संसद का शीत सत्र पूरी तरह नाकाम नहीं रहा. एक अर्थ में मॉनसून सत्र से बेहतर रहा पर उसे सफल कहना सही नहीं होगा. सरकार कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पास नहीं करा पाई.
सवाल जीएसटी या ह्विसिल ब्लोवर जैसे क़ानूनों के पास न हो पाने का नहीं है. पूरे संसदीय विमर्श में गिरावट का भी है.
इस सत्र में दोनों सदनों ने संविधान पर पहले दो दिन की चर्चा को पर्याप्त समय दिया. यह चर्चा आदर्शों से भरी थी. उन्हें भुलाने में देर भी नहीं लगी.
संसदीय कर्म की गुणवत्ता केवल विधेयकों को पास करने तक सीमित नहीं होती. प्रश्नोत्तरों और महत्वपूर्ण विषयों पर भी निर्भर करती है.
देश में समस्याओं की कमी नहीं. संसद में उन्हें उठाने के अवसर भी होते हैं, पर राजनीतिक दलों की दिलचस्पी होमवर्क में नहीं है.
तमिलनाडु में भारी बारिश के कारण अचानक बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई. उस पर दोनों सदनों में चर्चा हुई. सूखे पर भी हुई.
महंगाई को 23 मिनट का समय मिला. इन दिनों दिल्ली में प्रदूषण की चर्चा है, पर संसद में कोई खास बात नहीं हुई. विसंगति है कि विधायिका और कार्यपालिका को जो काम करने हैं, वे अदालतों के मार्फ़त हो रहे हैं.
जुवेनाइल जस्टिस विधेयक पास हो गया. इसमें 16 साल से ज़्यादा उम्र के किशोर अपराधी पर जघन्य अपराधों का मुक़दमा चलाने की व्यवस्था है. किशोर अपराध के तमाम सवालों पर बहस बाक़ी है.
कांग्रेस ने लोकसभा में इसका विरोध किया था. अनुमान था कि राज्यसभा उसे प्रवर समिति की सौंप देगी.
इसके पहले शुक्रवार को सर्वदलीय बैठक में जिन छह विधेयकों को पास करने पर सहमति बनी थी उनमें इसका नाम नहीं था, पर मंगलवार को राज्यसभा में इस पर चर्चा हुई और यह आसानी से पास हो गया. कांग्रेस का नज़रिया तेजी से बदल गया.
वजह थी निर्भया मामले से जुड़े किशोर अपराधी की रिहाई के ख़िलाफ़ आंदोलन. यह लोकलुभावन राजनीति है. विमर्श की प्रौढ़ता की निशानी नहीं.
राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने सत्र ख़त्म होते समय अपने वक्तव्य में संसदीय कर्म के लिए ज़रूरी अनुशासन का उल्लेख किया. उन्होंने कहा कि प्रश्नोत्तर काल और शून्य प्रहर तक इसके शिकार हुए हैं.
इस सत्र में राज्यसभा ने अपने प्रश्नोत्तर काल के 14 फ़ीसदी समय का ही उपयोग किया, जबकि लोकसभा ने 87 प्रतिशत का.
इस साल की शुरुआत बजट सत्र से हुई थी, जिसमें दोनों सदनों का प्रदर्शन पिछले 15 साल में सबसे अच्छा रहा था. उसमें लोकसभा ने अपने निर्धारित समय में 125 फ़ीसदी और राज्यसभा ने 101 फ़ीसदी काम किया.
मॉनसून और शीत सत्र में कहानी बदल गई. मॉनसून सत्र में लोकसभा में कुल 48 फ़ीसदी समय काम हुआ और राज्यसभा में केवल नौ फ़ीसदी.
अब शीत सत्र में लोकसभा ने अपने समय का सौ फीसदी से कुछ ज़्यादा का इस्तेमाल किया लेकिन राज्यसभा 50 फ़ीसदी का ही इस्तेमाल कर पाई.
संसदीय प्रणाली में विधायी कार्य सरकार और विपक्ष के सहयोग और सहमति से चलते हैं. ऐसा नहीं होता कि सरकार की ही चले.
विधेयकों को रोकना राजनीति है, पर प्रश्नोत्तर या विमर्श के अवसरों को रोकना राजनीति नहीं है.
हामिद अंसारी ने पिछले शुक्रवार को सभी दलों के सदस्यों को बुलाकर उनसे सदन की उपयोगिता साबित करने का आग्रह किया. बैठक में तय हुआ कि तीन दिन में छह विधेयक राज्यसभा से पास होंगे.
इसका असर आख़िरी तीन दिनों में देखने को भी मिला. आखिरी दिन राज्यसभा में परमाणु ऊर्जा संशोधन, मध्यस्थता एवं सुलह और वाणिज्यिक अदालतों से जुड़े तीन विधेयक 30 मिनट के भीतर बगैर चर्चा के पारित हो गए.
चलते-चलाते बोनस भुगतान विधेयक भी पास हो गया. कंपनियों को दिवालिया घोषित करने के बारे में विधेयक संयुक्त प्रवर समिति को सौंपा गया.
गंभीर चर्चा का लोप मीडिया की बदलती वरीयताओं की निशानी भी है. ग्राहक हंगामा प्रिय होगा तो मंच भी हंगामा पेश करेगा. मीडिया के पास गंभीर संसदीय विमर्श के लिए जगह कहां है?
एक दौर तक अख़बार संसद प्रश्नोत्तर के लिए जगह मुकर्रर करते थे. अब विषय बदल चुके हैं.
पिछले दिनों तीन अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ऐसे हुए, जिनसे भारत के हित जुड़े थे. एक, पेरिस समझौता, दूसरे पाकिस्तान में हार्ट ऑफ़ एशिया जिसमें भाग लेने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज गईं थीं और तीसरे नैरोबी में विश्व व्यापार संगठन का 10वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन.
संसद में इन तीनों पर भी विचार-विमर्श हुआ. मीडिया की निगाहों में इनका महत्व नहीं था.
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