झारखंड में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई रूप हैं. जहां एक तरफ महिलाएं बाल विवाह और डायन प्रताड़ना जैसी कुरीतियों की शिकार हो रही हैं, वहीं ट्रैफिकिंग के रूप में उन पर आधुनिक समाज का कहर भी जारी है. इसके अलावा भ्रूण हत्या से लेकर यौन शोषण तक के मामले पहले से ही मौजूद हैं. इस बार आमने-सामने के कॉलम में इसी मसले पर हमने झारखंड में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोकने में जुटी दो संस्थाओं के प्रमुख से बातचीत की है. एक राज्य महिला आयोग की नव निर्वाचित अध्यक्ष महुआ माजी हैं तो दूसरी झारखंड महिला सामाख्या सोसाइटी की स्टेट प्रोग्राम डायरेक्टर स्मिता गुप्ता. जहां स्मिता गुप्ता लंबे समय से राज्य में महिलाओं के क्षमता वर्धन के प्रयास में जुटी हैं ताकि वे अपने साथ होने वाले अन्याय का मुकाबला खुद आगे आकर कर सकें. जबकि महुआ माजी जिनका कार्यक्षेत्र अब तक मुख्य रूप से लेखन ही रहा है, अब नये सिरे से महिला आयोग की कमान संभाल कर महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. इन दोनों के साथ पुष्यमित्र की बातचीत के प्रमुख अंश:
झारखंड में महिलाओं को लेकर बड़ी अजीब स्थिति है, एक तरफ संघर्ष और नेतृत्व के मसले पर महिलाएं आगे रहकर समाज को दिशा दिखा रही हैं, तो दूसरी तरफ उन्हें बाल विवाह, डायन प्रताड़ना, मानव तस्करी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इस द्वंद्व को आप किस रूप में देखती हैं?
मैं इस पूरी परेशानी की वजह गरीबी और शोषण को मानती हूं. झारखंड के एक संपन्न राज्य होने के बावजूद भी यहां के गांव में रहने वाले लोग आज भी गरीब हैं. यहां ठीक से विकास नहीं हुआ है. लोगों को सुविधाएं भी नहीं मिली है. पहले जंगल से भी लोगों की कुछ चीजें मिल जाती थीं, मगर हाल के दिनों में उस पर भी रोक लग गयी है. जंगल के इलाकों में रहने वाले लोगों को छोटे-छोटे अपराध में जेल भेज दिया जाता है. ऐसे में बाहर जाना उन्हें बेहतर रास्ता लगता है. मानव तस्करी का जो मामला हम देख रहे हैं उसकी एक बड़ी वजह यह भी है.
बाहर के लोग प्रलोभन देकर, सपना दिखाकर उन्हें ले जाते हैं. गरीबी खत्म होगी तो ये चीजें खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेंगी. आप देखिये यह जो डायन प्रताड़ना है इसकी वजह भी कहीं न कहीं गरीबी और कुपोषण ही है. बाल विवाह का जहां कहीं असर है वह भी गरीबी के कारण ही है. इसके लिए हमें विकास को प्राथमिकता देनी पड़ेगी. गांव के लोगों को सम्मानजनक जीवन उपलब्ध कराना होगा. झारखंड प्राकृतिक रूप से संपन्न राज्य है, यहां प्रतिभा की भी कमी नहीं है. लोग भी हमारे राज्य के बड़े मेहनती हैं, हिम्मती हैं. ऐसे में इन्हें अगर थोड़ा भी सहारा मिले तो ये अपने-अपने हालात को बदल देंगे. और एक बार हालात बदल गये तो फिर बाल विवाह, डायन प्रताड़ना और मानव तस्करी जैसी समस्याएं खुद-बखुद खत्म हो जायेंगी.
राज्य में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जो संसाधन हैं उनकी स्थिति भी कुछ बेहतर नहीं है. महिला थानों में महिला पुलिसकर्मी नहीं हैं, रिमांड होम की हालत ठीक नहीं है. महिला हेल्प लाइन भी महिलाओं की समुचित मदद नहीं कर पाते हैं.
चुकि अभी-अभी मैंने काम संभाला ही है, इसलिए इन संस्थाओं के बारे में मैं बहुत जानकारी हासिल नहीं कर पायी हूं. पिछले कुछ दिनों से महिला आयोग में मामलों की सुनवाई नहीं हो पायी थीं, जिसके कारण बड़ी संख्या में मामले लंबित पड़े हैं. ये मामले तत्काल समाधान की मांग कर रहे हैं, इसलिए पहले उन पर ध्यान देना जरूरी है और हमलोग इसी काम में जुटे हैं. इस बीच रांची के पुलिस पदाधिकारियों से भी बातचीत हुई है और हमलोगों ने फैसला किया है कि पहले रांची को महिलाओं के लिए सहज और सुरक्षित बनायेंगे. एक मॉडल के तौर पर विकसित करेंगे. उसके बाद इस उदाहरण को पूरे राज्य में फैलाएंगे. इसके साथ-साथ हमारा लक्ष्य पूरे राज्य में घूम-घूमकर महिलाओं को न्याय दिलाना है. हम चाहते हैं कि छोटे-छोटे इलाकों में मोबाइल कोर्ट लगाकर महिलाओं की समस्या को हल करें. हर पीड़ित महिला रांची नहीं पहुंच सकती है. दुमका के किसी गांव की महिला को तो उसके गांव में ही न्याय चाहिये. तो उन्हें न्याय दिलाने के लिए आयोग उनके शहर पहुंचेगा. कस्बे में पहुंचेगा. उस अदालत में स्थानीय प्रशासन और पुलिस के अधिकारी भी मौजूद रहेंगे ताकि महिलाओं को यथासंभव ऑन द स्पॉट न्याय मिल सके.
महिला हिंसा से निबटने के उपाय के रूप में आप पंचायतों की भूमिका किस रूप में देख रही हैं?
निश्चित तौर पर राज्य में बड़ी संख्या में महिलाएं पंचायतों में चुनकर आयी हैं. मगर इसका असर महिलाओं के पक्ष में कितना हो रहा है यह देखने की जरूरत है. महिला आयोग संभवत: महिला पंचायत प्रतिनिधियों के साथ भी कुछ काम कर रहा है, हम आगे भी उनकी मदद करेंगे ताकि वे गांवों में महिलाओं के लिए बेहतर माहौल बनाने में मददगार साबित हो सकें. अपने कार्यकाल के दौरान मेरा लक्ष्य एक-एक दिन का इस्तेमाल करना है ताकि राज्य की महिलाओं को सुरक्षा मिल सके, उनके साथ न्याय हो सके और उन्हें सम्मानित जीवन जीने का हक मिल सके.
आप एक लेखिका हैं, मगर अब आपको आयोग की अध्यक्ष के रूप में सार्वजनिक जीवन जीना होगा. आप इसके लिए खुद को कितना तैयार पाती हैं?
मैं साहित्यिक रचनाकर्म से जरूर जुड़ी हूं मगर मेरी पढ़ाई लिखायी समाजशास्त्र में हुई है. समाजशास्त्र से ही मैंने एमए, पीएचडी और यूजीसी नेट तक क्वालिफाइ किया है. इस लिहाज से देखें तो समाज से मेरा नाता बहुत पुराना है. मैं ऑल इंडिया सोश्योलॉजिकल कॉंफ्रेंस की भी सदस्य हूं. इसके कारण मुङो लगातार जड़ों से जुड़े रहने का अवसर मिला है. कई शोधों के दौरान मैं गांव आती-जाती रही हूं. लेखन कार्य के लिए भी मेरा गांव आना-जाना लगा रहता है. इस हिसाब से आप मुङो समाज से कटे व्यक्ति के रूप में नहीं देख सकते. समाज से मेरा जुड़ाव हमेशा से रहा है. हां, जब-जब मैं महिलाओं से मिलती थी और उनके हालात से अवगत होती थी तो लगता था कि इनके लिए कुछ करना चाहिये. अब मुङो एक प्लेटफॉर्म मिला है तो इस प्लेटफॉर्म का मैं इस्तेमाल करते हुए कुछ सार्थक करने की कोशिश करूंगी.
एक तरफ लोग आपको बाहरी कहते हैं तो दूसरी तरफ नक्सल समर्थक. आप इन प्रतिक्रियाओं को किस रूप में देखती हैं?
मेरा परिवार 1932 से पहले से झारखंड में रह रहा है, हम यहां के खतियानी हैं. इस लिहाज से मुङो बाहरी कहना ठीक नहीं है. साथ ही जो लोग मुङो नक्सल समर्थक कहते हैं वे इसलिए कहते हैं कि मेरे उपन्यास में नक्सलवाद का जिक्र है. दरअसल उस उपन्यास में मैंने कोल्हान क्षेत्र में हो आदिवासियों का पूरा इतिहास बताया है. उसमें कोल विद्रोह से लेकर गुआ विद्रोह तक का जिक्र है. जाहिर है उसमें उस इलाके में फैले नक्सलवाद का भी जिक्र है. मगर वह रेफरेंस की तरह है. मैंने नक्सलवाद को समाधान नहीं बताया है. वह उपन्यास खनन परियोजनाओं के कारण आदिवासी समाज को होने वाली पीड़ा के संदर्भ में है.
महुआ माजी
अध्यक्ष, झारखंड राज्य महिला आयोग