।। अनुज कुमार सिन्हा।।
जिस समय महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट कर रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा अंगरेजों-शोषकों के खिलाफ एक लड़ाई लड़ चुके थे. गांधी से लगभग छह साल छोटे बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ 25 साल का रहा. उनका संघर्ष काल भी सिर्फ पांच साल का रहा. लेकिन इसी अवधि में उन्होंने अंगरेजों-शोषकों के खिलाफ जो संघर्ष किया, जिस बिरसावाद को जन्म दिया, उसने बिरसा को अमर कर दिया. आज झारखंड की जो स्थिति है, आदिवासी समाज की समस्याएं हैं, उसे बिरसा ने सौ-सवा सौ साल पहले भांप लिया था. यह बताता है कि बिरसा कितने दूरदर्शी थे. इसलिए उन्हें भगवान बिरसा कहा जाता है. बिरसावाद का चिंतन-मनन-अध्ययन करें, तो उसी में आदिवासी समाज की समस्याओं का हल भी दिखता है.
बिरसा जानते थे कि आदिवासी समाज में शिक्षा का अभाव है, गरीबी है, अंधविश्वास है, बलि प्रथा पर भरोसा है, हड़िया कमजोरी है, मांस-मछली पसंद करते हैं. समाज बंटा है, लोग से झांसे में आ जाते हैं. इन समस्याओं के समाधान के बिना आदिवासी समाज का भला नहीं हो सकता. इसलिए उन्होंने एक बेहतर लीडर/समाज सुधारक की भूमिका अदा की. अंगरेजों और शोषकों के खिलाफ संघर्ष भी जारी रखा. उन्हें पता था कि बिना धर्म के सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा. इसलिए बिरसा ने सभी धर्मो की अच्छाइयों से कुछ न कुछ निकाला और अपने अनुयायियों को उसका पालन करने के लिए प्रेरित किया.
बिरसा ने जिन सवालों को उठाया था, वे मुद्दे आज भी जीवित हैं. जिन कमियों/बुराइयों को दूर करने के लिए कहा था, आज भी वे आदिवासी समाज में विद्यमान हैं. बिरसा ने कहा था : हड़िया मत पीना, बलि और मांसाहार से दूर रहना, सादा जीवन और उच्च विचार का जीवन जीना, सभी जीवों से प्रेम करना, एकता बनाये रखना, स्नान कर पवित्रता के साथ भोजन करना, एक दिन खेतों में काम नहीं करना. बिरसा मुंडा को पूजनेवाले ही आज उनके उपदेशों को नहीं मानते. बिरसा का झुकाव अध्यात्म की ओर था. उन्होंने अध्यात्म-अहिंसा को ही अंगरेजों के खिलाफ हथियार बनाया था. ऐसी मान्यता बना दी गयी है कि हड़िया आदिवासी संस्कृति का प्रतीक है.
इसी आदिवासी समाज में बिरसा मुंडा हुए, शिबू सोरेन हैं, जिन्होंने हड़िया के खिलाफ अभियान चलाया. पर कहां कोई मानता है. हड़िया जम कर पीते हैं. यह नहीं देखते कि इसका उनके शरीर, उनके परिवार पर क्या कुप्रभाव है. हड़िया के नशे का फायदा उठा कर जमीन तक हथिया (लिखवा लेना) लिया जाता है. बिरसा कहते थे कि सिर्फ सिंगबोंगा को मानो. खस्सी, मुर्गी, कबूतर, भैंसा की बलि से दूर रहो. आदिवासी पहले से शोषकों के चंगुल में थे. आर्थिक तंगी में जीते थे. इसलिए बलि देकर अपनी आर्थिक स्थिति और खराब क्यों करते. पर, बलि प्रथा आज भी है. घर-जमीन बेच कर, कर्ज लेकर भी बलि देते हैं. बिरसा मांसाहार से दूर रहने को कहते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इसका स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है. दुनिया भी अब शाकाहारी हो रही है. बिरसा मानते थे कि एकता से ही शोषकों को, अंगरेजों को हराया जा सकता है. कहां चली गयी वह एकता? आदिवासी समाज आज भी बंटा हुआ है. अगर उन्होंने कहा था कि सप्ताह में एक दिन काम नहीं करना है, तो उसके पीछे धारणा थी. एक दिन शरीर और मन को आराम देने से दोगुनी ऊर्जा या उत्साह से लड़ाई लड़ी जा सकती है, काम किया जा सकता है. आज सरकार या निजी कंपनियां भी तो साप्ताहिक अवकाश देती हैं.
बिरसा सिर्फ उपदेश नहीं देते थे. पहले योजना बनाते थे. फिर उसे लागू करते थे. अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने के लिए वे गांव-गांव घूमते थे. गीत गाते थे. लोगों को जोड़ने के लिए देशभक्ति/बहादुरी की कथा सुना कर अपने अनुयायियों का मनोबल बढ़ाते थे. सहयोगियों पर भरोसा करते थे. इसलिए बिरसावाद के प्रचार के लिए उन्होंने प्रचारक तैयार किये. इसमें भरमी मुंडा भी थे. उन्हें पता था कि लोग आसानी से उनकी बातों को नहीं मानेंगे. सो उन्होंने अकाल, महामारी के दौरान लोगों की सेवा की. उनका दिल जीता. इससे उनके प्रति लोगों में विश्वास बढ़ा. बिरसा अपने सहयोगियों डेमका मुंडा, परन मुंडा, सुंदर मुंडा, तिरिपुरू मुंडा, जोहन मुंडा, दुखन स्वांशी, तांतीराम मुंडा. ऋषा मुंडा के बीच काम बांटते थे. एक कमांडर की तरह उन पर भरोसा करते थे.
आदिवासी समाज का बड़ा वर्ग बिरसा मुंडा को मानता है, पूजता है, पर उनके उपदेश पर गौर नहीं करता. हां, बिरसाइत आज भी (संख्या कम है) अपने वसूलों पर जीते हैं. काश, बिरसा ने सौ-सवा सौ साल पहले जो राह दिखायी, उस पर आदिवासी समाज चला होता, हड़िया-दारू, मांस-मछली छोड़ दी होती, एकता बनाये रखते, तो आज यह समाज समृद्ध होता, विकसित होता. हर परिवार के चेहरे पर खुशी होती.