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।। दर्शक।।पटना में 27.10.2013 को नरेंद्र मोदी की रैली के दो दिन बाद (29.10.2013) भी गांधी मैदान में पांच जीवित बम मिले. दो तुरंत निष्क्रिय नहीं हुए. इस तरह गांधी मैदान और पटना जंकशन पर कुल 18 बम रखे गये थे. भाजपा की इस रैली के ठीक दो दिन पहले भाकपा की बड़ी रैली पटना […]

।। दर्शक।।
पटना में 27.10.2013 को नरेंद्र मोदी की रैली के दो दिन बाद (29.10.2013) भी गांधी मैदान में पांच जीवित बम मिले. दो तुरंत निष्क्रिय नहीं हुए. इस तरह गांधी मैदान और पटना जंकशन पर कुल 18 बम रखे गये थे. भाजपा की इस रैली के ठीक दो दिन पहले भाकपा की बड़ी रैली पटना में संपन्न हुई. भाजपा की रैली (27.10.2013) के चार दिनों बाद, 30.10.2013 को भाकपा माले की रैली वीरचंद पटेल पथ में हुई. चूंकि गांधी मैदान में अब तक सभी बम निष्क्रिय नहीं हुए हैं, इसलिए माले की रैली की जगह बदली गयी. भाजपा की रैली के ठीक एक दिन पहले राष्ट्रपति पटना आकर वापस गये. यानी सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था रही होगी. फिर भी पटना में अत्यंत संवेदनशील और सार्वजनिक जगहों पर 18 बम लगा दिये गये, जो अब तक मिले या फटे. आशंका है कि दो और बम हैं. यानी कुल 20 बम लगाये गये हैं. यह पूरा प्रकरण आईना है कि हमारा गवर्नेस किस तरह कमजोर हो रहा है?

बिहार में नरेंद्र मोदी की रैली में हुए विस्फोट को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शाम छह बजे (27.10.2013) संवाददाता सम्मेलन किया, उसका उल्लेख होना चाहिए. नीतीश कुमार वैसे भी गंभीर व मर्यादित नेता हैं. उनमें गरिमा भी है और एक स्टेट्समैन की झलक भी. उन्होंने नपी-तुली बातें की. एक शब्द भी फिजूल नहीं. पार्टी से ऊपर उठ कर एक मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने विस्फोट के बारे में तथ्य लोगों के सामने रखे. यह आग बुझाने का प्रयास था.

पर पूरी राजनीति में जलन, द्वेष, घृणा, नफरत इस तरह बैठ गयी है कि कोई एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं देखना चाहता. तब यह मुल्क या देश चलेगा कैसे? दरअसल, भारत की राजनीति ही नफरत के दौर में है, जहां देश तोड़ रहे मुद्दों पर कोई बहस नहीं हो रही. भारतीय राजनीति, अधैर्य, असंयम के दौर में है. देश की एकता पर इसका गहरा असर हो रहा है, होनेवाला है और होगा. और इस महापाप में सब कसूरवार हैं.

विस्फोट होते ही कांग्रेस के नेता राशिद अल्वी का बयान आ गया कि इसमें भाजपा का हाथ हो सकता है. इसकी जांच होनी चाहिए. मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह के बयान से भी ध्वनित हुआ कि यह विस्फोट इस घटना से लाभ पानेवालों ने कराये हैं. दो दिन बाद विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद का टीवी पर बयान आया कि जब रैली में बम फट रहे थे, तो भाजपा के नेता रैली स्थगित कर घायलों को अस्पताल क्यों नहीं पहुंचा रहे थे? सत्यव्रत चतुर्वेदी, पीएल पुनिया वगैरह कांग्रेस के बड़े नेता हैं. इनके बयान भी इनके पद और वरिष्ठता के अनुकूल नहीं लगे. जवाब में भाजपा के कुछ नेता भी कांग्रेस की ही भूमिका में आ गये थे. किसी का संयमित आचरण नहीं.

नीतीश कुमार ने अपने संवाददाता सम्मेलन में भाजपा की रैली में जिस शांति की अपील की गयी थी, उसका स्वागत किया. कहा कि हमें अपने दलों के दायरे से ऊपर उठ कर फिलहाल सोचने की जरूरत है. पर उनके नीचे के नेताओं या पुलिस ने इस समझदारी का परिचय नहीं दिया. विस्फोट हुए, नेताओं के बयान आने लगे. एक-दूसरे को घेरने के लिए. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए. एक-दूसरे को दोषी ठहरा कर वोट बैंक बनाने के लिए. ऐसे प्रयासों से अगर तात्कालिक लाभ मिल भी जाये, तो देश और समाज की एकता नहीं बच सकती. विस्फोट की खबर आयी नहीं कि कांग्रेस के जाने-माने नेता बयान देने लगे कि यह आरएसएस और भाजपा का काम है. टीवी बहस में जदयू के एकाध नेता भी कूद पड़े. शाम होते-होते बीजेपी के नेता भी कहने लगे कि यह हमारे खिलाफ साजिश है. किसी में धैर्य नहीं कि वह कुछ देर रुक कर पुलिस रिपोर्ट की प्रतीक्षा करे. जांच-निष्कर्ष से जाने. निहायत इरिस्पांसिबुल (उत्तरदायित्वहीन) आचरण व बयान. राजनीति, देश की रहनुमाई करती है. अगर देश चलानेवाले नेता इस तरह अधैर्य, संकीर्णता और असंयम के शिकार होंगे, तो मुल्क चलेगा कैसे? राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हैं. निजी गरिमा, संयमित आचरण, लोकतंत्र के प्राण हैं.

बिहार पुलिस के बारे में यह समझा जा सकता है कि उन्हें ऐसी स्थितियों से निबटने का अनुभव नहीं है. कामकाज की संस्कृति में हम हिंदी इलाके के लोग वैसे भी प्रोफेशनल नहीं हैं. बिहार को, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरह ऐसी स्थितियों से निबटने का अनुभव नहीं है. पर इतना बड़ा हादसा हो, सार्वजनिक जगह पर 18-20 बम लगाये जायें और बिहार पुलिस को पता न चले? फर्ज या कल्पना करिए, एक क्षण के लिए कि ये सभी बम विस्फोट हुए होते, तो आज क्या हालात होते? वैसे भी जो मारे गये हैं, घायल हुए हैं, उनकी पीड़ा कौन बांट सकता है? उनका क्या अपराध था? क्या लोकतंत्र में भाषण सुनने की कीमत जान देना है? क्या यही बिहार पुलिस आधुनिक समाज की चुनौतियों से निपट पायेगी? अंदर की चर्चा यह है कि बिहार पुलिस ने यह भी कहा कि हमारे पास दो ही जैमर हैं. एक खराब है और दूसरा राष्ट्रपति के लिए आवंटित (डेडिकेटेड) है. यानी नरेंद्र मोदी की सभा के लिए कोई जैमर नहीं था? याद रखिए, राष्ट्रपति एक दिन पहले जा चुके थे. अंतत: एक जैमर की व्यवस्था हुई. सभा स्थल पर जो चौकसी या आरंभिक पुलिस चौकसी परेड होनी चाहिए थी, नहीं हुई. गृह मंत्रलय के एक अधिकारी ने कहा (देखें इकॉनोमिक टाइम्स – 29.10.2013) कि लाखों लोगों की उपस्थितिवाली रैलियों में फुलप्रूफ सुरक्षा व्यवस्था मुश्किल है, पर सीसीटीवी लगाना, मेटल डिटेक्टर से लोगों का गुजरना, लोगों को चेक करना, आतंकवादियों के लिए परेशानी पैदा करता है.

बिहार में ऐसा कुछ भी नहीं था. अगर बिहार में, राहुल गांधी की उसी दिन हुई दिल्ली रैली में जिस तरह दिल्ली पुलिस की व्यवस्था थी, उसका 50 फीसदी भी होता, तो यह हालात नहीं होते. इसी खबर के अनुसार, इंटेलिजेंस ब्यूरो ने गृह मंत्रालय को सूचना दी है कि सुझाव के बावजूद बिहार पुलिस ने ‘एडवांस सिक्यूरिटी लाइजेन’ (अग्रिम सुरक्षा तालमेल) नहीं किया. यह भी खबर आयी कि 23.10.2013 को ही इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) ने इस संबंध में कोई सूचना बिहार पुलिस को भेजी थी, लेकिन बिहार पुलिस का कहना है कि हमें कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिली थी. अब केंद्रीय गृह मंत्री कह रहे कि ऐसी सूचना भेजी गयी थी. कांग्रेस के नेता पीएल पुनिया (पूर्व मुख्य सचिव, उत्तर प्रदेश) ने यह सवाल उठाया कि मान भी लिया जाये कि गृह मंत्रलय या केंद्रीय इंटेलिजेंस ब्यूरो ने कोई स्पष्ट अलर्ट बिहार सरकार को नहीं दिया, लेकिन बिहार इंटेलिजेंस के लोग क्या रहे थे? 18-20 बम लगाने का काम तो अचानक नहीं हुआ होगा? इसके लिए रेकी की गयी होगी. काफी पहले से तैयारी चल रही होगी. ये सभी बम सार्वजनिक जगहों पर लगाये गये थे. साफ है कि यह काम छिप कर नहीं किया गया होगा. खुले तौर पर, सार्वजनिक जगह पर यह सब कुछ हुआ है. क्या बिहार इंटेलिजेंस या पुलिस को इस असफलता (फे ल्योर) की नैतिक जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? पूर्व मुख्य सचिव रहे कांग्रेसी नेता पुनिया के इस तर्क व सवाल में दम है.

यह संभव है कि बिहार पुलिस के पास रूटीन वे (सामान्य प्रक्रिया) में कोई सामान्य अलर्ट आया हो. ऐसी स्थिति में हिंदी इलाके की जो सार्वजनिक कार्य संस्कृति है, मानस है, उसी तौर तरीके के तहत बिहार पुलिस ने इस पर ध्यान नहीं दिया होगा. पर इतनी बड़ी घटना की नैतिक जवाबदेही तो पुलिस की है ही. स्पष्ट है कि कोई भी सरकार अपनी ओर से ऐसे मामलों में जरा भी चूक नहीं चाहेगी. चाहे कितना ही अधिक राजनीतिक अनबन हो, प्रतिस्पर्धा या निजी दुश्मनी हो. क्योंकि अंतत: बदनामी तो सरकार की ही होती है. निश्चित रूप से बिहार में जो कुछ हुआ, वह कार्य संस्कृति की खामी का परिणाम है. ऐसी घटनाओं के बाद कोई भी संवेदनशील व्यवस्था या सरकार यह चाहेगी कि वह इससे सीखे, सबक ले और ऐसी स्थिति न होने देने का संकल्प करे. नीतीश कुमार ऐसे नेताओं में हैं, जो अपनी चूक स्वीकार करते हैं और उसे ठीक करने का संकल्प भी लेते हैं. यही उनकी ताकत भी है. बिहार में जहां कानून-व्यवस्था खत्म हो गयी थी, उसे दोबारा स्थापित कर उन्होंने अपनी साख या पहचान दुनिया में बनायी. इसे ठीक करने के क्रम में वह एक -एक चीज की तफसील में गये. अपराधियों की गिरफ्तारी से लेकर अदालती कार्रवाई तक. कैसे व्यवस्था को चुस्त किया जाये, इसकी कोशिश की. तब जाकर बिहार में कानून-व्यवस्था का इकबाल स्थापित हुआ. राज्य नामक संस्था मजबूत हुई. पर इस घटना के बाद लगता है बिहार पुलिस को प्रोफेशनल बनाये जाने की दिशा में अभी बहुत कुछ होना है.

यह सच भी सार्वजनिक रूप से कहा जाना चाहिए कि 27.10.2013 की रैली में जिस संयम, धैर्य और कौशल का परिचय भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने दिया, वह सार्वजनिक रूप से प्रशंसनीय है. जहां भीड़ के सामने बम फट रहे हों, लोग मर रहे हों, फिर भी भीड़ या बिहार की जनता धैर्य के साथ डटी रही, यह अविश्वनीय और ऐतिहासिक है. इसके लिए सभा में आयी संयमित भीड़ के आचरण का उल्लेख होना चाहिए. हम सब जानते हैं कि जहां मुट्टी भर लोग भी एकत्र हो, वहां भी भीड़ का मानस ऐसा होता है कि अचानक चूहा या सांप निकल आये या गाय आ जाये, तो भगदड़ मच जाती है. स्टैंपेड होता है. लेकिन लाखों की भीड़, अनेक बमों के फटने के बावजूद संयमित बनी रही, धैर्य बना रहा, यह असाधारण संयम का नया इतिहास है. मंच पर उपस्थित भाजपा के सभी वरिष्ठ नेता जान रहे थे कि लगातार विस्फोट हो रहे हैं. भीड़ तो भुगत रही थी. सामने खून बहते देख रही थी. भाजपा नेताओं के एक वाक्य, एक शब्द से हालात बिगड़ सक ते थे, पर उन्होंने हालात को समझा. उसे संभाला. उन्माद, द्वेष और नफरत की पूंजी से ही आज देश में वोट बैंक की राजनीति हो रही है और लगभग सभी दल इसमें शरीक हैं, पर पटना की सभा में उन्मादी बनने की पृष्ठभूमि होते हुए भी हालात को भाजपा नेताओं ने संयम, साहस से संभाल लिया. यह उम्मीद पैदा करनेवाली बात है. इसी तरह सभी-नेता, दल बदलें. कम से कम बड़े स्तर पर निजी कटुता-द्वेष न पालें, तो इस देश की राजनीति ही देश को स्वर्ग बना सकती है.

बिहार पुलिस के सामने बड़ा सवाल है कि 18-20 बम, राज्य की राजधानी में, उनकी नाक के नीचे लगा दिये गये, उन्हें पता तक नहीं? इन बमों से उस सभा में विस्फोट किये, जो पुलिस की निगाह में हाइ-प्रोफाइल मानी जा रही थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शब्दों में कहें, तो यह घटना, धब्बा है. पर गंभीर और न मिटनेवाला. मामूली भीड़ को उन्मादी बनते हुए यह देश रोज देख रहा है. ‘74 के छात्र आंदोलन में कुछ लोगों ने पटना में जो आग लगायी, तोड़फोड़ की, वह ज्ञात इतिहास है. इसलिए मोदी को सुनने आयी बिहारी जनता ने जिस संयम का परिचय दिया, उसकी सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए. यह सामाजिक परिपक्वता की झलक है. अद्भुत संयम के संकल्प का संकेत है. रैली के अंत में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह शांति की बार-बार अपील की, तटस्थ लोगों को उसका भी उल्लेख करना चाहिए. अपनी सभा में जिस तरह उन्होंने गरीब हिंदू और गरीब मुसलमानों से हाथ उठा कर न लड़ने की बात की, एक परिपक्व होते नेता की यह झलक है. यह सच है कि देश में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी मिल कर रहें, तभी यह मुल्क महान बन सकता है. आपसी फूट-टूट से देश तबाह हो जायेगा. हमारे देश निर्माताओं ने ‘भिन्नता में भारतीय एकता’ की कल्पना की थी. मोदी ने अपने भाषण में अपने स्वार्थ के तहत भी हिंदू-मुसलमान दोनों को गरीबी से मिल कर लड़ने का आह्वान किया, तो इस बदलाव का स्वागत होना चाहिए. भारतीय राजनीति के साथ दिक्कत यह भी है कि भाजपा अगर अन्य दलों के सांचे में धर्मनिरपेक्ष हो जाये, तो सांप्रदायिकता के भय की पूंजी के बल पर राजनीति करनेवाले धर्मनिरपेक्ष दलों का क्या हश्र होगा? मोदी आलोचकों की नजर में यह दिखावे की बात भी हो सकती है. पर, देश के जाने-माने पत्रकार, टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक और मोदी के बड़े आलोचकों में रहे दिलीप पडगांवकर ने टाइम्स ऑफ इंडिया (23.10.2013, मोदी स्वर्भस टू मॉडरनिटी : न्यू पोजेज ए बिगर थ्रेट टू कांग्रेस) में छपे अपने लेख में इस बात का उल्लेख किया है कि मोदी अपने भाषणों में बदलते दिखाई दे रहे हैं. उनकी नजर में मोदी का यह बदलाव, कांग्रेस के लिए असली चुनौती है.

एनडीए में जदयू का भाजपा के साथ रहना, भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है. इस दौर में भाजपा अपने तेवर, सोच और कामकाज में पुराने जनसंघ से बहुत बदली, तो इसका श्रेय मध्यमार्गी जदयू जैसे दलों का भी है. वैचारिक मतभेद हुआ, तो भाजपा-जदयू अलग हुए. विचार के आधार पर मतभिन्नता का भारतीय राजनीति में स्वागत होना चाहिए. पर क्या हो रहा है? बिहार भाजपा के नेताओं ने पहले जिस तरीके के बयान और हमले नीतीश कुमार पर शुरू में किये, वह गरिमा के अनुकूल नहीं था. पहले यही नेता, नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री की झलक देखते थे. लेकिन अलग होते ही इस तरह हमलावर होने से राजनीति में मर्यादा और शुचिता टूटी. ओड़िशा में नवीन पटनायक भी एनडीए से अलग हुए. पर उन्होंने अद्भुत संयम और मर्यादा का परिचय दिया. भाजपा के बिहारी नेताओं के इस आचरण का उसी शैली और संस्कृति में बिहार जदयू के कुछ नेताओं ने भी जवाब देना शुरू किया. कल तक दोनों साथ थे, यह मर्यादा भी दोनों भूल गये. अंतत: राजनीति के पीछे मकसद क्या है? देश बनाना, समाज बनाना, देश और समाज को दुनिया में एक नये मुकाम पर पहुंचाना. सुसंस्कृत बनाना, पर दोनों पक्षों में क्या हो रहा है? शायद दोनों दलों के वरिष्ठ नेताओं में बातचीत भी होती है या नहीं, नहीं पता? पर ऐसे ओछे आचरणों से तो देश और समाज दोनों टूटते हैं. हमारी राजनीति, राज्य, समाज और देश को इसी रास्ते ले जा रही है. जब बिहार में विस्फोट हो रहे थे, लोग मर रहे थे, तो गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के बारे में खबर आयी कि वह मुंबई में एक फिल्म ‘रज्जो’ के संगीत का लोकार्पण कर रहे थे. शिंदे साहब सीधे-सादे, भले इंसान हैं. म्युजिक लोकार्पण में वह यह भी बता रहे थे कि आप सबको पता होना चाहिए कि पटना में क्या हो रहा है? आप लोगों को लगा होगा कि मैं इस कार्यक्रम में नहीं आ सकता, लेकिन मैं दिल से इस कार्यक्रम में आना चाहता था. यह भी सूचना है कि श्री शिंदे ने इस फिल्म की अभिनेत्री के आने के लिए 33 मिनट तक प्रतीक्षा की. जब देश ऐसी परिस्थिति से गुजर रहा हो, तो गृह मंत्री का ऐसे समारोह में उपस्थित होना क्या संकेत देता है? श्री शिंदे के इस आचरण से लोगों को वर्ष 2008 की याद आ गयी, जब मुंबई में आतंकवादियों ने हमला किया था, भारत के लोग मारे जा रहे थे और तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटील सफारी और सूट बदलने में व्यस्त थे.

दरअसल, आतंकवाद, नक्सलवाद या ऐसी गंभीर चीजों से निबटने के लिए जो कार्यसंस्कृति, समझ, तत्परता, योग्यता, चौकसी, प्रतिबद्धता और समर्पण हमारी व्यवस्था व राजनीति को चाहिए, वह है ही नहीं. यह शुद्ध रूप से गवर्नेस कोलैप्स (ध्वस्त) होने का संकेत है. देश के लिए जो सबसे खराब चीज है, वह है, बड़े अपराधों के संबंध में वोट बैंक के अनुसार कार्रवाई होना. एनडीटीवी में हुई बहस से यह सूचना सामने आयी कि यासीन भटकल की गिरफ्तारी के बाद बिहार पुलिस के आला अधिकारी, जो पटना से, उससे पूछताछ के लिए रवाना हुए, वे बीच से ही लौट गये. बिना पूछताछ किये. किन कारणों से और क्यों, यह किसी को पता नहीं है? उल्लेखनीय है कि इंडियन मुजाहिद्दीन का यह बड़ा आंतकवादी काफी दिनों तक बिहार में रहा था. बिहार और झारखंड तो आतंकवादियों के पनाहगाह बन गये हैं. झारखंड के मुख्यमंत्री, हेमंत सोरेन ने कहा कि झारखंड, आतंकवादियों का हब बन गया है. बिहार के बारे में भी ऐसी ही सूचनाएं आती रही हैं. क्या मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री सूचना देने के लिए होते हैं? उनकी भूमिका क्या प्रतिपक्ष के नेता की तरह हालात बयान करना भर है या वह जिस गद्दी या ओहदे पर बैठे हैं, उसका पवित्र दायित्व है, लोगों की सुरक्षा, सुनिश्चित करना?

कुछ ही दिनों पूर्व एक लेख लिखा था (देखें प्रभात खबर, दिनांक – 22.09.2013, पेज-1), कांग्रेस की देन हैं, मोदी! संडे गाजिर्यन (दिनांक -29.10.2013) की बेवसाइट पर एक खबर है, ‘राहुल गांधी इज इंश्योरिंग नरेंद्र मोदी’ज विक्ट्री’ (राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित कर रहे हैं). नरेंद्र मोदी कामयाब होंगे, अब भी इस राजनीतिक टिप्पणीकार को संभव नहीं लगता, पर यह तो तय है कि उन्हें लोग सुनने आ रहे हैं. क्यों? महज कांग्रेस के कारण! गवर्नेस कोलैप्स, महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद से निबटने में तत्कालीन सूट बदलनेवाले गृह मंत्री शिवराज पाटील या अब बम विस्फोटों के बीच फिल्म संगीत की सीडी रिलीज करनेवाले नेताओं की कार्यसंस्कृति के कारण. आज इंदिरा जी की पुण्यतिथि (31 अक्तूबर) है. खालिस्तान, बांग्लादेश वगैरह मुद्दों से कैसे उन्होंने निबटा था? पार्टी हित, गद्दी हित से ऊपर देश हित रखा. अपनी कुरबानी दी. आज किसी नेता में दम या सामथ्र्य नहीं है कि वह देश का हित अपनी गद्दी भूख से ऊपर रखे. लगातार आतंकवाद की घटनाएं बढ़ रही हैं, अनेक के बारे में तो अब तक सुराग ही नहीं मिले हैं. बिहार के बोधगया में हुई आतंकवाद की घटना का अब तक पता नहीं चला. वह घटना भी हुई, तो तुरंत देश स्तर पर कुछ जिम्मेवार नेताओं ने आधारहीन बयान दिये. बिहार में भी. पर आज तक ऐसे आरोप लगानेवाले एक प्रमाण नहीं दे सके. आज जरूरत है कि भाजपा-आरएसएस दोषी हैं, तो सप्रमाण उन पर कठोर कार्रवाई करें. सत्ता आपके हाथ में है. पर मेहरबानी कर, महज आरोप लगा कर उन्हें लोकप्रिय न बनाएं? अपनी अक्षमता का परिचय न दें.

केंद्रीय जांच एजेंसी एनआइए के सूत्रों से खबर आयी कि पटना बम विस्फोट के दौरान बिहार पुलिस से को-ऑर्डिनेशन का अभाव रहा. यह सूचना भी आयी है कि बम अप्रभावी करने की आधुनिक तकनीक से भी बिहार पुलिस सुसज्जित नहीं है या बम को पुराने तौर-तरीके से जला कर विस्फोट कर, उसके साथ प्रमाण नष्ट कर दिये गये. ‘द संडे गाजिर्यन’ के अनुसार, भारतीय सीमा से लेकर अंदर तक आज सेना से लेकर अनेक निरपराध लोग मारे जा रहे हैं. क्या ऐसे देशवासियों की जान की कीमत नहीं है? आतंकवाद में मारे जा रहे लोगों के परिवार हैं या नहीं? क्या आतंकियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने से सरकारें पीछे हट रही हैं? दरअसल, सरकारों की अकर्मण्यता, मोदी की सभाओं में भीड़ बढ़ा रही है. इस तथ्य को देश और हुक्मरान जितनी जल्द समझ लें, बेहतर है.

(पटना में उपस्थित न रहने के कारण इस लेख में उद्धृत तथ्य टीवी पर देखे दृश्य-बहसों पर आधारित हैं.)

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