पंकज मुकाती
मध्य प्रदेश ने हमेशा सीधा फैसला दिया है. जिसे भी चुना, पूरा बहुमत दिया. यहां गठबंधन, साझा सरकार, बाहर से समर्थन जैसा अब तक कुछ नहीं रहा है. प्रदेश के गठन के बाद से ही यहां दो दलों के बीच मुकाबला रहा है. कुछ नये दल भी प्रदेश की राजनीति में उभरते रहे, पर ये सब कांग्रेस, भाजपा से टूट कर बने दल ही रहे हैं, और कुछ ही दिन में मिट भी गये.
इसके कुछ बड़े उदाहरण हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस से अलग होकर मध्य प्रदेश कांग्रेस पार्टी बनायी, तो पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने भाजपा से नाराज होकर भारतीय जनशक्ति पार्टी को खड़ा किया. पर मध्य प्रदेश की जनता के मिजाज के आगे दोनों पार्टियां नहीं टिक सकीं. इस बार भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है. वैसे, बहुजन समाज पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और समाजवादी पार्टी भी राज्य के कुछ हिस्से में सक्रिय दिखती है.
प्रदेश में भाजपा का नारा है- ‘फिर भाजपा, फिर शिवराज.’ वहीं कांग्रेस का नारा है-‘शिवराज हटाना है, कांग्रेस की सरकार बनाना है.’ यहां शिवराज का कद पार्टी से बड़ा दिख रहा है, लेकिन शिवराज के लिए वापसी उतनी सरल नहीं है, जैसी दिखायी जा रही है. बेशक, शिवराज की छवि के आगे प्रदेश में कोई नेता नहीं टिकता पर उनके मंत्रियों और भाजपा विधायकों के प्रति जनता में नाराजगी है. भाजपा की आंतरिक रिपोर्ट भी यही है. 70 फीसदी मंत्री और आधे विधायकों से जनता नाराज है. कारण, जनता से दूरी, अक्खड़ स्वभाव और बेलगाम बयानबाजी. दर्जन से ज्यादा मंत्री लोकायुक्त जांच में फंसे हुए हैं. मंत्रियों और विधायकों के प्रति जनता की नाराजगी पार्टी के लिए चिंता का कारण है. यही वजह है कि पिछले दिनों पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को सार्वजनिक मंच से कहना पड़ा- ‘शिवराज को इनके मंत्रियों और विधायकों के कारनामों की सजा मत देना. वोट देते वक्त शिवराज को याद रखना.’
कांग्रेस ने ऐन चुनाव के वक्त केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव अभियान की कमान सौंप कर मुकाबले को जोरदार बना दिया है. कांग्रेस पिछले चुनाव से कहीं बेहतर दिखाई दे रही है. आज यदि चुनाव हो तो पार्टी करीब 95 तक सीटें जीत सकती है. इसका कारण है संगठन के स्तर पर करीब दो साल से पार्टी सक्रिय है. राहुल गांधी ने अपनी टीम के जरिये बारीकी से काम करवाया है.
छोटी-छोटी रियासतों में बंटी पार्टी अब एक हो रही है. दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अजय सिंह जैसे छत्रपों को एक मंच पर लाने में राहुल सफल रहे हैं. सारे नेताओं को साधा भी गया है. भूरिया को अध्यक्ष बना कर आदिवासियों में उम्मीद जगायी कि उनकी बिरादरी से भी कोई मुख्यमंत्री बन सकता है, तो सिंधिया के जरिये युवाओं और दूसरे वर्ग को साधा है. सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि दिग्विजय सिंह को प्रदेश में बड़ी सफाई से दरकिनार कर दिया गया है. प्रदेश की जनता आज भी दिग्विजय सिंह के कार्यकाल को लेकर गुस्से में रहती है. राहुल के जासूसी तंत्र ने ये सलाह दी कि प्रदेश में जितना दिग्विजय सिंह का चेहरा दिखेगा, उतना पार्टी को नुकसान होगा. इसकी खीझ दिग्विजय सिंह के बयानों में भी दिख रही है. दस दिन पहले उन्होंने सार्वजनिक मंच पर राहुल की मौजूदगी में कहा कि अब ढलते सूरज को कौन पूछता है, और मैं ढलता सूरज हूं.
फिलहाल चुनावी तापमान शिवराज के पक्ष में है. पर सर्दी बढ़ने के साथ अभी की तस्वीर कोहरे में दब सकती है और टिकट वितरण के बाद ही सही तस्वीर सामने आयेगी. दोनों दलों में बड़ा विरोधाभास दिख रहा है, भाजपा शिवराज के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है, तो कांग्रेस पार्टी संगठन के नाम पर. कांग्रेस कार्यकर्ता सत्ता में वापसी को बेचैन हैं, तो भाजपा का कार्यकर्ता आश्वस्त होकर सो रहे हैं. भाजपा को सत्ता विरोधी लहर भी ङोलनी है, पर कांग्रेस को पाना ही है. चुनाव आते-आते यहां मुकाबला बराबरी पर आ सकता है. पिछले चुनाव में करीब 30 सीटों पर कांग्रेस को बागियों के कारण नुकसान उठाना पड़ा था. इस बार कांग्रेस सतर्क है. बसपा और सपा भी कुछ सीटों पर मजबूत है, पर कोई बड़ा उलटफेर नहीं कर पायेगी.