एलइडी लाइट्स का इस्तेमाल दुनियाभर में तेजी से बढ़ रहा है. इसे आप दीवाली के मौके पर सजावटी बल्बों में एलइडी लाइट्स के बढ़ते प्रचलन में देख सकते हैं. अन्य बल्बों से ज्यादा जीवनकाल होने के साथ-साथ एलइडी लाइट्स बिजली की खपत भी कम करती है, लेकिन इसके बारे में अब भी बहुत कम लोगों को जानकारी है.
एलइडी लाइट्स के महत्व, गुणवत्ता और रेटिंग सहित इससे संबंधित जरूरी पहलुओं के बारे में बता रहा है आज का नॉलेज…
दिल्ली : कम ऊर्जा खपत में ज्यादा रोशनी के साथ-साथ ज्यादा टिकाऊ होने के कारण एलइडी बल्ब की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. दीवाली के मौके पर तो एलइडी लाइट्स का धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा है. पारंपरिक रूप से जलाये जानेवाले दीपों की जगह अब सजावटी बल्बों ने ले ली है और इनमें एलइडी लाइट्स सबसे ज्यादा प्रचलित हो रहे है. दरअसल, इस पर खर्च कम आता है और इसकी लाइटिंग ज्यादा चमकदार होने के साथ बिजली की खपत भी कम होती है. इस दीवाली पर तो एलइडी लाइट्स से घरों को सजाने के लिए कई कंपनियां ऑफर भी दे रही हैं.
पारंपरिक बल्बों के मुकाबले यह यूनी-डायरेक्शनल है यानी किसी खास दिशा में ज्यादा प्रकाश फैलाने में सक्षम है. इस खासियत के कारण दीवाली समेत अन्य विशेष अवसरों पर सजावट के कार्यों में इसका ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है. हालांकि, एलइडी के चमकने की क्षमता कई कारकों पर निर्भर करती है. एलइडी की चमक इस बात पर निर्भर करती है कि उस पर किस मेटेरियल को किस हद तक लपेटा गया है. ज्यादा चमक के साथ बाहरी नुकसान से बचाने के लिए भी इस लाइट पर अन्य पदार्थों का आवरण लगाया जाता है.
मौजूदा दौर में अनेक कंपनियां एलइडी लाइट्स का निर्माण करती है, जिससे ग्राहक उसकी गुणवत्ता के संदर्भ में कन्फ्यूज हो जाते हैं. विभिन्न क्वालिटी स्टैंडर्ड या सर्टिफिकेशन के आधार पर ‘बिजली बचाओ’ नामक एक गैर-मुनाफाकारी संस्था ने इस संबंध में एक रिपोर्ट बनायी है. इस रिपोर्ट में ग्राहकों को एलइडी बल्ब खरीदने से पहले इन चीजों को समझने की सलाह दी गयी है.
आइपी रेटिंग (आइपी कोड)
इलेक्ट्रिकल अप्लायंसेज में भीतरी कंपोनेंट्स को बाहरी वातावरण में मौजूद प्रतिरोधों से बचाने की जरूरत होती है. चूंकि विभिन्न निर्माता कंपनियां भीतरी कंपोनेंट्स बनाने में विविध प्रकार के मैटेरियल का इस्तेमाल करती हैं, इसलिए यह निर्धारित कर पाना मुश्किल होता है कि इनमें से कौन सा बेहतर है. इस समस्या को समझते हुए इंटरनेशनल इलेक्ट्रो-टेक्निकल कमीशन (आइइसी) ने एक रेटिंग जारी की है, जिसमें स्टैंडराइजेशन को रेखांकित किया गया है. इसी रेटिंग या मार्किंग को आइपी कोड या आइपी रेटिंग कहा जाता है.
रेटिंग से जानें एलइडी की गुणवत्ता
आइपी कोड के अंक में दो डिजिट होते हैं. इसमें पहला डिजिट बल्ब में मौजूद ठोस पदार्थों की सुरक्षा का स्तर दर्शाता है, जबकि दूसरा डिजिट द्रव पदार्थों की सुरक्षा का स्तर दर्शाता है. पहले डिजिट की रेंज का वैल्यू शून्य से 6 तक और दूसरे डिजिट की रेंज का वैल्यू 0 से 9 तक होता है. उदाहरण के लिए, यदि किसी एलइडी बल्ब की रेटिंग 65 है, तो इसका मतलब नंबर 6 बताता है कि बल्ब ‘डस्ट टाइट’ है और दूसरा डिजिट 5 बताता है कि बल्ब ‘वाटर प्रूफ’ है.
रेटिंग में दर्शाया गया डिजिट जितना ज्यादा होगा, बल्ब की सुरक्षा का स्तर उतना ही अधिक होगा. उदाहरण के तौर पर यदि किसी बल्ब की आइपी रेटिंग 67 है, तो वह 55 रेटिंग वाले बल्ब से बेहतर होगा. कुल मिलाकर आइपी रेटिंग के माध्यम से उपभोक्ता बल्ब की गुणवत्ता को जान सकते हैं. इस रिपोर्ट के मुताबिक, मोबाइल निर्माण करनेवाली कई कंपनियां भी अब इस रेटिंग का इस्तेमाल करती हैं, ताकि ग्राहक मोबाइल की गुणवत्ता को समझ सकें.
क्यों महत्वपूर्ण है आइपी रेटिंग
जब आप घर के बाहरी हिस्से में चमकनेवाली एलइडी लाइट्स लगाते हैं (जो खुले में लगा होता है), तो उसे बारिश व डस्ट समेत अनेक बाहरी कठिन परिस्थितियों का सामना करना होता है.
ऐसे में बल्ब की चमक प्रभावित होती है. इसलिए बाहर में लगाये जानेवाले लाइट्स के संदर्भ में आइपी रेटिंग ज्यादा महत्वपूर्ण है. आजकल स्ट्रीट लाइट, पार्किंग लाइट, गार्डन लाइट व पूल लाइट आदि में भी एलइडी का इस्तेमाल होता है, जिस कारण इस रेटिंग का महत्व बढ़ गया है.
इतना ही नहीं, यदि आप बाथरूम में लगाने के लिए एलइडी लाइट खरीद रहे हैं, तब भी आपको अच्छी आइपी रेटिंग की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि कम रेटिंग वाली लाइट से आपके बाथरूम में ह्यूमिडिटी का स्तर बढ़ सकता है.
डस्ट से चमक पर असर
बाहर में लगे हुए एलइडी बल्ब के आसपास डस्ट जमा होने की दशा में भी उसकी चमक प्रभावित होती है.
यदि आप चाहते हैं कि बल्ब के आसपास डस्ट जमा होने पर भी उसकी चमक कम न हो, तो आप जो बल्ब खरीदें, उसकी आइपी रेटिंग का पहला डिजिट कम-से-कम 6 जरूर होना चाहिए. ऐसा होने से डस्ट के बावजूद आपके बल्ब की चमक बरकरार रहेगी. यदि आप ह्यूमिडिटी के लिहाज से अच्छा बल्ब लेना चाहते हैं, तो आपको ध्यान रखना होगा कि बल्ब की आइपी रेटिंग का दूसरा डिजिट 0 अंक से ज्यादा हो. कुल मिला कर रेटिंग जितनी ज्यादा होगी, उसकी सुरक्षा का स्तर उतना ही ज्यादा होगा.
हीट सिंक
एलइडी बल्ब कितना टिकाऊ होगा यानी इसका जीवनकाल कितना ज्यादा होगा, इसके निर्धारण में एलइडी लाइट के हीट सिंक की भी भूमिका होती है. दरअसल, हीट सिंक को एलइडी लाइट के पिछले हिस्से में लगाया जाता है.
आप सोच सकते हैं कि एलइडी के सही तरीके से काम करने के लिए उसके पिछले हिस्से का क्या योगदान हो सकता है? जबकि तथ्य यह है कि एलइडी के जीवनकाल के निर्धारण में उसके पिछले हिस्से में लगाये गये हीट सिंक की महत्ता बहुत ज्यादा है और यह लाइट की जीवनअवधि को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है.
इलेक्ट्रिकल पावर वेस्टेज
जब किसी एलइडी लाइट में इलेक्ट्रिसिटी प्रवाहित की जाती है, तो कुछ इलेक्ट्रिकल एनर्जी हीट एनर्जी में तब्दील हो जाती है और ज्यादातर लाइट एनर्जी में परिवर्तित होती है.
लेकिन यदि बल्ब को खास तौर पर चमक बिखेरने के मकसद से डिजाइन किया गया हो, तो उसमें से महज 10 फीसदी इलेक्ट्रिकल एनर्जी ही लाइट एनर्जी में तब्दील होती है और ज्यादातर हीट में परिवर्तित हो जाती है. इससे न केवल इलेक्ट्रिसिटी बरबाद होती है, बल्कि उत्सर्जित होनेवाली हीट से एलइडी लाइट की क्षमता घटती जाती है. नतीजन, एलइडी लाइट की चमक बिखेरने की क्षमता कम होती जाती है.
कम ऊर्जा खपत में ज्यादा रोशनी
इसकी कार्यप्रणाली को जानने से पहले हम यह जानेंगे कि लाइट एमिटिंग डायोड के मुकाबले पुराने किस्म के अत्यधिक चमकनेवाले बल्ब कैसे काम करते हैं. अत्यधिक चमकनेवाले बल्ब में विद्युत धारा का प्रवाह होने पर उसके भीतर का फिलामेंट जलने लगता है, जिससे हमें वह बल्ब प्रकाशित होते हुए दिखाई देता है.
जैसे-जैसे बल्ब का फिलामेंट जलता है, वैसे-वैसे रोशनी फैलती है. हालांकि, इस बल्ब में रोशनी पैदा करने की प्रक्रिया में तकरीबन 95 फीसदी ऊर्जा की खपत केवल उसमें गरमी पैदा करने में ही खर्च हो जाती है और रोशनी फैलाने के लिए महज पांच फीसदी ऊर्जा ही इस्तेमाल में आ पाती है.
इस कारण अधिकांश बिजली का नुकसान होता है. एलइडी अब लाइटिंग टेक्नोलॉजी के नये परिवार का हिस्सा है, जो एक अच्छी तरह से डिजाइन किया गया बेहद उपयोगी उत्पाद है. साथ ही इसकी ऊर्जा से ज्यादा गरमी नहीं पैदा होती, जो इसकी एक अन्य खासियत है. एक लाइट बल्ब के मुकाबले एलइडी लैंप से कई गुना ज्यादा रोशनी हासिल की जा सकती है. एलइडी में कोई फिलामेंट नहीं होता, बल्कि आम तौर पर एल्युमिनियम- गैलियम- आर्सेनिक जैसे तत्वों के सेमीकंडक्टर में इलेक्ट्रॉन्स की हलचल होने पर डायोड के भीतर से इसमें चमक पैदा होती है.
क्या है एलइडी टेक्नोलॉजी
एलइडी यानी लाइट एमिटिंग डाओड एक सेमीकंडक्टर डायोड (ऊर्जा स्रोत) है, जो वोल्टेज प्रवाहित करने पर चमकता है. इसी चमकने से रोशनी पैदा होती है. अनेक इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरणों समेत नये डिजाइन की लाइटों और डिजिटल टेलीविजन मॉनीटरों में इसका इस्तेमाल किया जाता है.
दरअसल, इसमें मौजूद लेड पर जब वोल्टेज का प्रवाह होता है, तो इसके इलेक्ट्रॉन छिद्रों के भीतर के इलेक्ट्रॉन सक्रिय हो उठते हैं और फोटोन के रूप में ऊर्जा फैलाते हैं. इस प्रभाव को इलेक्ट्रोल्युमिनेसेंस कहा जाता है और इस लाइट का कलर (फोटोन ऊर्जा के मुताबिक) सेमीकंडक्टर के एनर्जी बैंड गैप द्वारा निर्धारित किया जाता है. सामान्य तौर पर एक एलइडी एक छोटे क्षेत्र में कार्य करता है और ऑप्टिल घटकों के रूप में एकीकृत होता है.
सिलिकॉन कारबाइड से की गयी खोज
एलइडी टेक्नोलॉजी की खोज जिस प्राकृतिक परिघटना की बाद की गयी, उसे इलेक्ट्रोल्युनिनेसेंस कहा जाता है. एक ब्रिटिश रेडियो शोधकर्ता और मारकोनी के असिस्टेंट हेनरी जोसेफ राउंड ने वर्ष 1907 में सिलिकॉन कारबाइड पर एक परीक्षण के दौरान इसकी खोज की थी.
उसके बाद निरंतर इस पर शोधकार्य जारी रहा और एक रूसी शोधकर्ता ने इस डायोड को रेडियो सेट में इस्तेमाल किया. वर्ष 1961 में रॉबर्ट बेयर्ड और गैरी पिटमैन ने टेक्सास उपकरणों के लिए इंफ्रारेड एलइडी का आविष्कार किया और उसका पेटेंट करवाया. हालांकि, बतौर इंफ्रारेड यह विजिबल लाइट स्पेक्ट्रम से आगे की चीज थी.
मानवीय आंखों से इंफ्रारेड लाइट को नहीं देखा जा सकता है. लेकिन विडंबनात्मक रूप से बेयर्ड और पिटमैन इस मामले में कुछ हद तक इसलिए कामयाब हो पाये, क्योंकि जब उन्होंने लाइट एमिटिंग डायोड की खोज की उस दौरान वे लेजर डायोड की खोज में जुटे थे.
इंडिकेटर से शुरुआत
जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी के कंसल्टिंग इंजीनियर निक होलोनेक ने वर्ष 1962 में पहली बार विजिबल लाइट एलइडी का आविष्कार किया था. वह लाल एलइडी था और होलोनेक ने डायोड के सब्स्ट्रेट के तौर पर गैलियम आर्सेनाइड फॉसफाइड का इस्तेमाल किया था. इस तकनीक के विकास में होलोनेक के योगदान को देखते हुए उन्हें ‘लाइट एमिटिंग डायोड का जनक’ कहा जाता है.
वर्ष 1972 में मोनसेंटो कंपनी से जुड़े इलेक्ट्रिकल इंजीनियर एम जॉर्ज क्रेफोर्ड ने डायोड में गैलियम आर्सेनाइड फॉसफाइड का इस्तेमाल करते हुए पहली बार पीले रंग के एलइडी का आविष्कार किया. बाद में उन्होंने लाल रंग के एलइडी का भी आविष्कार किया, जो होलोनेक द्वारा इजाद की गयी एलइडी के मुकाबले 10 गुना ज्यादा चमक बिखेरने में सक्षम था. यहां एक तथ्य उल्लेखनीय है कि मोनसेंटो कंपनी ने ही इसे पहली बार आम लोगों को मुहैया कराया था.
1968 में ही मोनसेंटो ने इंडिकेटर के निर्माण में एलइडी का उपयोग शुरू कर दिया था. लेकिन इसे लोकप्रियता 1970 के बाद मिली, जब फेयरचाइल्ड ऑप्टे इलेक्ट्रॉनिक्स ने कम लागत पर इसका निर्माण शुरू किया. 1976 में थॉमस पी पियरसेल ने अत्यधिक क्षमता वाले एलइडी का आविष्कार किया, जिसका इस्तेमाल फाइबर ऑप्टिक्स और फाइबर टेलीकम्युनिकेशन में किया गया.
1994 में शूजी नाकामुरा ने गैलियम नाइट्राइड के इस्तेमाल से पहली बार नीले (ब्लू) रंग के एलइडी का आविष्कार किया. उसके बाद से देश-दुनिया में निरंतर इसका इस्तेमाल बढ़ता ही जा रहा है.