता है.

नेट न्यूट्रैलिटी माने क्या?

नेट न्यूट्रैलिटी माने इंटरनेट सेवा का निर्बाध होना. टेलीकॉम ऑपरेटर, फोन कंपनियां और इंटरनेट सेवा प्रदाता इस स्थिति में होते हैं कि वे उपभोक्ता की सेवा को नियंत्रित कर सकें. मसलन आपकी पहुंच किस वेबसाइट तक हो, किस स्पीड से हो और किस सेवा का क्या शुल्क वसूला जाये.

नेट न्यूट्रैलिटी उस अवधारणा का नाम है, जो कहती है कि दुनिया को सूचना और जानकारी देने तथा अभिव्यक्ति की निर्बाध स्वतंत्रता तथा ऑनलाइन कारोबार को सहूलियत के साथ चलाने के लिए जरूरी है कि इंटरनेट तक यह पहुुंच निर्बाध और तटस्थ हो. सभी वेबसाइट्स तक उपभोक्ताओं की पहुंच समान रूप से हो. सबकी स्पीड समान हो और प्रति किलोबाइट या मेगाबाइट डेटा-मूल्य समान हो. इंटरनेट कंपनियों की न तो लाइसेंसिंग जैसी कोई व्यवस्था हो और न गेटवे हों.

ऐसे में किसी वेबसाइट को निःशुल्क बनानेवाली सुविधा नेट न्यूट्रैलिटी को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि ऐसी सेवा की लोकप्रियता दूसरी महत्वपूर्ण सेवाओं को आगे आने से रोक सकती हैं. उन्हें किसी सेवा को न तो ब्लॉक करना चाहिए और न ही उसकी स्पीड स्लो करनी चाहिए. वैसे ही जैसे सड़क पर हर तरह के ट्रैफिक के साथ समान बर्ताव किया जाता है.

भारत में नेट न्यूट्रैलिटी पर बहस

भारत में यह मामला पिछले साल तब उठा था, जब इंटरनेट पर की जानेवाली फोन कॉल्स के लिए टेलीकॉम कंपनियों ने अलग कीमत तय करने की कोशिशें की थीं. कंपनियां इसके लिए वेब सर्फिंग से ज्यादा दर पर कीमतें वसूलना चाहती थीं.

इसके बाद टेलीकॉम सेक्टर की नियामक एजेंसी ‘ट्राइ’ ने आम लोगों से ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ या ‘इंटरनेट तटस्थता’ पर राय मांगी. हालांकि पिछले साल नेट तटस्थता के संदर्भ अलग थे, जबकि इस साल के संदर्भ दूसरे हैं. इस वक्त इंटरनेट सेवा ‘फ्री’ में देने की कोशिश की जा रही है, जिससे कुछ विसंगतियां पैदा हो सकती हैं.

‘फ्री बेसिक्स’ की पेशकश

तकरीबन एक साल पहले फेसबुक ने भारत में रिलायंस कम्युनिकेशंस के सहयोग से एकदम मुफ्त इंटरनेट सेवा देने की योजना बनायी. इस सेवा के तहत फेसबुक के साथ कुछ और सेवाएं ग्राहक को दी जायेंगी. रिलायंस ने पिछले साल 23 नवंबर को ट्राई को सूचित किया कि वह अपने जीएसएम ग्राहकों को फ्री इंटरनेट सुविधा देने जा रहा है.

लेकिन, सेवा नियमों के ब्योरों के अभाव में ट्राइ ने इस सेवा को शुरू नहीं होने दिया. इसके बाद 12 दिसंबर को ट्राइ ने एक नया पेपर जारी किया, जिसमें कंटेंट सेवाओं की दरों को लेकर संबद्ध पक्षों से सवाल किये गये हैं. इसमें सेवा प्रदाताओं के जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्मों को लेकर सवाल हैं. ट्राई ने पूछा है कि क्या इस प्रकार की भिन्न-भिन्न दरों (डिफरेंशियल प्राइसिंग) की अनुमति दी जानी चाहिए?

‘फ्री बेसिक्स’ एक ओपन प्लेटफॉर्म है, जिसे दो साल पहले सैमसंग, एरिक्सन, मीडियाटेक, ऑपेरा सॉफ्टवेयर, नोकिया और क्वालकॉम की साझेदारी में शुरू किया गया था. भारत में ‘फेसबुक’ ने इंटरनेट को लोकप्रिय बनाने की नयी पहल शुरू की है, जिसके व्यावसायिक निहितार्थ हैं.

यह वैसे ही है, जैसे ‘फ्री न्यूजपेपर’ की अवधारणा. फेसबुक और मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनी रिलायंस ने ‘फ्री बेसिक्स’ की पेशकश की है. ‘फ्री बेसिक्स’ की आज दुनिया के 36 देशों में पहुंच है, लेकिन उसके प्रयोक्ताओं की संख्या केवल डेढ़ करोड़ है.

यदि भारत में वह लागू हो, तो सौ करोड़ तक नये प्रयोक्ता इसमें शामिल हो सकते हैं. एक माने में यहां महाक्रांति होगी, लेकिन इससे फेसबुक की इजारेदारी भी कायम होगी.

ट्राइ को लाखों सुझाव मिले

फेसबुक ने ‘फ्री बेसिक्स’ की पेशकश ही नहीं की, इसके लिए भारत में समर्थन जुटाने के लिए एक अभियान भी चलाया. करोड़ों रुपये के विज्ञापन मीडिया में दिखाई पड़े. साथ ही लाखों फेसबुक उपभोक्ताओं ने टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राइ) को संदेश भेजे. बावजूद इसके बड़ी संख्या में लोग नहीं जानते हैं कि इस पहल का व्यावहारिक मतलब क्या है.

ट्राइ ने यह भी जानना चाहा है कि क्या इन प्लेटफॉर्मों को द्वारपालों की तरह विकसित होने दिया जाये, जो उन छोटी वेबसाइटों का जीना मुहाल कर देंगे, जो इन समूहों में शामिल नहीं हो पायेंगी. जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्म के बारे में नागरिकों की राय भी मांगी गयी है. इसी वजह से फेसबुक ने अपने उपभोक्ताओं से अपील की थी कि वे एक मेल ट्राइ के पास भेजें, जिसका टेक्स्ट फेसबुक ने ही तैयार किया था.

ट्राइ ने इस विषय पर 31 दिसंबर तक टिप्पणियां और 7 जनवरी तक प्रति टिप्पणियां मांगी थीं. दिसंबर के अंत तक इस सिलसिले में ट्राइ को 18 लाख से ज्यादा टिप्पणियां मिल चुकी थीं.

किसी भी दस्तावेज के लिए मिली जनता की प्रतिक्रियाओं की संख्या के लिहाज से यह संख्या विशाल है. टिप्पणी देने की समय सीमा को एक सप्ताह बढ़ाते हुए ट्राइ ने इसे 7 जनवरी तक कर दिया है. साथ ही जवाबी टिप्पणी के लिए समय सीमा 14 जनवरी कर दी गयी है. हालांकि, ट्राइ के अपने दस्तावेज में ‘नेट निरपेक्षता’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन ‘जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्म’ के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है.

ट्राइ के चेयरमैन आरएस शर्मा का कहना है कि लोगों ने हमारे सवालों के जवाब नहीं दिये हैं. यह वैसे ही है, जैसे सवाल ‘क’ का उत्तर मांगा जाये, तो सवाल ‘ख’ का उत्तर मिले. ट्राइ को लाखों सुझाव मिले हैं. सबसे ज्यादा इ-मेल फेसबुक यूजर्स की ओर से ‘फ्री बेसिक्स’ के पक्ष में हैं. स्वाभाविक है कि फेसबुक ने अपने मंच का बेहतर इस्तेमाल किया है.

लेकिन, खराबी यह है कि ज्यादातर यूजर नहीं जानते कि यह बहस किस बात को लेकर है और वे जो अनुरोध कर रहे हैं, उसका व्यावहारिक अर्थ क्या है. ट्राइ ने इसकी तरफ इशारा भी किया है, जिससे लगता है कि फेसबुक को इसका नुकसान होगा. बहरहाल जो सुझाव दिये गये हैं, उनमें नेशनल ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क और इंटरनेट की पहुंच का दायरा बढ़ाने के लिए विशेष कोष बनाने की सलाह भी शामिल है.

फेसबुक के संस्थापक जुकरबर्ग की राय

फेसबुक अपने इस कार्यक्रम के पक्ष में काफी आक्रामक है. उसने विज्ञापनों के जरिये ‘फ्री बेसिक्स’ से जुड़ी कुछ भ्रांतियों को भी दूर करने की कोशिश की है. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित एक लेख में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने लिखा है, ‘कनेक्टिविटी भी मौलिक मानवाधिकार है.

दुनिया और समाज से जुड़ना व्यक्ति की जरूरत है. यह केवल कुछ अमीरों या फीस देकर सेवा लेनेवालों तक सीमित क्यों रहे? हर समाज में कुछ बुनियादी सेवाएं होती हैं, जो लोगों की भलाई के लिए बहुत जरूरी हैं. हम उम्मीद करते हैं कि हर कोई उन्हें स्वतंत्र रूप से उपयोग करने में सक्षम हो.’

जुकरबर्ग के अनुसार, ‘मुफ्त बुनियादी पुस्तकों के संग्रह पुस्तकालय कहलाते हैं, जहां सभी किताबें नहीं होतीं, फिर भी पाठकों को काफी कुछ मिल जाता है. इसी तरह मुफ्त बुनियादी स्वास्थ्य सेवा है. सरकारी अस्पतालों में हर इलाज नहीं है, फिर भी वे लोगों की जान बचाने का काम करते हैं. इसी तरह मुफ्त बुनियादी शिक्षा है. हर बच्चा स्कूल जाने का हकदार है. इसी तरह इंटरनेट की बुनियादी सेवा है.’

जुकरबर्ग की यह बात सही है, पर इसमें एक पेच है. पुस्तकालय, सार्वजनिक चिकित्सालय और सार्वजनिक विद्यालयों की सेवाएं सामान्यतः सरकारें उपलब्ध कराती हैं; निजी कंपनियां नहीं, जिनके अपने व्यावसायिक हित होते हैं. यदि सरकार इंटरनेट सेवा मुफ्त उपलब्ध करायेगी, तो उसमें शामिल वेब सेवाओं की सूची सार्वजनिक विमर्श से तय होगी, व्यावसायिक कारणों से नहीं. फिर भी यह एक रोचक अवधारणा है. इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि इसके सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद ही ट्राइ का अंतिम फैसला होगा.

‘फ्री बेसिक्स’ के पक्ष में कुछ अन्य तर्क

फेसबुक का कहना है कि ‘फ्री बेसिक्स’ डिजिटल समानता के पक्ष में है. हमारा लक्ष्य भारत के एक अरब लोगों को ऑनलाइन करने का है. एक व्यावसायिक योजना सामाजिक रूप से लाभकारी भी हो सकती है.

दुनिया का अनुभव है कि इसकी मदद से काफी बड़ी संख्या में लोग ऑनलाइन हो रहे हैं. भारत में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन और फेसबुक जैसी कंपनियों का बड़ा बाजार है. शायद वे भी ऐसी योजनाएं लेकर आयें. हाल के वर्षों में यहां इ-बाजार की जबरदस्त संभावनाएं पैदा हुई हैं. यानी जुकरबर्ग का ‘फ्री बेसिक्स’ एक तरह से मार्केटिंग का फंडा है.

लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि यदि कोई मुफ्त में सेवा देना चाहता है और कोई उस सेवा को लेना चाहता है, तो उसे रोका कैसे जायेगा? ‘फ्री बेसिक्स’ का इरादा फेसबुक और उससे जुड़ी सेवाएं मुफ्त में देने का है.

इसमें सारी इंटरनेट सेवाएं शामिल नहीं हैं, पर यह उन डेवलपरों के लिए खुला होगा, जो इसमें शामिल होना चाहें. फेसबुक का कहना है कि वह फेसबुक इस्तेमालकर्ता की गोपनीयता और सुरक्षा को अत्यंत गंभीरता से लेता है. ‘फ्री बेसिक्स’ किसी वेबसाइट, डोमेन या थर्ड पार्टी सर्विस के नाम और डेटा यूसेज को स्टोर करने का काम करेगी.

फेसबुक ने कहा है कि वह किसी भी थर्ड पार्टी जांच के लिए तैयार है. इसके लिए उसने नैस्कॉम या आइएएमएआइ से जांच करवाने की पेशकश की है. फेसबुक अपने प्लेटफॉर्म पर ट्विटर और गूगल प्लस का फ्री एक्सेस देने को भी तैयार है.

किफायती इंटरनेट की जरूरत

भारत जैसे देश में महंगी दरें और जागरूकता में कमी इंटरनेट के विस्तार में दो बड़ी बाधाएं हैं. यह सच है कि फेसबुक ने बड़ी संख्या में लोगों को इंटरनेट की ताकत से परिचित कराया है. माना जा रहा है कि जैसे ही लोगों का इंटरनेट के आंशिक सत्य से परिचय होगा, वे पूर्ण सत्य का आनंद भी लेना चाहेंगे.

यदि ऐसा हुआ तो ‘फ्री बेसिक्स’ की मदद से इंटरनेट के संसार में शामिल होनेवाले लोग भी अंततः डेटा के लिए भुगतान करके पूरी सेवा हासिल करना चाहेंगे. इस लिहाज से ‘फ्री बेसिक्स’ एक सेतु का काम कर भी सकता है. दुनिया के 36 देशों में वह किसी न किसी रूप में मौजूद है. फेसबुक का कहना है कि वह नेट न्यूट्रैलिटी के विरोध में नहीं है और उपभोक्ता हितैषी है. जहां तक फेसबुक के इरादे से जाहिर है कि वह कारोबार चाहता है, पर कारोबार में दिक्कत क्या है?

‘फ्री बेसिक्स’ विरोधी अभियान का तर्क

जितना आक्रामक फेसबुक का अभियान है, उतने ही आक्रामक उसके विरोधी हैं. इसके जवाब में ‘सेव द इंटरनेट’ ने अपने यूजर्स से अनुरोध किया कि वे भी ट्राइ को मेल भेज कर ‘फ्री बेसिक्स’ का विरोध करें. आइआइटी और देश के अन्य प्रमुख तकनीकी संस्थानों से जुड़े 64 प्रोफेसरों ने एक संयुक्त बयान में कहा है कि ‘न तो यह प्लेटफॉर्म मुफ्त है और न ही बेसिक या बुनियादी. वास्तव में यह नेट न्यूट्रैलिटी का उल्लंघन है. चुनिंदा वेबसाइट का फ्री होना अन्य वेबसाइट्स के हित में नहीं है.’

कहा यह भी जा रहा है कि इसके विरोध में माइक्रोसॉफ्ट और ट्रू-कॉलर जैसी बड़ी संस्थाएं भी परोक्ष रूप से उतरी हैं. ‘फ्री बेसिक्स’ किस हद तक फ्री होगा, यह बात भी अभी स्पष्ट नहीं है. इसलिए इसे चाय की लत की तरह भी देखा जा रहा है, जो उपभोक्ताओं को शुरुआत में मुफ्त में ही बांटी गयी थी, लेकिन चाय में भी तो ऐसा ही कुछ खास था, जिसके कारण लोगों ने उसे अपनाया.

कुछ लोग इसे डीटीएच सेट टॉप बॉक्स की तरह भी देख रहे हैं, जिसमें उपभोक्ता को अपने पसंदीदा चैनल के लिए अतिरिक्त शुल्क देना पड़ता है. इसके विरोधियों में भारत के प्रसिद्ध स्टार्टअप ‘पेटीएम’ के संस्थापक विजय शेखर शर्मा, इंफोसिस के संस्थापकों में से एक नंदन नीलेकणि और वेंचर कैपिटलिस्ट महेश मूर्ति जैसे लोग शामिल हैं.

यह दीवारों से घिरा बगीचा है!

नंदन नीलेकणि ने लिखा कि जुकरबर्ग का ‘फ्री बेसिक्स’ दीवारों से घिरा बगीचा है, जिसमें हरेक का प्रवेश संभव नहीं. इसकी जगह सरकार को इंटरनेट पर सब्सिडी देनी चाहिए. देश के तमाम स्टार्टअप इसके खिलाफ लामबंद हैं.

सूचना और समाचार के दूसरे माध्यमों की तरह इंटरनेट कारोबार का जरिया भी है. मुफ्त की सेवा देनेवाले प्रदाता के हाथ में इतनी ताकत आ जायेगी कि वह कारोबारी कंपनियों से अपनी मर्जी की फीस वसूलेगा.

इन्फो डॉट इंटरनेट डॉट ओआरजी के मुताबिक, ‘फ्री बेसिक्स’ किसी भी डेवलपर और किसी भी एप्लीकेशन के लिए ओपन प्लेटफॉर्म होगा. उसे बुनियादी तकनीकी आवश्यकताओं को पूरा करना होगा. ‘फ्री बेसिक्स’ पर यूजर्स का जो भी डेटा होगा, उसकी जानकारी सिर्फ फेसबुक के पास होगी. अगर कोई वेबसाइट ‘फ्री बेसिक्स’ के साथ काम करना चाहे, तो उसे फेसबुक से संपर्क रखना होगा.

सॉफ्टवेयर कंपनियों के संगठन नैस्कॉम के चेयरमैन आर चंद्रशेखर ने कहा है कि अलग-अलग चार्ज से ग्राहक का हक मारा जाता है. अगर कुछ खास सेवाओं की अलग कीमत भी हो, तो इसका फैसला ट्राई करे, इसके लिए कोई टेलीकॉम कंपनी या उसका पार्टनर नहीं होना चाहिए. फेसबुक का ‘फ्री बेसिक्स’ नेट न्यूट्रैलिटी के खिलाफ है. किसी खास सर्विस के लिए अलग चार्ज का हक नहीं होना चाहिए.

राज्य की बदल रही भूमिका

बेलारूसी मूल के लेखक एवजेनी मोरोजोव तकनीक के राजनीतिक सामाजिक प्रभाव के बारे में लिखते हैं. उनका कहना है कि सिलिकॉन वैली के कारोबार ने लोगों की कनेक्टिविटी, परिवहन तथा अन्य उन सुविधाओं को, जो कभी राज्य का विषय होती थीं, किस तरह अपने पक्ष में झटक लिया है.

बजाय इसके कि जनता राज्य से पेयजल से लेकर परिवहन सुविधा तक की मांग करे, उसे समझाया जा रहा है कि यह काम कुछ पूंजीपति करेंगे. हमें शिक्षा की जगह इंटरनेट कनेक्टिविटी दिखायी जा रही है और सार्वजनिक परिवहन की जगह उबर की टैक्सी सेवा.इंटरनेट पर लोगों की जबरदस्त मौजूदगी के बावजूद सच यह भी है कि यह अब भी अमीरों और पश्चिमी देशों का माध्यम है.

दुनिया में केवल 12 फीसदी लोग ही अंगरेजी बोलते हैं, लेकिन इंटरनेट पर 53 फीसदी सामग्री अंगरेजी में है. जुकरबर्ग ने शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं की बात की है, पर ये सेवाएं किस भाषा में और किसे मिलेंगी? दूसरी ओर संभावना यह भी है कि इसकी मदद से गरीबों को अपनी भाषा में अपनी बात कहने का मौका मिलेगा. मोबाइल फोन भी महंगा था, पर वह गरीबों के भी काम आया. यह बात सच है कि इंटरनेट स्कूल का विकल्प नहीं है, पर इस बात को स्थापित करने में मददगार तो होगा ही.

आंकड़ों में फेसबुक

चार फरवरी, 2004 को लांच हुआ फेसबुक अब सोशल मीडिया का पर्याय बन चुका है. सामाजिक सक्रियता, मनोरंजन, मीडिया और राजनीति के मौजूदा स्वरूप में इसके व्यापक प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है. एक दशक से कुछ अधिक की यात्रा में फेसबुक ने कई अहम मुकाम हासिल किये हैं. फेसबुक साइट के अतिरिक्त उसके सहायक उपक्रम (इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, ऑकलस वीआर और प्रावेटकोर) भी बहुत लोकप्रिय है.

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