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सरदार पटेल न होते तो भारत का मानचित्र सुंदर नहीं होता
के सी त्यागी वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनावों का महत्व इस वजह से नहीं है कि वे अंगरेजों की देख-रेख में लड़े गये थे और चुनाव अनुशासित रहे. वास्तविकता यह है कि चुनाव के दौरान बल्लभ भाई पटेल कांग्रेस संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष थे और उससे भी अधिक वह सख्त, ईमानदार व जिम्मेदार नेतृत्व का […]
के सी त्यागी
वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनावों का महत्व इस वजह से नहीं है कि वे अंगरेजों की देख-रेख में लड़े गये थे और चुनाव अनुशासित रहे. वास्तविकता यह है कि चुनाव के दौरान बल्लभ भाई पटेल कांग्रेस संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष थे और उससे भी अधिक वह सख्त, ईमानदार व जिम्मेदार नेतृत्व का निर्वहन कर रहे थे.
इसी दौरान उन्होंने सख्त शब्दों में कहा था, ‘जब कांग्रेस का रॉलर चलेगा, राह के सभी रोड़े-पत्थर अपने आप समतल होते चले जायेंगे.‘ पटेल ने इससे भी अधिक कड़े शब्दों में तत्कालीन राजस्थान प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष जयनरायन व्यास को फटकार लगाई थी, जब उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री से इस्तीफे की मांग प्रांतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा प्रस्ताव पारित कराने की साजिश की थी. ऐसी ही कुछ विशेष और सख्त अभिव्यक्तियों की वजह से समाज का एक बड़ा धड़ा पटेल को कठोर, निर्मम तथा सख्त नेतृत्व की संज्ञा देने से परहेज नहीं करता.
इसके विपरीत त्रावणकोर के दीवान सी पी रामास्वामी अययर ने जब भारत के खिलाफ मोर्चा खोल स्वतंत्र राज्य घोषित करने का शंखनाद िकया, तो सरदार ने सूझ-बूझ का परिचय देते हुए रामास्वामी को पत्र लिखा, ‘ दोस्त विहीनों से दोस्ती करना मेरे स्वभाव में है. आपने अपनी इच्छा से अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर लिया है, परंतु मुझे खुशी होगी यदि आप कल मेरे यहां लंच के लिए पधारें.‘ विपरीत परिस्थिति में सरदार की सहनशीलता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है? छठी कक्षा का छात्र होते हुए सभी विद्यार्थियों को अनशन के लिए तैयार कर लेने वाले पटेल में बचपन से ही नेतृत्व क्षमता थी.
पटेल पार्टी, समाज और देश से जुड़े मुद्दों पर लोहे से भी ज्यादा कठोर और व्यक्तिगत व अन्य मुद्दों पर पानी से भी निर्मल स्वभाव वाले शख्स रहे हैं.
सरदार पटेल की 65वीं पुण्यतिथि पर उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को जानना प्रासंगिक होगा. लौहपुरुष को आजाद भारत के एकीकरण के लिए विशेष रूप से जाना जाता है. इतिहास गवाह है कि यदि पटेल न होते तो आज भारत का मानचित्र इतना सुंदर और विशाल नहीं होता. वर्ष 1947 में भारत की आजादी के साथ पाकिस्तान का बनना भी तय हो चुका था.
1946 के कैबिनेट मिशन की प्रस्तावित योजना के तहत पूरा बंगाल, पंजाब और असम, पाकिस्तान का हिस्सा बनने जा रहा था. दूरदर्शी पटेल ने प्रस्तावना का कड़े शब्दों में विरोध करते हुए कहा, ‘‘यह प्रस्ताव तो पाकिस्तान गठन के प्रस्ताव से भी ज्यादा खराब है.‘‘ बाद में एक बार फिर से 20 फरवरी, 1947 को एटली नीति के तहत पंजाब, बंगाल और असम जिन्ना के खाते में डाले जाने का प्रस्ताव रखा गया. इसे सिरे से ठुकराते हुए पटेल ने पंजाब और बंगाल के विभाजन का प्रस्ताव पेश कर दिया और पूरा का पूरा असम भारत का हिस्सा बना लिया गया. इस प्रकरण में पटेल के लॉर्ड माउण्ट बेटन और लॉर्ड वैवेल के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्तों का बड़ा योगदान रहा.
हैदराबाद और जूनागढ़ के नबाव, जो शुरू में भारत के साथ शामिल होने से दूरी बना रहे थे, के साथ पटेल ने बल और विवेक दोनों का इस्तेमाल किया. सरदार पटेल की अनुशासनात्मक क्षमता और मजबूत नेतृत्व का कमाल ही था, जो 565 प्रांतों को भारत के साथ जोड़े रखने में सफल रहा.
वर्ष 1915 से गांधीजी के सानिध्य में रहकर पटेल ने उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारा था. धर्मनिरपेक्षता भी शायद उन्हें गांधीजी से दीक्षा में मिली थी. धार्मिक एवं जातीय भेदभाव के खिलाफ गांधीजी और पटेल का एक स्वर इस तथ्य की पुष्टि भी करता है. पटेल को गांधीजी के सत्याग्रहों की रीढ़ कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी. चाहे वह डांडी मार्च का सफर हो या फिर खेड़ा सत्याग्रह, पटेल उनका साया बनकर रहे. अपनी डांडी यात्रा के दौरान स्वयं गांधीजी ने यह बात कही, ‘1918 के खेड़ा सत्याग्रह में मुझे बल्लभ भाई पटेल की वजह से ही सफलता मिली और आज इन्हीं की वजह से मैं यहां दांडी में भी हूं.‘ वर्ष 1928 के वारडोली सत्याग्रह का भी पटेल ने चुनौतीपूर्ण तरीके से निर्वहन किया.
इसी दौरान किसानों के बीच उनके प्रति बढ़ते विश्वास को देखते हुए स्वयं गांधीजी ने उन्हें ‘सरदार‘ यानी किसानों का नेता की उपाधि प्रदान की. बल्लभ भाई के नेतृत्व के बारे में तब के ब्रिटिश अखबार टाईम्स ऑफ इंडिया ने िलखा – ‘‘ पटेल यहां बोल्शेविक शासन बनाने में सफल रहे हैं, जिसमें वह लेनिन की भूमिका निभा रहे हैं. ‘
आज राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में सरदार पटेल जैसे महान शख्शियत की कमी खलती है. कमी वेदना में तब्दील हो जाती है जब देश के अंदर अविश्वास की भावना चर्चा में आती है. वर्तमान परिपेक्ष्य में विभिन्न संगठनों द्वारा सरकार पर राम मंदिर के निर्माण कराये जाने के लिए दबाव बनाने की खबर समाचार पत्रों की सुर्खियां बनती हैं. इस बाबत सरदार पटेल का कड़ा संदेश है कि मंदिर का निर्माण सरकारी सहयोग से नहीं किया जा सकता. जब सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की बात तूल पकड़ने लगी, तो गृहमंत्री पटेल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि मंदिर के निर्माण में सरकारी फंड नहीं, ट्र्स्ट के पैसे लगाये जायें. उनके इस फैसले में एक निष्ठावान, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और राजधर्म वाले शासक की छवि परिलक्षित व प्रतिबिम्बित होती है.
सरदार पटेल के प्रति श्रद्घा और विश्वास की भावना में वर्तमान सरकार की स्टैच्यू ऑफ यूनिटी नामक विश्व की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने, प्रति वर्ष 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस मनाये जाने जैसी पहल सराहनीय है. परंतु मजबूत राष्ट्रीय एकता, धर्मनिरपेक्षता तथा देश की चौमुखी सफलता उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान और श्रद्धांजलि होगी. वर्ष 1950 में आज के ही दिन, गार्डियन अखबार ने उनके निधन के बाद लिखा था,‘ पटेल के बिना गांधी के विचारों को पूरी तरह धरातल पर लाना आसान नहीं था.‘
(लेखक जदयू के राज्यसभा सदस्य हैं)
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