-हरिवंश-
जिसने भी देखा, उस भीड़ को वह नहीं भूलेगा. विधायक महेंद्र सिंह की अंतिम विदाई देने उमड़ी थी, वह भीड़. हमलोग बगोदर गये थे. रास्ते से ही देखा पैदल उमड़े लोग. छोटे बच्चे-महिलाएं. कतारबद्ध और अनुशासित. नितांत गरीब.भीड़ का इतना मुखर चरित्र होता है, यह पहली बार देखा. हजारों-हजार की कतारें. महिलाएं-बच्चे-बूढ़े. रोते-बिलखते या चुप. चीटियों की तरह अनुशासित-कतारबद्ध. यह भीड़, गांधी के ‘अंतिम आदमियों’ की भीड़ थी. अब किसी राजनीतिक दल की सभा में इस वर्ग चरित्र की भीड़ नहीं आती. वैसे तो 1977 के बाद मध्यमार्ग दल भीड़ ढ़ोते हैं. पैसे पर जुटाते हैं. उस जुटाई भीड़ में भी ‘गांधी के अंतिम लोगों की जमात’ नहीं आती. महेंद्र सिंह की अंतिम विदाई में स्वत: उमड़ी थी भीड़. भीड़ या अपार जनसमूह या मानव समुद्र.
बार-बार मन इस भीड़ के चरित्र को समझना चाहता है. दूसरों से तुलना करता है. आज कोई मध्यमार्ग दल दो-चार हजार की भीड़ जुटाता है, तो उसे प्रबंध करने के लिए पुलिस की जरूरत पड़ती है-फिर भी पूरी भीड़ अनुशासनहीन, बददिमाग और लुंपेनों की तरह आचरण करती है. मंच से उनके सबसे ताकतवर-सर्वश्रेष्ठ नेता चिल्लाते हैं, पर भीड़ उनकी बात नहीं सुनती. कोई उठता है, बैठता है, चिल्लाता है, उद्दंडता करता है, पर महेंद्र सिंह की स्मृति में उमड़ी भाकपा माले व अन्य लोगों की भीड़ का चरित्र ही नितांत अलग था. कोई पुलिस-व्यवस्थापक नहीं. मंच से कार्यकर्ता महज अनुरोध करते थे. कभी-कभार, पचासों हजार की भीड़ उसका पालन करती थी. यह वह भीड़ थी, जिसके बीच जाकर आप एक मानव परिवार का सदस्य महसूस करने लगते थे. एक ऐसी भीड़ जिसकी छत्रछाया में आप अपना डर, भय खो कर एक परिवार बन जाते हैं. अब ऐसी भीड़ कहीं नहीं जुटती.
बार-बार मन में मुट्ठी भर जुटे लोगों की वह राजनीतिक जमात याद आती थी, जिसके बीच पहुंचते ही आप डरने लगते हैं. जहां आदमी, आदमी से खौफ रखने लगता है. एक यह भीड़ थी, जहां पचासों-साठों हजार लोग एक साथ जुट कर अपना मौन बांट रहे थे. यह उन गरीबों की भीड़ थी, जो अपनी अस्मिता के लिए सपने देख रही है.
महिलाएं इतनी तादाद में! इस सामंती समाज-परिवेश में इतनी महिलाएं शोक सभा में उमड़ी, हतप्रभ था. और अनुशासन! माइक से दो बार कहा गया कि कार्यकर्त्ता व अन्य लोग महिलाओं के लिए जगह छोड़ कर पीछे हट जायें. पर्याप्त था यह कहना. भीड़ स्वत: पीछे सरक गयी. जन सैलाब में आगे सिर्फ महिलाएं ही महिलाएं. पूरी सभा शोक मग्न. न ताली, न शोर. इतनी बड़ी भीड़ और यह अनुशासन. यही महेंद्र जी और माले का आधार है, जो आज किसी राजनीतिक जमात के पास नहीं है.
भाकपा माले के पोलित ब्यूरो के नेताओं को पहली बार देखा. करीब से. ‘नेता’ कहना, इनका अपमान होगा. बिल्कुल अपने कार्यकर्त्ताओं की तरह सामान्य. कोई विशिष्टता नहीं. गांधी के ‘आम आदमियों’ की भीड़ से निकले नेता, जो मंच से लौट कर उसी जनता के बीच अपनी विशिष्टता की पहचान मिटा लेते हैं. भारतीय राजनीति की यह सबसे अलग, अनोखी और जमीन से जुड़ी जमात है. लगभग 15 वर्षों बाद केडी यादव जी को देखा. वैसे ही सामान्य. एक मरे दल का जिलाध्यक्ष जब घूमता है, तो लुंपेनो की फौज घूमती है. केडी यादव व ऐसे अनेक नेता बिल्कुल भीड़ के अंग. दुनिया की मशहूर इंडियन स्टैटिकल इंस्टीट्यूट से पढ़े-लिखे दीपंकर भट्टाचार्य एक सामान्य कार्यकर्त्ता की तरह, कार्यकर्त्ताओं के बीच.
अब नेता ‘अफसर’ बन गये हैं. जो फाइव स्टार में घूमते हैं, कमीशनखोरी करते हैं, वे भीड़ में उतर कर भी भीड़ से एकाकार नहीं हो पाते. शायद इसीलिए माले की सभाओं में गांधी के आम आदमी की वह भीड़ उमड़ती है, जो अब कहीं और नहीं जाती.
शव के साथ इतनी बड़ी भीड़ चले और सड़क पर आने जानेवालों-वाहनों को रत्ती भर भी परेशानी न हो! आज कोई ऐसी कल्पना नहीं कर सकता. जीटी रोड से चल कर रांची रोड पर यह भीड़ पहुंची. लोग स्वत: किनारे हो गये. गाड़ियां आती-जाती रहीं. यह 50-60 हजार की भीड़ का अघोषित-मर्यादित आचरण था. स्वत: याद आया, 6-10 लोगों की भीड़ सड़क जाम करा देती है, 8-10 घंटे. कोई बोलता नहीं. डर से यात्री भागने लगते हैं. एक यह भीड़ थी. खुद इतनी मर्यादित अनुशासित. अपने प्रिय नेता की हत्या के आक्रोश-पीड़ा में भी यह संयम-मर्यादा. समाज के गरीब, अशिक्षित और कमजोर तबकों की मर्यादा के कारण ही भारत में आज यह सामाजिक शिष्टता, मर्यादा और सार्वजनिक अनुशासन बना हुआ है. मध्य वर्ग और शासक वर्ग (नेता, अफसर, धनाढ्य) ने तो यह मर्यादा और अनुशासन तार-तार कर दिया है.
मत भूलिए. 50-60 हजार लोगों की भीड़ जिस दिन धैर्य, मर्यादा तोड़ देगी, उस दिन क्या होगा? माले का एक नेता कोई उत्तेजक बात कहता, तो झारखंड में विकट समस्या खड़ी होती. माले नेताओं का आत्म नियंत्रण-संयम उल्लेखनीय था. इस कारण भी याद रहेगी यह भीड़.