संसद का इस बार का शीतकालीन सत्र असहिष्णुता पर बहस से शुरू हुआ. आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा के मुकाबले राज्यसभा का वक़्त हंगामे की वजह से ज़्यादा ख़राब हो रहा है.
21 जुलाई से 13 अगस्त 2015 तक के साढ़े तीन हफ़्तों के पिछले सत्र में राज्यसभा केवल नौ घंटे चली.
राज्यसभा में किसी भी पार्टी या गठबंधन का बहुमत न होना अवरोध की सबसे बड़ी वजह है. हालांकि बहस ज़रूरी है, लेकिन बहुमत न होने से लगातार असहमति और निरंतर गतिरोध बना रहता है.
राज्यसभा में असहिष्णुता पर चर्चा इस सत्र के कामकाज के लिए सूचीबद्ध नहीं थी.
संसदीय मामलों पर नज़र रखने वाले थिंक टैंक पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने इस बारे में एक जांच रिपोर्ट भी जारी की है.
इसके अनुसार, "शीत सत्र के लिए संसद के एजेंडे में 19 बिल लंबित हैं. इन पर विचार करने के साथ उन्हें पास भी किया जाना है. 14 नए विधेयक पेश करने का प्रस्ताव भी है. इनमें से दो बिलों को वापस लिया जाएगा."
लोकसभा के आंकड़ों के अनुसार साल 2014 से 2015 के बीच लोकसभा में 312 और राज्यसभा में 71 बिल लंबित हैं. 2014 के आम चुनावों के बाद संसद के पांच सत्र हुए हैं, जिनमें लोकसभा में 61 और राज्यसभा में केवल तीन बिल ही पास हो सके.
लोकसभा के पास क़ानून बनाने की ज़्यादा शक्तियां हैं इसलिए जब लोकसभा भंग नहीं होती, तो बिल खुद ही ख़त्म हो जाता है. वहीं अगर राज्यसभा में वह लंबित है तो वहां भी वह ख़त्म हो जाता है.
लगातार हंगामे से सरकारी ख़ज़ाने को नुक़सान होता है. एनडीटीवी के अध्ययन के मुताबिक़, इससे पहले मानसून सत्र में हंगामे की वजह से 29 हज़ार रुपए प्रति मिनट का अनुमानित नुक़सान हुआ.
पीआरएस लेजिस्लेटिव के आउटरीच कार्यक्रम के प्रमुख चक्षु रॉय कहते हैं, "क्या होगा अगर आम सहमति नहीं बनती है और पार्टियां भी अपना रुख नर्म नहीं करती? क्या संसद बिल्कुल भी नहीं चलेगी?"
वो आगे कहते हैं, "अगर पिछले कुछ वर्षों पर ध्यान दें तो संकेत मिले हैं कि संसद के कामकाज को राजनीतिक माहौल की अनियमितता से बचाने के लिए तत्काल क़दम उठाने होंगे.”
(इंडियास्पेंड की रिसर्च पर आधारित)
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