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ऐतिहासिक ग़लती सुधारेगी मोदी सरकार?

आकार पटेल वरिष्ठ विश्लेषक, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए हमारे यहां व्यापक पैमाने पर इतनी राष्ट्रीय आपदाएं होती हैं कि कोई इन्हें मुश्किल से ही गिन पाएगा. मेरी उम्र इस समय 45 के क़रीब है और मुझे वो सदमा अभी भी याद है जब एक के बाद पांच घटनाओं में हज़ारों लोग मारे गए […]

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हमारे यहां व्यापक पैमाने पर इतनी राष्ट्रीय आपदाएं होती हैं कि कोई इन्हें मुश्किल से ही गिन पाएगा.

मेरी उम्र इस समय 45 के क़रीब है और मुझे वो सदमा अभी भी याद है जब एक के बाद पांच घटनाओं में हज़ारों लोग मारे गए थे.

1983 में नेल्ली में 2,000 मुस्लिमों का नरसंहार हुआ और दिसंबर 1984 में भोपाल गैस कांड में 3,000 लोग मारे गए. उसी महीने दिल्ली में 2,000 सिखों की हत्याएं हुईं.

इसके बाद 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद हुए दंगों में हज़ारों मारे गए. (तब मैं अपनी उम्र के दूसरे दशक में प्रवेश कर चुका था और अपने आसपास क्या हो रहा है, यह पूरी तरह समझता था.)

और इसके बाद, आख़िरकार 2002 में गुजरात की हिंसा में कम से कम एक हज़ार लोग मारे गए.

यह तय है कि मैंने कुछ और बड़ी घटनाएं छोड़ दी हैं. नाव दुर्घटनाओं के ऐसे कई वाकये हैं जिनमें सैकड़ों की मौत हुई, प्राकृतिक आपदाओं में दसियों हज़ार लोग बहे और सरकार कुछ नहीं कर पाई.

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हालांकि मैंने इसमें दसियों हज़ार कश्मीरियों की मौत और कश्मीरी पंडितों का विस्थापन नहीं जोड़ा है क्योंकि ये किसी एक घटना में नहीं बल्कि सालों और महीनों के दरम्यान हुए.

जिन हिंसाओं का मैंने ज़िक्र किया है, उनमें किसी भी मामले में पीड़ितों को आसानी से इंसाफ़ नहीं मिला.

एक राष्ट्र के बतौर हमारी नाकामियां तब और साफ़ हो जाती हैं, जब हम इनमें से किसी एक के भी नतीजे और इससे जुड़ी घटनाओं की पड़ताल करते हैं.

और जब हम इन पर निष्पक्ष होकर नज़र डालते हैं तो ठीक से जांच करने और गंभीर अपराधों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की हमारी क्षमता ज़ाहिर हो जाती है.

हमें बताया जाता है कि सामूहिक हिंसा के मामलों में इंसाफ़ न होने का मुख्य कारण है कि सत्तारूढ़ पार्टी की अपने ही उन लोगों पर मुक़दमा चलाने में दिलचस्पी नहीं, जो हिंसा में शामिल रहे या इसे होने दिया.

उदाहरण के लिए, यही वजह है कि 2002 के गुजरात हिंसा मामले में इंसाफ़ पाना इतना मुश्किल हो चुका है.

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मैं यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि मैं इस बारे में अच्छी तरह जानता हूँ और एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया की ओर से इसके कुछ पहलुओं की जांच के लिए भेजी गई तीन सदस्यीय टीम का हिस्सा था.

आज सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी के पास एक मौक़ा है कि वह 1984 के दंगे पर दृढ़ता से कार्रवाई कर इस निराशाजनक चक्र को तोड़े.

लंबे समय से कहा जाता रहा है कि इस हिंसा में शामिल रहे अभियुक्तों को कांग्रेस बचाती रही है क्योंकि इसके सदस्य इसमें शामिल थे.

सत्ता में आने के बाद एनडीए ने एक कमेटी बनाई, जिसने पाया कि “तब अपराधों की विधिवत जांच नहीं की गई थी” और “जांच के नाम पर कुछ दिखावटी कोशिश की गई थी.”

इसके बाद सरकार ने उन मामलों में एफ़आईआर दर्ज करने और चार्जशीट दाखिल करने के लिए तीन सदस्यीय टीम बनाई, जिनकी जांच नहीं की गई थी.

मुझे उम्मीद है कि यह टीम दृढ़तापूर्वक, निर्णायक और तेज़ी से उन लोगों को फ़ैसला दिलाएगी, जिनके परिजन तीन दशक पहले बर्बरतापूर्वक मारे गए थे.

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अब जब कुछ लोग मान चुके हैं कि ये मामले बहुत पुराने हैं और इन्हें फिर ज़िंदा नहीं किया जा सकता, अगर ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा मिलती है, तो हममें से कई में इसकी उम्मीद जगेगी कि जान-बूझकर भारतीयों का खून बहाने के ज़िम्मेदार लोगों को बचकर यूं ही नहीं जाने दिया जा सकता.

कमेटी का गठन इसी साल फ़रवरी में हुआ था. भारतीय पुलिस सेवा के एक अफ़सर प्रमोद अस्थाना की अगुवाई वाली इस स्पेशल टीम में पुलिस अधिकारी कुमार ग्यानेश और रिटायर्ड जज राकेश कपूर शामिल हैं.

सरकार ने इन तीनों को वो सबूत इकट्ठा करने को छह महीने का वक़्त दिया था, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने नज़रअंदाज़ कर दिया था या उसकी ठीक से जांच नहीं की थी.

छह महीने बाद टीम का कार्यकाल बढ़ाया गया, बिना यह जाने कि इस दौरान इसने क्या कुछ किया.

कुछ सप्ताह पहले कारवां मैग्ज़ीन में इस पर एक रिपोर्ट छपी, जिसमें बताया गया कि टीम ने बहुत मामूली काम किया था.

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गृहमंत्री राजनाथ सिंह.

मैग्ज़ीन ने पीड़ितों के परिजनों के वकील एचएस फुल्का के हवाले से लिखा, “जब एसआईटी बनी तो बहुत सी उम्मीदें जगीं, पर किसी मामले में कोई प्रगति नहीं हुई. यह टीम न केवल किसी पीड़ित के पास गई बल्कि जब एक पीड़ित ने इसे अपनी शिकायत भेजी तो ये बैरंग लौट आई.. उन्होंने इसे स्वीकार तक नहीं किया.”

उन्हें लगता है कि एसआईटी को एक राजनीतिक चालबाज़ी के लिए बनाया गया था और सरकार बिना कुछ किए इसका श्रेय लेना चाहती थी.

मुझे उम्मीद है कि ये सच न हो.

इसमें कोई दम नहीं कि सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा रोकने में कांग्रेस सरकार अक्षम थी और इस पार्टी के नेताओं पर सामूहिक हत्याओं के आरोप हैं.

अगर सरकार दिखाती कि इनके ख़िलाफ़ निर्णायक कार्यवाही के लिए वह दृढ़ है, तो सामूहिक हिंसा के कम से कम एक मामले में तो इंसाफ़ मुमकिन था, और भारतीयों की यह सबसे अच्छी सेवा होगी.

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