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अनूठे कॉन्सेप्ट को सम्मान : गूगल साइंस फेयर 2015 के विजेता छात्र

गूगल साइंस फेयर एक ऑनलाइन साइंस कॉम्पीटिशन है, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से के 13 से 18 वर्ष की उम्र के बच्चे भाग ले सकते हैं. गूगल, लेगो, वर्जिन गैलेक्टिक, नेशनल जियोग्राफिक और साइंटिफिक अमेरिकन जैसी कंपनियां व संगठन इसके प्रायोजक हैं. इसमें हिस्सा लेनेवाले छात्रों के पास इंटरनेट कनेक्शन और फ्री गूगल एकाउंट […]

गूगल साइंस फेयर एक ऑनलाइन साइंस कॉम्पीटिशन है, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से के 13 से 18 वर्ष की उम्र के बच्चे भाग ले सकते हैं. गूगल, लेगो, वर्जिन गैलेक्टिक, नेशनल जियोग्राफिक और साइंटिफिक अमेरिकन जैसी कंपनियां व संगठन इसके प्रायोजक हैं. इसमें हिस्सा लेनेवाले छात्रों के पास इंटरनेट कनेक्शन और फ्री गूगल एकाउंट होना अनिवार्य है.
आज के नॉलेज में जानते हैं इस ऑनलाइन साइंस कॉम्पीटिशन की प्रक्रिया, इस वर्ष इस प्रतियोगिता में विजेता घोषित किये गये कुछ छात्रों और उनके द्वारा विकसित सिस्टम के बारे में…
भुट्टों से साफ पेयजल
मकई के भुट्टों से आम तौर पर कई तरह के व्यंजन बनाये जाते हैं, लेकिन आपको यह जान कर अचरज हो सकता है कि इससे पानी को साफ भी किया जा सकता है. आज दुनियाभर में पानी को साफ करके पीने लायक उपयोगी बनाने के लिए तरह-तरह की तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके लिए सस्ती तकनीकों पर निरंतर शोध जारी है. ओड़िशा की छात्रा ललिता प्रसिदा श्रीपदा ने भुट्टे से पानी साफ करने की तकनीक इजाद की है.
ललिता प्रसिदा श्रीपदा को ‘गूगल सांइस फेयर’ में कम्युनिटी इंपेक्ट श्रेणी के तहत अवॉर्ड दिया गया है. श्रीपदा ने ‘क्लिनिंग वेस्ट वॉटर विथ कॉर्न कॉब्स’ के टाइटल से प्रोजेक्ट बनाया था. इस प्रोजेक्ट के तहत भुट्टे की मदद से घरेलू और औद्योगिक तौर पर दूषित जल को साफ करने के बारे में बताया गया है. ओड़िशा के कोरापुट जिले के दिल्ली पब्लिक स्कूल में पढ़नेवाली ललिता पूर्वोत्तर भारत के अनेक इलाकों में घूम चुकी हैं. वे अक्सर आसपास के गांवों में जाकर लोगों के जीवनयापन के तरीकों को गौर से देखा करती हैं.
प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हुए गांव के लोग अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधान किस तरह निकालते हैं, इन सबको श्रीपदा ने काफी नजदीक से देखा और समझा. यहीं से उन्हें मक्के का यह कॉन्सेप्ट दिमाग में आया. ललिता को उसके प्रोजेक्ट के लिए 6.6 लाख रुपये की रकम पुरस्कार के तौर पर मिली है. बताया गया है कि गूगल अगले एक साल तक उसके प्रोजेक्ट पर काम करने में मदद देगा.
प्रयोग का डिजाइन
प्रत्येक बोतल में विभिन्न आकारों वाले मकई के सूखे भुट्टों को भर दिया जाता है. ऊपर वाली बोतल में पानी डालने पर वह नीचे की ओर आता है. पानी साफ करने की यह पूरी प्रक्रिया इस प्रकार है :
बोतल 1 : मकई के सूखे भुट्टे पानी में मौजूद कणों को सोख लेते हैं. इन कणों को आप नंगी आंखों से भी देख सकते हैं.
बोतल 2 : इसमें मकई के सूखे भुट्टे को एक इंच के आकार में काट कर डाला जाता है, जो छोटे कणों को सोख लेता है.
बोतल 3 : इस में मकई के भुट्टे को पीस कर डाला जाता है. ये पानी में मौजूद गैसोलिन और तेल जैसे गैर-जरूरी तत्वों को सोख लेते हैं.
बोतल 4 : इस बोतल में मकई के भुट्टे की जली राख डाली जाती है, जो पानी में मौजूद कलर डाइ व लेड जैसे घातक तत्वों को सोख लेती है.
बोतल 5 : सबसे नीचे वाली बोतल में साफ बालू भरा जाता है, जो अब तक शेष बचे ऑर्गेनिक व इनोर्गेनिक टॉक्सिक केमिकल्स को सोख लेता है.
इसके परीक्षण के दौरान पाया गया कि तालाब के पानी में मौजूद डिटरजेंट्स, ऑयल, कलर डाइ समेत अनेक हानिकारक कणों को 70 से 80 फीसदी तक साफ किया जा सकता है.
कम खर्च में पानी साफ
भारतीय मूल की छात्रा दीपिका कुरुप अमेरिका के एक स्कूल में पढ़ती हैं. तीन वर्ष पहले गर्मियों में एक बार वे भारत यात्रा पर आयीं और यहां उन्होंने पानी की समस्या को नजदीकी से देखा.
दूषित पानी से होनेवाली बीमारियों के बारे में जान कर उन्होंने ठान लिया कि पानी साफ करने की सस्ती तकनीक को वे विकसित करेंगी. इसके लिए उन्होंने फोटोकेटलिस्ट का इस्तेमाल किया, जो एक ऐसा पदार्थ है, जो सूरज की रोशनी से पानी की गंदगी को दूर करता है. क्लोरिन विधि से पानी साफ करने के मुकाबले यह विधि बहुत सस्ती है. उनके द्वारा विकसित किये गये सिस्टम से महज 15 मिनट के भीतर पानी में मौजूद कैलिफॉर्म बैक्टिरिया को 98 फीसदी तक कम किया जा सकता है.
इस सिस्टम के तहत एक साफ प्लास्टिक की बोतल में दूषित पानी भर कर उसे आठ घंटों तक धूप में छोड़ दिया जाता है. सूर्य से निकलनेवाली अल्ट्रावायलेट रेडिएशन उसमें मौजूद हानिकारकतत्वों को खत्म कर देती है. हालांकि, यह प्रक्रिया बहुत धीमी है, लेकिन इसकी खासियत है कि इसमें खर्चा बहुत कम है.
ब्रह्मांड के रहस्यों की समझ विकसित
प्रणव शिवकुमार अमेरिका के इलियोनिस में मैथमेटिक्स एंड साइंस एकेडमी के छात्र हैं. बचपन से ही प्रणव की दिलचस्पी एस्ट्रोनॉमी के प्रति ज्यादा थी. महज छह वर्ष की उम्र में एमआइटी के एक प्रोफेसर के लैक्चर का उन्होंने वीडियो देखा और उसी समय से भौतिकी से उनका लगाव बढ़ गया. बड़े होकर स्कूल में उन्होंने अपने रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए डार्क मैटर की प्रकृति को समझने के लिए चुना. एस्ट्रोफिजिसिस्ट सुब्रमण्यम चंद्रशेखर से प्रभावित प्रणव ब्रह्मांड के गूढ़ रहस्यों को समझना चाहते हैं.
इनके शोध का दायरा ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में कायम रहस्यों को उजागर करने से है. इसके लिए उन्होंने क्वेजर लेंसिंग सिस्टम का इस्तेमाल किया है. प्रणव द्वारा किये गये शोध के नतीजों से भविष्य में अनेक शाश्वत सवालों को हल किया जा सकेगा, जैसे- हम कहां से आये हैं, हम कौन हैं और हम कहां जा रहे हैं. माना जा रहा है कि सामाजिक क्षेत्र में उत्थान के लिए इसके नतीजे सकारात्मक साबित हो सकते हैं.
क्वांटम डॉट्स से बीमारी की समझ
विज्ञान में रुचि रखनेवाले नित्यानंदम इंगलैंड के सरे इलाके में रहते हैं. बचपन में किसी शारीरिक परेशानी के कारण जब दोबारा इनका ऑपरेशन हुआ, उसके बाद विज्ञान में इनकी दिलचस्पी और ज्यादा बढ़ गयी. शरीर में खास दवाएं किस तरह काम करती हैं और उनका प्रभाव पैदा होता है, इसे समझने की इनकी उत्सुकता बढ़ती गयी. भविष्य में ये मेडिकल रिसर्चर बनना चाहते हैं, ताकि इनके नवीन आविष्कारों से लोगों को ज्यादा से ज्यादा मदद मिल सके.
अपने प्रयोग के तौर पर इन्होंने अल्जाइमर की बीमारी को चुना, जो एक न्यूरोजेनरेटिव डिजोर्डर की वजह से होता है. समय रहते इस बीमारी की पहचान होने पर इसका निदान मुमकिन है, लेकिन मौजूदा इलाज की तकनीकों में इसे प्रभावी तौर पर तब समझा जाता है, जब यह आखिरी चरण में पहुंच जाती है. नित्यानंदम ने खास क्वांटम डॉट्स को विकसित किया है, जिसकी मदद से इस बीमारी को आरंभिक स्तर पर समझा जा सकता है.
इनोवेटिव वैक्सिन ट्रांसपोर्टेशन
बचपन में टीका लगाने के लिए गणेशन के दादा उन्हें करीब 10 मील दूर हेल्थ सेंटर ले जाते थे. स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्होंने समझा कि वैक्सिन को आखिरी स्थान तक पूरी तरह से रेफ्रिजरेटेड किट में ले जाना होता है.
ग्रामीण इलाकों में इसकी बुनियादी व्यवस्था नहीं होने के कारण कई बार वैक्सिन की गुणवत्ता कम हो जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2013 में सटीक और प्रभावी वैक्सिन के अभाव में दुनियाभर में 15 लाख से ज्यादा बच्चों को जान गंवानी पड़ी थी. गणेशन ने वैक्सिन को आखिरी सेंटर तक पहुंचाने के लिए ‘नो आइस, नो इलेक्ट्रिक’ वाला एक इनोवेटिव डिजाइन डेवलप किया. इस सिस्टम का इस्तेमाल करते हुए कोई भी अप्रशिक्षित व्यक्ति वैक्सिन की गुणवत्ता को कायम रखते हुए (दो से आठ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर) आसानी से उसे आखिरी सेंटर तक पहुंचा सकता है.
इनोवेटिव वैक्सिन ट्रांसपोर्टेशन का डिजाइन तैयार करने के लिए हाल ही में उन्हें जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी रिसर्च अवॉर्ड भी दिया जा चुका है. रिचर्ड बैंसन को ये अपना आदर्श मानते हैं, जिनका मानना है कि प्रत्येक समस्या में एक अवसर छिपा होता है.
कंप्यूटर से आगे की दुनिया
सिंगापुर के छात्र गिरीश कुमार जब महज छह वर्ष के थे, तभी उन्होंने एक फिल्म देखी थी, जिसमें कंप्यूटर को महान नायक की तरह पेश किया गया था. हालांकि, जब स्वयं उन्होंने कंप्यूटर को जाना तो उन्हें यह समझ कर निराशा हुई कि वास्तविक में कंप्यूटर उतना क्षमतावान नहीं है, जितना फिल्म में दिखाया गया था. यहीं से उनकी सोच में बदलाव आया और महज आठ साल की उम्र में उन्होंने स्कूल की रोबोटिक्स टीम में ज्वाइन किया.
नेशनल जूनियर रोबोटिक्स कंपीटिशन में प्रत्येक वर्ष पुरस्कार हासिल करने के बाद उनका मनोबल बढ़ता गया. इसके बाद स्टैनफोर्ड प्रोफेसर एंड्रयू एनजी और सेबेस्टियन थ्रन से उन्होंने मशीन लिनिंग का ऑनलाइन कोर्स शुरू किया. एमआइटी मीडिया लैब और सिंगापुर की ए-स्टार जैसी संस्थाओं के साथ उन्होंने मोबाइल एप्स से लेकर ऑटोमेटिक इंडोर मैपिंग प्रोग्राम जैसे प्रोजेक्ट्स पर काम किया. अंतरराष्ट्रीय स्तर की शोध संस्थाओं ने उनके कार्यों की सराहना की. हाल ही में उन्होंने सिंगापुर नेशनल साइंस टेलेंट सर्च का खिताब भी जीता है.
एलेन मस्क और लैरी पेज जैसे तकनीक के महारथियों से इन्हें प्रेरणा मिलती है. शिक्षा के प्रसार के मकसद से ये ‘ऑटोमेटिक क्वेश्चन जेनरेशन’ पर ये कार्य कर रहे हैं, जो मूल रूप से वाक्यों को प्रश्नों में परिवर्तित करने से जुड़ा है. इसके लिए इन्होंने साइंटिफिक नजरिया अपनाया है.
इबोला का सस्ता इलाज
कनेक्टिकट में रहनेवाली ओलिविया की दिलचस्पी इबोला वायरस जैसी घातक बीमारियों की समय रहते पहचान करने से जुड़ी थी. अफ्रीका समेत दुनिया के अन्य देशों में वर्ष 2014 में इबोला, लाइम डिजीज, येलो फीवर, डेंगू फीवर और कैंसर जैसी बीमारियों के बढ़ते कहर को देखते हुए ओलिविया ने इस पर शोध शुरू किया. कई देशों में इन बीमारियों से होनेवाली मौत के चलते बच्चों के अनाथ हो जाने की खबरों ने ओलिविया को काफी विचलित किया. उन्होंने पाया कि इबोला से पीड़ित 90 फीसदी से ज्यादा लोगों की मौत इसलिए हो जाती है, ताकि समय रहते उसकी पहचान नहीं हो पाती और न ही उन्हें मेडिकल सुविधाएं हासिल हो पाती हैं. इबोला के पहचान की मौजूदा प्रणाली बेहद महंगी है और इसमें समय ज्यादा लगने के साथ अनेक साधनों व निर्बाध रेफ्रिजरेशन की जरूरत होती है. कुल मिला कर बुनियादी सुविधाओं के अभाव में यह बीमारी ज्यादा घातक साबित हो रही है. ओलिविया ने ऐसी प्रणाली का इजाद किया है, जिसमें इस बीमारी की जांच के लिए शरीर से हासिल किये गये ‘सैंपल’ को बिना रेफ्रिजरेशन के एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजा जा सकता है. सिल्क फाइब्रोन से बनाये गये इस खास किट के माध्यम से इस सैंपल को जांच के लिए सामान्य तापमान पर ही भेजा जा सकता है.
इबोला जांच की मौजूदा प्रणाली में एंजाइम-लिंक्ड इम्यूनोसोर्बेंट एसे (एलीजा) डिटेक्शन किट का इस्तेमाल किया जाता है. इसके प्रत्येक किट की लागत करीब एक हजार डॉलर आती है. साथ ही इसके लिए प्रशिक्षित मेडिकल प्रोफेशनल की जरूरत भी होती है और जांच के लिए सैंपल को 12 घंटों के भीतर लैबोरेटरी तक पहुंचाना जरूरी होता है. ओलिविया द्वारा विकसित ‘इबोला एसे कार्ड’ के तहत सैंपल को स्थिर और रूम टेंपरेचर पर अन्यत्र भेजा जा सकता है.
गूगल साइंस फेयर के संबंध में खास जानकारी
– अगला गूगल साइंस फेयर कब आयोजित हो रहा है?
आने वाले कुछ माह में इसकी घोषणा कर दी जायेगी. यदि आप चाहें तो गूगल साइंस फेयर डॉट कॉम के संबंधित लिंक पर जाकर अभी साइन-अप कर सकते हैं, ताकि आपको समय रहते वर्ष 2016 की प्रतियोगिता के बारे में सूचना दी जा सके. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2015 की प्रतियोगिता के लिए प्रविष्टियां सबमिट की जा चुकी हैं और अब यदि आप इसमें शामिल होना चाहते हैं, तो आपको 2016 के लिए अभी से ही तैयारी शुरू करना होगा.
– समय अभी शेष है, तो इस बीच आपको क्या करना चाहिए?
किसी आइडिया पर सोचने के लिए आपके पास कुछ माह बचे हैं. महान आविष्कार रातोंरात नहीं होते. आप चाहें तो संबंधित वेबसाइट से भी इसके लिए मदद ले सकते हैं.
-आवेदन शुरू होने पर अपने प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए कितना समय मिल पायेगा?
प्रोजेक्ट सबमिट करने के लिए आपके पास महज कुछ माह का समय है. इसलिए आप अभी से ही अनूठे किस्म के आइडिया के बारे में सोचना शुरू कर दें.
-पिछले वर्षों के दौरान फाइनलिस्ट रह चुके लोगों द्वारा बनाये गये प्रोजेक्ट्स को उदाहरण के तौर पर समझने के लिए कहां से हासिल किया जा सकता है?
गूगल की वेबसाइट पर संबंिधत िलंक पर ये सभी मौजूद है़
– प्राप्त प्रविष्टियों का मूल्यांकन किस तरह से किया जाता है?
प्रविष्टियों के मूल्यांकन के लिए एक निर्धारित प्रक्रिया है, जिसके तहत इन सभी का मूल्यांकन किया जाता है. इसमें कई चीजों पर ध्यान दिया जाता है. कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं
– प्रेरणात्मक प्रविष्टि या आइडिया.
– आइडिया में क्षमता हो ताकि उसका असर दिखे.
– साइंस और इंजीनियरिंग के प्रति उत्सुकता.
– मैथॉड की श्रेष्ठता.
– संवाद कुशलता.
खास पुरस्कारों के लिए मूल्यांकन
– कम्युनिटी इंपेक्ट अवॉर्ड
कम्युनिटी इंपेक्ट अवॉर्ड साइंटिफिक अमेरिकन द्वारा प्रायोजित है. साइंटिफिक अमेरिकन ऐसे प्रोजेक्ट को सम्मानित करना है, जो पर्यावरणीय, स्वास्थ्य या संसाधन जैसी समस्याओं के बारे में व्यावहारिक तरीके से लोगों को रूबरू कराती है. इसकी प्रविष्टियां इनोवेटिव होने के साथ त्वरित कार्रवाई योग्य होनी चाहिए. साथ ही इसकी क्षमता ऐसी होनी चाहिए, जिसका अन्य समुदायों में भी विस्तार हो सके.
-गूगल टेक्नोलॉजिस्ट अवॉर्ड
यह पुरस्कार उन प्रोजेक्ट को दिया जाता है, जिसमें कंप्यूटर साइंस और गणित के क्षेत्र में अनूठे किस्म के इनोवेटिव कार्यों के माध्यम से बदलाव लाने की क्षमता होती है.
-द वर्जिन गैलेक्टिक पायनियर अवॉर्ड
फिजिक्स के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रोजेक्ट तैयार करनेवाले प्रतिभागी को वर्जिन गैलेक्टिक पायनियर अवॉर्ड से सम्मानित किया जाता है.
-द नेशनल जियोग्राफिक एक्सप्लोरर अवॉर्ड
नेचुरल साइंस के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रोजेक्ट तैयार करनेवाले प्रतिभागी को नेशनल जियोग्राफिक एक्सप्लोरर अवॉर्ड से सम्मानित किया जाता है.
-द लीगो एजुकेशन बिल्डर अवॉर्ड
इंजीनियरिंग की बड़ी चुनौतियों का इनोवेटिव तरीके से समाधान निकालने वाले छात्रों को लीगो एजुकेशन बिल्डर अवॉर्ड से सम्मानित किया जाता है.
-द साइंटिफिक अमेरिकन इनोवेटर अवॉर्ड
प्योर साइंस के क्षेत्र में इनोवेटिव प्रोजेक्ट बनानेवाले छात्र को साइंटिफिक अमेरिकन इनोवेटर अवॉर्ड दिया जाता है.
-द इन्क्यूबेटर अवॉर्ड
साइंस या इंजीनियरिंग विधा में असाधारण प्रोजेक्ट बनानेवाले 13 से 15 वर्ष की उम्र के छात्रों को यह पुरस्कार दिया जाता है.

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