-उपेक्षित रही है शिक्षा, बदलने होंगे हालात-
।। श्रीश चौधरी।।
शिक्षकों से हमारी अपेक्षाएं आज भी वही हैं-नेशन बिल्डर की, परंतु उनके प्रति हमारी उपेक्षा बढ़ती हुई अब नैतिक अपराध की सीमा छू रही है. हम बड़े अचरज के साथ कहते हैं कि अब शिक्षक को भी इतना वेतन मिलता है. हम अन्याय एवं असंवेदनशीलता की सीमा पार कर चुके हैं.
हम जरा शिक्षकों के वेतन एवं भत्तों की बात करें. जहां-तहां मैं सुनता हूं कि ‘अब क्या है, अब तो शिक्षकों को भी बीस-तीस हजार मासिक वेतन मिलता है.’ यह उक्ति एक ऐसी मानसिक दरिद्रता प्रदर्शित करती है, जो पूरे समाज के बौद्धिक दिवालियेपन को एक ही वाक्य में दर्शाता है. इस उक्ति से ऐसा लगता है कि शिक्षक जैसे समाज का सबसे अधिक अनुपयोगी अंग है एवं उसको इतनी अधिक तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए. पहले हम इस पर विचार करें कि क्या यह वेतन अधिक है. इस पर दो प्रकार से विचार हो सकता है.
पहला कि रुपये की क्रय शक्ति कितनी है. जब प्राथमिक शिक्षक का वेतन तीन सौ रुपया महीना था, जैसे 1970 के दशक में, तब सोना ढाई सौ रुपये का दस ग्राम मिलता था. इस आधार पर शिक्षक का वेतन आज कम हो गया है. आज आप दस वर्ष के शिक्षण का अनुभव रखनेवाले शिक्षक को दस ग्राम सोना नहीं दे रहे हैं. इस शिक्षक के लिए भी आज आलू तीस रुपये किलो एवं दूध तीस रुपये लीटर मिलता है, तब आज बीस हजार रुपये का वेतन एक सामान्य सुख में कुंठाहीन जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है.
अब शिक्षक के वेतन की तुलना इसी श्रेणी के किसी अन्य कर्मचारी के वेतन के साथ करें. मैं बैंक के किरानी के वेतन के साथ यह तुलना करना चाहूंगा. जितने कम ज्ञान एवं प्रशिक्षण से बैंक के किरानी का काम किया जा सकता है, इतनी कम योग्यता में प्राय: संगठित क्षेत्र का और कोई काम नहीं हो सकता है. यदि आप कैलकुलेटर या कंप्यूटर पर मौलिक अंकगणित-जोड़, घटाव, गुणा, भाग एवं ब्याज-दर ब्याज निकालना जानते हैं, तथा नोट पहचानना एवं गिनना जानते हैं, तो आप बैंक के किरानी का काम यशपूर्वक कर सकते हैं. यानी यदि आप पांचवीं कक्षा पास हैं, तो बैंक के किरानी होने की योग्यता रखते हैं. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पहले कई मैट्रिक फेल लोग भी बैंक के किरानी-खजांची आदि होते थे. फिर भी एक बैंक किरानी प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक से अधिक वेतन, भत्ता, सुविधाएं एवं आदर पाता है. शादी में उसे अधिक दहेज मिलता है. अपना मकान बनाने के लिए दो प्रतिशत ब्याज पर उसे ऋण मिलता है,
चिकित्सा एवं मनोरंजन के लिए जहां भी चले जायें आदि-आदि. काम के दौरान दसियों बार चाय पिये, खैनी, तंबाकू-पान खायें, सिगरेट पीयें, काम करने की सारी सामग्री, बिजली-कलम, कंप्यूटर, वातानुकूलित या पंखाचलित एवं सर्दी में हीटरजड़ित कमरे आदि सभी सुविधा-समय बैंक इन्हें उपलब्ध कराता है. परंतु एक प्राथमिक शिक्षक को भवन-मकान की भी गारंटी नहीं है, जहां बैठ कर वह अपना काम कर सकता है. एक ही साथ उसे 20 से 50 तक बच्चे, दो-दो, तीन-तीन कक्षाओं में पढ़ाना पड़ सकता है. औसतन ऐसे 25 से 36 घंटे तक की पढ़ाई प्रति हफ्ते करनी पड़ सकती है. वातानुकूलित एवं हीटर की बात तो दूर रही, वहां कुर्सी एवं पंखों की भी गारंटी नहीं है. पढ़ाने के बाद होमवर्क एवं टेस्ट की कापियां जांचनी है और वह भी घर लाकर, अपनी बिजली से अपनी कलम से. और हम कूदते हैं कि अब शिक्षक को भी इतना वेतन मिलता है. हम अन्याय एवं असंवेदनशीलता की सीमा पार कर चुके हैं. जहां तक शिक्षकों के प्रति हमारे कर्तव्य का प्रश्न उठता है. क्या शिक्षक या उसके परिवार के सदस्य बीमार नहीं होंगे? क्या उन्हें घर नहीं चाहिए? क्या उनके पास एक साइकिल भी न हो? क्या वे लंदन-पेरिस-सिंगापुर छोड़िए, तिरूपति एवं देवघर भी न जायें? क्यों वे आपके बच्चों को कठिन शब्दों का अर्थ अपनी डिक्शनरी खोल कर बतायें? क्यों शिक्षक के पास अपना एक लैपटॉप, कंप्यूटर या मोबाइल नहीं हो? क्यों उसके बच्चे भी यदि बेंगलुरु में लाखों की फीस देकर इंजीनियरिंग पढ़ें तो उन्हें ब्याजमुक्त ऋण नहीं मिले? शिक्षकों से हमारी अपेक्षाएं आज भी वही हैं- नेशन बिल्डर की, राष्ट्र-निर्माता की, परंतु उनके प्रति हमारी उपेक्षा बढ़ती हुई अब नैतिक अपराध की सीमा छू रही है.
अपेक्षाएं अधिक, सुविधा कम : यदि मजबूत, प्रगतिशील, स्वस्थ एवं शिक्षित समाज बनाना है, तो हमें अच्छे शिक्षक लाने होंगे एवं उन्हें सबसे अधिक वेतन सुविधा एवं आदर देना होगा. समाज को यह तय करना होगा कि हमें सर्वोत्तम प्रतिभा कहां लगानी है, मंत्री-संतरी बनाने में या उनके टूर प्रोग्राम बनाने में . जो सुविधा-वेतन-भत्ता आइएएस, आइपीएस आदि को दे रहे हैं वह शिक्षा में आना चाहिए था. सुनने में बात जरा अनोखी लगती है, परंतु ऐसी है नहीं. अंगरेजों को प्रतिभावान अधिकारियों की आवश्यकता थी, वही देशवासियों के विरुद्ध निष्ठा से उनका प्रशासन चलाते थे. इसीलिए अंगरेज अच्छे विद्यार्थियों को चुन कर आइसीएस आदि सेवा में ले जाते थे एवं उन्हें सर्वोत्तम तनख्वाह एवं सुविधा-भत्ता देते थे. हर पांच-छह वर्ष पर उन्हें देश-विदेश तक जाकर पढ़ने की सवैतनिक छुट्टी मिलती थी. उनके आधुनिक उत्तराधिकारी आइएएस अफसरों को आज भी यह सुविधा उपलब्ध है. परंतु प्राथमिक-माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय के शिक्षक को अधिकार स्वरूप यह सुविधा प्राप्त नहीं है. मानसिकता कुछ ऐसी है कि अब आप शिक्षक हो गये, आप आगे क्या पढ़ियेगा. आपको ज्ञान संवर्धन जैसी बेकार की बातों में क्या समय गंवाना है. लोग कहते हैं कि शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं, शिक्षक कहते हैं कि पढ़ने की सुविधा कहां उपलब्ध है.
कोई भी नैतिक वैधानिक या व्यावहारिक कारण नहीं है कि क्यों शिक्षक को अध्ययन अवकाश का वैधानिक अधिकार नहीं हो, क्यों उसे पुस्तक भत्ता नहीं मिले, क्यों यात्रा भत्ता नहीं हो, क्यों उसे घर पर होमवर्क जांचने के लिए अतिरिक्त कार्य भत्ता नहीं मिले, उन्हें अन्य वह सारी सुविधाएं उपलब्ध हों जो शिक्षकों को विश्व में कहीं भी उपलब्ध है. जबकि उनसे काम की हमारी अपेक्षा विश्वस्तरीय है. आप विकसित देश में प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षकों को देखें, आप समझ जायेंगे कि क्यों आज भी उन्हीं के नागरिक कला-विज्ञान-व्यापार-राजनीति-दर्शन-धर्म सभी क्षेत्रों में अग्रणी हैं. एक पुरानी कहावत है कि साठ रुपये महीने में ‘पुटिंग लाइम ऑन द वॉल’(दीवार पर चूना लगाना) सिखाने वाला शिक्षक मिलेगा. यदि आप ‘व्हाइट वाशिंग’ (पुताई/सफेदी) सिखानेवाला शिक्षक चाहते हैं तो 600/- महीना देना होगा. विकसित एशियाई देशों में सिंगापुर, कोरिया तथा जापान की चर्चा करना चाहूंगा एवं साथ ही पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के देशों की भी चर्चा करना चाहूंगा. इन देशों में शिक्षक समाज का सर्वाधिक आदरणीय व्यक्ति है. अपनी योग्यता की श्रेणी एवं संवर्ग में उन्हें सबसे अच्छी तनख्वाह एवं सुविधाएं मिलती हैं.
शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिभा का अभाव आज इस क्षेत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है. यदि चरित्र-व्यक्तित्व वाले शिक्षक उपलब्ध हैं, एवं अन्य कोई भी सुविधा नहीं भी उपलब्ध है तब भी आप आम के बगीचे में भी शांतिनिकेतन बना सकते हैं. परंतु यदि यह उपलब्ध नहीं है तो सब कुछ होते हुए भी आप अच्छी शिक्षा प्रणाली नहीं बना सकते हैं. यह स्थिति विशेषत: भारत में पिछले 200-300 वर्षो में उत्पन्न हुई है. अंगरेजों के जमाने में सरकारी अमलों की प्रतिष्ठा एवं आय में वृद्धि तथा स्कूल शिक्षक की दयनीय स्थिति ने अच्छे विद्यार्थियों का शिक्षा के क्षेत्र में आना ही बंद कर दिया. वे सप्लाई इंस्पेक्टर, एक्साइज इंस्पेक्टर, सरकारी बस में कंडक्टर, बैंक में किरानी आदि होना अधिक पसंद करते हैं बनिस्बत शिक्षक होने के. और अब तो निजी क्षेत्र में विशेषत: कंप्यूटर आदि से जुड़े धंधे में अपेक्षाकृत अच्छी तनख्वाह मिलती है, अत: शिक्षण के क्षेत्र को बची-खुची प्रतिभा से ही संतोष करना पड़ता है. दहेज के बाजार में शिक्षक को सिपाही से भी कम दहेज मिलता है.
भारत में मुसलिम बादशाहों के शासनकाल के युग तक ऐसा नहीं था. स्कूल में पढ़ाई की जिम्मेदारी का स्तर देखते हुए सामान्य तथा अच्छे विद्यार्थी, अच्छे व्यक्तित्व चरित्र के युवक ही शिक्षक होते थे. अब भारत में ‘गुरुजी’ शब्द ही हास्यास्पद हो गया है. जिसे कोई कहनेवाला न हो, उस सब काम को करने के लिए गुरुजी हैं. वह पशुगणना, जनगणना, चुनाव करवाना या कुछ और हो. प्रतिष्ठा के साथ ही इनकी पारिश्रमिक में भी ह्रास हुआ है. नतीजा सामने है. जो स्वयं हीन भावना से ग्रस्त हों, वे बच्चे को गौरव, आत्मसम्मान एवं उत्साह की शिक्षा कैसे दे सकते हैं, देश में बढ़ते अपराध एवं अराजकता का एक कारण शिक्षा के क्षेत्र में उत्तम व्यक्तित्व व चरित्र के व्यक्तियों का अभाव भी प्रतीत होता है. परिवार एवं स्कूल मिल कर ही व्यक्ति के चरित्र एवं व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं. कर्तव्य एवं अकर्तव्य की शिक्षा वहीं मिलती है. अंधेरी सड़क पर जा रही कोई अकेली लड़की हमारी वासना की ज्वाला का ईंधन हो, या हमारी सुरक्षा एवं स्नेह की अधिकारी, यह अंतर माता-पिता, गुरु ही दे सकते हैं. पुलिस, कानून या गुप्त कैमरे सिर्फ अपराधी को पकड़ सकते हैं, अपराध रोक नहीं सकते हैं.
-जारी
(लेखक आइआइटी मद्रास में मानविकी एवं समाज विज्ञान के प्रोफेसर)