साल 2015 पाकिस्तान के लिहाज़ से काफ़ी अहम रहा है और इस साल इससे बड़ा कोई सवाल नहीं रहा कि चरमपंथियों से बात की जाए या उनसे सख़्ती से निपटा जाए.
16 दिसंबर 2014 की घटना ने पाकिस्तान की सरकार और चरमपंथी दोनों की नीतियों को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है.
16 दिसंबर को पाकिस्तान के पेशावर में एक स्कूल पर हुए चरमपंथी हमले में क़रीब 150 लोग मारे गए थे. मरने वालों में ज़्यादातर बच्चे और महिला शिक्षिकाएं थीं.
अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से अपनी गतिविधियों को अंजाम देने वाले पाकिस्तान तालिबान ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली थी.
जिसके बाद पाकिस्तान के लोगों और फ़ौज की ओर से बदले की कार्रवाई की मांग के बाद चरमपंथ के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर कार्रवाई की गई.
यहां पेश है इन कार्रवाइयों के मद्देनज़र पैदा हुए कुछ दूरगामी परिणाम और बदलाव.
प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में पेशावर में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में 20 सूत्री नेशनल एक्शन प्लान पर सहमती जताई गई जिसके तहत चरमपंथ के ख़तरे को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया गया.
इससे पहले फ़ौज ने जून 2014 में एक फ़ौजी कार्रवाई के तहत उत्तरी वज़ीरिस्तान से तालिबान को खदेड़ने के लिए अभियान चला रखा था.
एक्शन प्लान के बाद से ये कार्रवाई और तेज़ हो गई और सीमा के पास ख़ैबर और ख़ुर्रम क़बीलाई इलाक़ों को निशाना बनाया गया.
ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में ख़ासतौर पर फ़ौजी कार्रवाई की गई.
लेकिन इस योजना को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर लागू करने में सरकार की पुरानी कमज़ोरी दिखी.
इसमें मदरसा सुधार, सोशल मीडिया की मदद से चरमपंथ का फैलाव, शिक्षा में सुधार और सबसे अहम नेशनल काउंटर टेररिज़्म ऑथॉरिटी (नैक्टा) को लागू करने का मसला शामिल है.
नैक्टा की स्थापना 2009 में हुई थी लेकिन तब से अब तक यह निष्क्रिय अवस्था में पड़ा है.
2013 में संसद में पारित नैक्टा क़ानून के तहत सभी ख़ुफ़िया एजेंसियों को एक मंच पर लाना था लेकिन यह कभी भी लागू नहीं हो पाया.
इस एक्शन प्लान के मुश्किल सवालों पर सरकार की नाकामयाबी साफ़ दिख रही है.
लोगों को मुश्किलों का सामना करने में सक्षम बनाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाए फ़ौज ने सारा बोझ अपने ऊपर ले लिया है जो कि मुश्किलें खड़ा कर रहा हैं.
2014 के हर महीने में दर्जनों होने वाली बड़ी चरमपंथी घटनाओं की संख्या घटकर इस साल हर महीने में एक या दो से ज़्यादा नहीं रह गई है.
साफ़ है कि क़बीलाई इलाक़ों में फ़ौजी कार्रवाई का सकारात्मक असर दिख रहा है.
29 जुलाई को शिया विरोधी लश्कर-ए-झांगवी समूह के नेता मलिक इसहाक़ और उनके दो लड़कों के पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बाद शिया समुदाय पर होने वाले सांप्रदायिक हमले कम हो गए हैं.
इसहाक़ अमरीका के चरमपंथी सूची में शामिल था. हालांकि शिया, अहमदिया, और ग़ैर-मुसलमान जैसे ईसाइयों पर अभी भी हमले हो रहे हैं.
हालांकि फ़ौजी कार्रवाइयों के तहत कुछ ख़ास इलाक़ों को ही निशाना बनाया गया है.
इसमें एक बलूचिस्तान का इलाक़ा शामिल है जहां अलगाववादियों को निशाना बनाया गया है और फिर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत शामिल है जहां पाकिस्तानी तालिबान को निशाना बनाया गया.
इसके अलावा कराची के अलग-अलग वैचारिक समूहों और माफ़ियाओं को निशाना बनाया गया है.
मलिक इसहाक़ की हत्या को सिर्फ़ छोड़ दें तो पंजाब में चरमपंथी समूहों पर कार्रवाई नहीं की गई है.
जिन समूहों पर कार्रवाई नहीं की गई उसमें देश का सबसे बड़ा अतिवादी समूह लश्कर-ए-तैबा भी शामिल है जो कि अपना कई नाम रख चुका है और अब प्रत्यक्ष तौर पर दान कार्य करता है.
पंजाब में क़रीब 70 समूह सक्रिय हैं. इसमें से कई समूह भारत के नियंत्रण वाले कश्मीरी भू-भाग को छिनने की बात करते हैं.
अमरीका और पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान के छोटे सामरिक परमाणु हथियारों को लेकर चिंता जताई है कि वे पंजाब के समूहों के हाथ लग सकते हैं.
पंजाब के समूहों के फ़ौज के साथ नज़दीकी संबंध हैं.
हालांकि फ़ौज ने अमरीका को आश्वस्त किया है कि सुरक्षा के सभी उपाय किए जा रहे हैं.
उनकी तरफ़ से यह भी इशारा किया गया है कि दूसरे इलाक़ों से निपटने के बाद पंजाब में भी सफ़ाई अभियान चलाया जाएगा.
यूरोपीय संघ और पाकिस्तानी मानवाधिकार समूहों ने पाकिस्तान में मौत की सज़ा में इज़ाफ़ा होने को लेकर नाराज़गी जताई है.
पेशावर में स्कूल पर हमला होने के बाद मौत की सज़ा पर सात साल से लगी रोक हटा ली गई थी.
इस साल पाकिस्तान में 300 से ज़्यादा लोगों को मौत की सज़ा दी गई है.
इसमें से ज़्यादातर लोग वैसे थे जो चरमपंथ के मामले में दोषी नहीं थे.
पाकिस्तान के जेलों में 6000 क़ैदी मौत की सज़ा का इंतज़ार कर रहे हैं. यह दुनिया में मौत की सज़ा का इंतज़ार कर रहे क़ैदियों की सबसे बड़ी संख्या है.
न्यायिक व्यवस्था पर लंबे समय से पड़ने वाले बोझ से निपटने में सरकार असफल रही है. इसने मौत की सज़ा पर क़ानून व्यवस्था की निर्भरता को बढ़ा दिया है.
चरमपंथ-विरोधी फ़ौजी अदालत की 2015 में स्थापना की गई है लेकिन यह काफ़ी विवादास्पद है.
क़ानून व्यवस्था में सुधार और पुलिस को आधुनिक बनाने जैसे क़दम इस दिशा में सरकार के लिए बेहतर रास्ता होगा.
हालांकि राष्ट्रीय बजट का 20-25 फ़ीसदी हिस्सा फ़ौज को जाता है इसलिए पुलिस के लिए बड़ी कम गुंजाइश बचती है.
फ़ौज और सरकार के बीच तनाव अब भी क़ायम है लेकिन समय के साथ सरकार पीछे हट रही है और फ़ौज की मांगों को मान रही है.
फ़ौज के साथ नहीं खड़ा होने के लिए सरकार की आलोचना हुई है लेकिन किसी भी तरह की टकराहट पैदा नहीं करने के लिए प्रशंसा भी हुई है.
हालांकि यह भविष्य के लिए ख़तरे की घंटी है कि फ़ौज अपना अधिकार क्षेत्र चरमपंथ और विद्रोहियों के ख़िलाफ़ के साथ-साथ न्यायिक व्यवस्था और मीडिया के नियंत्रण से लेकर निगरानी तक में बढ़ा रहा है.
फ़ौज का प्रभाव प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति और देश के विदेश और सुरक्षा नीतियों पर भी बढ़ रहा है.
इसलिए लग रहा है कि साल 2016 भी कई तरह के उतर-चढ़ावों वाला होगा.
सरकार को शासन के कई क्षेत्रों में अपनी कमियों को दूर करना है.
मसलन ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में 12 लाख लोग आंतरिक विस्थापन के शिकार है. उनका ख़ैबर पख़्तूनख़्वा और क़बीलाई इलाक़ों में पुनर्वास करना अभी भी बचा हुआ है.
यह काम सरकारी संस्थाओं को करना चाहिए लेकिन फ़ौज ने पहले ही इसकी शुरुआत कर दी है.
क़ानूनी और पुलिस व्यवस्था में सुधार बहुत अहम है. नैक्टा का निमार्ण बहुत ज़रूरी है.
फ़ौज को नागरिक समाज को सक्षम बनाने में मदद करने की ज़रूरत है.
फ़ैसला लेने और वादों को निभाने में सरकारी पक्ष को अधिक प्रतिबद्ध होना होगा.
जहां तक चरमपंथ का सवाल है तो पाकिस्तान अभी भी इससे आज़ाद नहीं है. नए साल में पता चलेगा कि नेतृत्व हालात सुधारने को लेकर कितना प्रतिबद्ध है.
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