-हरिवंश-
वह धर्म को निजी मुक्ति का माध्यम नहीं मानते थे, न ही राजसत्ता पाने की सीढ़ी. वह इस संदर्भ में अनोखे दार्शनिक संत थे कि भारत के पतन को निर्मम ढंग से उजागर किया, ‘शुद्ध आर्य रक्त का दावा करनेवालों, दिन-रात भारत की महानता के गीत गानेवालों, जन्म से ही स्वयं को पूज्य बतानेवालों, भारत के उच्च वर्गों, तुम समझते हो कि तुम जीवित हो, अरे, तुम तो दस हजार साल पुरानी लोथ हो… तुम चलती-फिरती लाश हो… तुम हो गुजरे भारत के शव अस्थि पिंजर… क्यों नहीं तुम हवा में विलीन हो जाते, क्यों नहीं तुम नये भारत का जन्म होने देते.’ यहीं नहीं रूके स्वामी जी, बल्कि नये भारत का उन्होंने सपना देखा, ‘जागना है हलधर किसान के झोंपड़े से, मछुआरे की कुटिया से, नीची जातियों के बीच से… राष्ट्र को जागना है कारखानों और बाजारों से, जंगलों और पहाड़ों के निवासियों के बीच से.
इन साधारण लोगों ने हजारों बरस अत्याचार सहे हैं और इसी कारण उन्हें रक्तबीज विलक्षण जीवनी शक्ति प्राप्त हो गयी है… उन्हें आधी रोटी भी मिल जाये तो ऐसी ऊर्जा उपजेगी उनके बीच, जो सारी दुनिया को हिलाकर रख देगी. भारत के उच्च वर्गों अतीत के अस्थि पिंजरों ये जनसाधारण ही हैं आनेवाले भारत के भाग्य विधाता.’
क्योंकि स्वामी जी जैसे असाधारण लोग, कोई भी काम बिना प्रयोजन नहीं करते. यह भी नहीं पता कि वहां स्वामी जी को क्या विचार आये? पर इसके बाद, उनका जीवन, कर्म, वाणी और ध्येय, नये भारत, नये मनुष्य और नयी दुनिया के लिए ही समर्पित हो गया. कर्मयोग की बात करनेवाले विवेकानंद ने ही भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक नवजागरण की बात की. आज कथित आधुनिकता, प्रगति और भौतिक उपलब्धि के बाद भी भारत इतना उदास, बेचैन और साबूत क्यों नहीं है? क्या विवेकानंद के संदर्भ में नयी पीढ़ी आज इस चुनौती को समझेगी?